पूर्वांचल को राज्य नहीं, विकास चाहिए

पूर्वांचल की जनता उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं चाहती। भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद यह पहली घटना है कि जब ‘पूर्वांचल प्रदेश’ बनाने का प्रस्ताव राज्य के विधान मंडल में पास होने के बाद भी, इस नए राज्य के लिए कोई उत्साह जनता में नहीं दिखा। क्योंकि, नया राज्य बनने से राजनेताओं को भले ही फायदा हो; लेकिन पूर्वांचल की जनता का फायदा तो विकास की गति तेज करने से ही होगा।

‘पूर्वांचल राज्य ..पूर्वांचल राज्य’ का नारा अब पुराना और फीका पड़ गया है। पूर्वांचल के लोगों पर पूर्वांचल के ही भाग अयोध्या के भरत का प्रभाव भरपूर है। इसी कारण जैसे श्री राम के द्वारा दिया अयोध्या का राज्य भरत ने ठुकराया उसी प्रकार पूर्वांचल के लोगों ने २०११ में घोषित पूर्वांचल प्रदेश के पारित प्रस्ताव को ठुकरा दिया। पूर्वांचल को अब विकास चाहिए।

उत्तर प्रदेश को आर्थिक विकास एवं भाषा आदि की दृष्टि से चार भागों में बांट कर देखने की परम्परा पुरानी है। पूर्वांचल, मध्यांचल या अवध, पश्चिमांचल या हरित अंचल एवं बुन्देलखण्ड नामक अंचलों अथवा भागों में बांटने की कहानी काफी पुरानी है। ब्रिटिश शासन काल में संयुक्त प्रांत आगरा एवं अवध नाम से चले आ रहे प्रांत का नाम १९३५ में ’संयुक्त प्रांत’ हुआ। आज़ादी के बाद १९५० में लागू स्वतंत्र भारत के संविधान में इसी प्रांत को ‘उत्तर प्रदेश’ के रूप में मान्यता मिली। ब्रिटिश काल से चले आ रहे उत्तर प्रदेश के नाम भले ही बदले हों परंतु क्षेत्रफल लगभग वही रहा। इस प्रदेश के क्षेत्रफल में पहली बार परिवर्तन ९ नवम्बर, २००० को हुआ और उत्तरांचल (वर्तमान में उत्तराखंड) अस्तित्व में आया।

उत्तर प्रदेश जनसंख्या की दृष्टि से बड़ी आबादी वाला राज्य है। २०११ की जनगणना के अनुसार इसकी कुल आबादी १९,९५,८१,४७७ थी। इस आबादी में २० प्रतिशत का विकास दर ज़ारी है। इस राज्य में साक्षरता ६७ प्रतिशत है। पुरुष साक्षरता दर ७७ प्रतिशत एवं स्त्री साक्षरता दर ५७ प्रतिशत है। ७५ जिलों एवं १८ कमिश्नरियों वाले उत्तर प्रदेश से ८० सदस्य लोकसभा के लिए तथा ३१ सदस्य राज्यसभा के लिए निर्वाचित होते हैं। ४०३ विधान सभा सीटों वाला यह राज्य है। इससे अधिक विधान सभा सीटें किसी अन्य राज्य की विधान सभा में नहीं है। १९४७ के पश्चात तथा १९५० स्वतंत्र भारत के संविधान की व्यवस्था के अंतर्गत स्थापित राज्यों की संख्या में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ राज्यों के भौगोलिक क्षेत्रों में भी बदलाव आया। उत्तर प्रदेश में भी बदलाव उत्तराखंड के साथ हुआ। लेकिन देश अथवा प्रदेश स्तर पर हुए राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात् उत्तर प्रदेश की सामान्य जनता द्वारा कभी भी पूर्वांचल राज्य के लिए वह प्रयास तथा आंदोलन नहीं हुए, जो कि एक राज्य के लिए होने चाहिए। राज्यों के पुनर्गठन पर चर्चा करें तो इसका इतिहास काफी लम्बा है।

राज्यों के पुनर्गठन के दौर में शांत पूर्वांचल

देश में राज्यों के पुनर्गठन की मांग स्वतंत्रता से पूर्व ही प्रारंभ हो चुकी थी। स्वतंत्रता से पूर्व बिहार और उड़ीसा प्रांत में भाषा के आधार पर आंदोलन प्रारंभ हुआ। इस आंदोलन में उड़िया भाषी क्षेत्र को अलग प्रांत बनाने की मांग की गई। लम्बे संघर्ष के बाद भाषा के आधार पर १९३६ में उड़ीसा प्रांत अस्तित्व में आया। भाषा के आधार पर बनने वाला उड़ीसा देश का पहला प्रांत था। स्वतंत्रता के बाद एवं देशी रियासतों के विलय के पश्चात् स्वतंत्र भारत के संविधान में ब्रिटिश कालीन प्रांतों का पुनर्गठन कर नए रूप में नए नाम के साथ मान्यता दी गई। यह राज्यों के पुनर्गठन का दूसरा दौर था। इसके अंतर्गत १९५० के पश्चात् भाषा के आधार पर राज्यों के पुनर्गठन की मांग हुई और १९५३ में सर्वोच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश फैज़ल अली के नेतृत्व में बने आयोग की संस्तुति के आधार पर १९५६ में भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन किया गया। यह राज्यों के पुनर्गठन का तीसरा दौर था। १९५६ के पश्चात् राज्यों के पुनर्गठन की मांग विकास एवं राजनीति के आधार पर होती रही। इसी दौर में झारखंड, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड आदि नए राज्य अस्तित्व में आए। यह राज्यों के पुनर्गठन का चौथा दौर कहा जा सकता है। राज्यों के पुनर्गठन के साथ-साथ केंद्र शासित प्रदेशों का भी पुनर्गठन, निर्माण, एवं व्यवस्था परिवर्तन हुआ। इसे राज्यों के पुनर्गठन का चौथा दौर कह सकते हैं।

राज्यों के पुनर्गठन के साथ-साथ देश की प्रशासनिक व्यवस्था का भी स्वरूप बदलता रहा। कंप्यूटर के विकास के पश्चात् एवं ई-गवर्नेन्स व्यवस्था के प्रभावी होने के दौर में भी राज्यों का पुनर्गठन हुआ। इस श्रेणी में आंध्र प्रदेश से अलग होकर बना ‘तेलंगाना’ राज्य प्रमुख उदाहरण है। इसे हम राज्यों के पुनर्गठन का पांचवां दौर कह सकते हैं। इस प्रत्येक दौर में भी पूर्वांचल शांत रहा।

पूर्वांचल प्रदेश

भारत में राज्यों के पुनर्गठन के उक्त मुख्य पांच चरणों में कभी भी जनता के बीच से ‘पूर्वांचल’ राज्य के गठन की मांग हुई ही नहीं। २००० के पश्चात् कुछ राजनेताओं ने यद्यपि पूर्वांचल राज्य बनाने के लिए प्रयास किया और जनता के बीच भी गए परंतु उनको सफलता हाथ नहीं लगी। उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल राज्य बनाने की कड़ी में सब से बड़ी चाल पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने चली। २००७ में हुए उत्तर प्रदेश विधान सभा के चुनाव में विधान सभा की कुल ४०३ सीटों में से २०६ सीटें पाकर सरकार बनाने के बाद अपनी सरकार के अंतिम वर्ष २०११ में उत्तर प्रदेश को चार भागों में बांटने का प्रस्ताव विधान सभा से पारित कराया। इस उत्तर प्रदेश पुनर्गठन प्रस्ताव- २०११ के अंतर्गत चार राज्यों के निर्माण का प्रस्ताव था। उत्तर प्रदेश के पुनर्गठन के बाद पूर्वांचल प्रदेश, अवध प्रदेश, पश्चिमांचल प्रदेश (हरित प्रदेश) एवं बुंदेलखंड प्रदेश सहित चार राज्यों का निर्माण होना था। यह प्रस्ताव विधान सभा से पारित होने के पश्चात् केंद्र सरकार को भी भेजा गया।

२०११ में मायावती सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश का पुनर्गठन कर चार नए प्रदेश बनाने के पीछे इच्छा २०१२ के विधान सभा के निर्वाचन में पुन: बहुमत पाने की ही प्रबल रही। लेकिन परिणाम काफी विपरीत रहा। ‘पूर्वांचल’ सहित अन्य राज्य बनाने की समर्थक मायावती के दल बी.एस.पी. को बहुमत के स्थान पर विधान सभा की ८० सीटें ही प्राप्त हुईं। बी.एस.पी. के स्थान पर सपा ने अखिलेश यादव के नेतृत्व में सरकार बनाई। इतना ही नहीं ‘पूर्वांचल’ सहित अन्य राज्यों के निर्माण के प्रस्ताव के पश्चात् २०१४ में हुए लोकसभा निर्वाचन में भी मायावती के दल बी.एस.पी. का खाता भी नहीं खुला। इतना ही नहीं २०१७ के विधान सभा निर्वाचन में बसपा को ४०३ सीटों में मात्र १९ सीटों पर ही सिमटना पड़ा। यह संदेश बसपा के लिए ही नहीं उन सभी लोगों के लिए मुख्य रहा जो आए दिन सत्ता के स्वार्थ के लिए ‘पूर्वांचल’ आदि राज्यों की मांग कर रहे थे।

क्या है २०११ का पूर्वांचल प्रदेश प्रस्ताव?

२०११ में उत्तर प्रदेश की विधान सभा द्वारा उत्तर प्रदेश को चार प्रदेशों में विभाजित कर नए राज्यों को जन्म देना था। इन चार राज्यों का नक्शा तथा जिलों की संख्या भी तय थी। यदि प्रशासनिक रूप में देखें तो २०११ के पुनर्गठन में विभाजन का मुख्य आधार मंडलों (कमिश्नरियों) को बनाया गया था। वर्तमान उत्तर प्रदेश के १८ मंडलों के ही क्षेत्र एवं जिलों को चार भागों में बांटा गया था। इस विभाजन में उत्तर प्रदेश के ७५ जिलों में से सर्वाधिक २८ जिले एवं १८ मंडलों में से सर्वाधिक ८ मंडल पूर्वांचल प्रदेश के अंतर्गत थे। इस विभाजन में – फैज़ाबाद, गोरखपुर, आजमगढ़, वाराणसी, इलाहाबाद, मिर्जापुर, बस्ती एवं देवी पाटन सहित आठ मंडलों के कुल २८ जिले पूर्वांचल प्रदेश में प्रस्तावित थे। इन २८ जिलों में – वाराणसी, इलाहाबाद, संत रविदास नगर, कौशाम्बी, फतेहपुर, मीरजापुर, सोनभद्र, चंदौली, प्रतापगढ़, सुल्तानपुर, जौनपुर, आज़मगढ़, ग़ाज़ीपुर, मऊ, संत कबीर नगर, फैज़ाबाद, आंबेडकर नगर, बलिया, देवरिया, गोरखपुर, महाराजगंज, कुशीनगर, सिद्धार्थनगर, बलरामपुर, श्रावस्ती, बस्ती, गोंडा एवं बहराइच सम्मिलित हैं। पूर्वांचल प्रदेश के पश्चात् २ मंडल एवं २३ जिले अवध प्रदेश को प्रस्तावित थे। पश्चिम प्रदेश (हरित प्रदेश) को ६ मंडल एवं १७ जिले प्रस्तावित थे। बुन्देलखण्ड को २ मंडल एवं ७ जिले प्रस्तावित थे। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो उत्तर प्रदेश की ८० लोकसभा सीटों में पूर्वांचल प्रदेश में ३२ लोकसभा सीटें आतीं। जबकि, अवध प्रदेश में लोकसभा की १३, पश्चिम/हरित प्रदेश में लोकसभा की ३१ एवं बुदेलखंड में लोकसभा की ०४ सीटें आतीं। इसके अलावा विधान सभा की ४०३ सीटों में से १५९ सीटें पूर्वांचल प्रदेश के हिस्से आतीं। इसके अलावा विधान सभा की १५० सीटें पश्चिम प्रदेश (हरित प्रदेश) के हिस्से, ७३ विधान सभा सीटें अवध प्रदेश के एवं २१ विधान सभा सीटें बुन्देलखण्ड के हिस्से आतीं। इस प्रकार राजनीतिक दृष्टि से प्रस्तावित पुनर्गठन में ‘पूर्वांचल’ का पलड़ा भारी ही रहता। लेकिन ‘पूर्वांचल प्रदेश’ का खाका खींचने वाली मायावती और उनके दल बसपा के पराभव को देख कर यही कह सकते हैं कि, पूर्वांचल राज्य के लिए न तो कहीं समर्थन है और न ही कोई व्यापक जनाधार। इस प्रकार वर्तमान में ‘पूर्वांचल राज्य’ एक पुराना और अलोकप्रिय नारा बनकर रह गया है।

पूर्वांचल को विकास की आस

भारत में राज्यों के पुनर्गठन के दौर में भी पूर्वांचल शांत पड़ा रहा। कोई भी हलचल नहीं हुई। इतना ही नहीं २०११ में जब उत्तर प्रदेश को चार भागों में बांटने के बाद सर्वाधिक मंडल, सर्वाधिक जिले एवं सबसे बड़ा भू-क्षेत्र पूर्वांचल प्रदेश को मिला और इस आशय का प्रस्ताव भी उत्तर प्रदेश विधान मंडल से २०११ में पारित किया गया। फिर भी पूर्वांचल की जनता ने राज्य के पक्ष में कोई उत्साह नहीं दिखाया। इतना ही नहीं ‘पूर्वांचल प्रदेश’ के गठन का प्रस्ताव पास करने वाले दल बसपा को २०११ के बाद के लोकसभा एवं विधान सभा चुनावों में भारी हार का सामना करना पड़ा। यही नहीं पूर्वांचल राज्य के विरोध में अभिमत रखने वाले अथवा इसके पक्ष में नहीं खड़े होने वाले दलों सपा एवं भाजपा को २०११ के बाद संपन्न लोकसभा एवं विधान सभा निर्वचनों में बड़ी सफलता मिली। इस घटनाक्रम से स्पष्ट है कि पूर्वांचल की जनता उत्तर प्रदेश का विभाजन नहीं चाहती। पूर्वांचल के लोगों की मानसिकता विभाजनकारी नहीं है। भारत के राजनीतिक इतिहास में शायद यह पहली घटना है कि जब ‘पूर्वांचल प्रदेश’ बनाने का प्रस्ताव राज्य की विधान मंडल से पास होने के बाद भी, इस नए राज्य के लिए कोई उत्साह जनता में नहीं दिखा। पूर्वांचल के लोगों का यह व्यवहार स्पष्ट करता है कि पूर्वांचल को उत्तर प्रदेश से अलग राज्य नहीं चाहिए।

इस सब के बाद भी २०११ के निर्वाचनों के बाद विकास का नारा देने वालों के साथ पूर्वांचल की जनता खड़ी रही। इसी क्रम में पूर्वांचल से सपा को समर्थन २०१२ के विधान सभा निर्वाचन में मिला। इतना ही नहीं २०१४ के लोकसभा निर्वाचन में विकास की बात करने के कारण पूर्वांचल की जनता का पूर्ण समर्थन भाजपा को मिला। इसी क्रम में लम्बे अंतराल के बाद २०१७ के विधान सभा निर्वाचन में भी भाजपा को पूर्वांचल से बड़ी सफलता मिली। ये चुनाव परिणाम दर्शाते हैं कि पूर्वांचल के लोगों की चाह अलग राज्य नहीं होकर विकास ही प्रमुखता है।

आज़ादी के बाद देश को सर्वाधिक प्रधान मंत्री देने वाले भाग में विकास की उपेक्षा चिंता का विषय है। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश के कई मुख्यमंत्री भी इसी क्षेत्र से रहे। लेकिन इस क्षेत्र को विकास नहीं मिल सका। इतना ही नहीं बढ़ती आबादी एवं बढ़ते कल-कारखानों के दौर में यहां उद्योग बंद हुए। प्रमुख गन्ना उत्पादक क्षेत्र होने के बाद भी यहां की चीनी मिलें बंद हुईं। इतना ही नहीं गोरखपुर स्थित खाद का बड़ा एवं सरकारी कारखाना बंद हुआ, जिसे अब खोलने की तैयारी है। इसी क्षेत्र में स्थित कई सरकारी कताई मिलें भी बंद हुईं। यही नहीं पूर्वांचल से सरकारी एवं गैर सरकारी मिलें बंद हुईं। निजी कारखानें यदि निजी कारणों से बंद हुए तो सरकारी कारखानें क्यों बंद हुए? यह आज भी बड़ा प्रश्न है। उद्योग विहीन जिलों में मिलने वाली छूट का लाभ लेकर कई कारखानें अब भी पूर्वांचल की ज़मीन पर नए औद्योगिक खण्डहर के रूप में खड़े हैं। बड़े बिजली उत्पादक होने के साथ-साथ विंध्य क्षेत्र में प्राप्त प्रचूर खनिज सम्पदा के बाद भी इस क्षेत्र के लघु उद्योग भी बिजली के संकट से जूझ रहे हैं। इतना ही नहीं खनिज सम्पदा का भी लाभ इस क्षेत्र को नहीं मिल रहा है। अपने साधनों से सब को संपन्न बनाने में भूमिका निभाने वाला क्षेत्र स्वयं निर्धनता का शिकार है। पूर्वांचल की गरीबी को भी हम सीधे देख सकते हैं। देश में निजी विश्वविद्यालयों का दौर ज़ारी है, फिर भी पूर्वांचल में निजी विश्वविद्यालय इस कारण नहीं खुल रहे हैं क्योंकि उनकी मांग और मुनाफे के अनुरूप परिवेश नहीं है।

२०१४ के लोकसभा चुनावों के बाद पूर्वांचल प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी एवं भाजपा के साथ विकास की आशा में खड़ा है। परिवर्तन एवं विकास से वंचित पूर्वांचल को ठीक एवं अच्छी सड़कों के साथ-साथ औद्योगिक विकास भी चाहिए। पूर्वांचल की बड़ी आबादी कृषि पर निर्भर है। यहां अनाज उत्पादन के साथ-साथ आलू एवं सब्जी का भी उत्पादन बड़ी मात्रा में होता है। उत्पादन के अनुरूप कोल्ड स्टोर एवं बाज़ार नहीं होने से यहां के किसानों की हालत भी चिंतनीय है। पूर्वांचल में कृषि का आधुनिकीकरण, कृषि उत्पाद आधारित लघु उद्योग को बढ़ावा मिलना चाहिए। यहां उद्योगों के साथ-साथ कृषि क्षेत्र में रोजगार की बड़ी संभावना भी है।

पूर्वांचल के साथ यह विशेषता भी है कि दुनिया की सब से बड़ी उपजाऊ भूमि- गंगा- यमुना का मैदान के साथ इसका अस्तित्व जुड़ा है। इस उपजाऊ क्षेत्र में जल-संसाधन एवं उचित बाजार व्यवस्था के अभाव में किसान एक या दो फसलों की ही खेती करते हैं। काफी समय तक खेत खाली पड़े रहते हैं। गेहूं, धान आदि की परम्परागत खेती पर किसानों की निर्भरता अधिक है। किसानों तथा कृषि के इस स्वरूप को भी बदलना चाहिए। यहां फलों, सब्जियों आदि के व्यापक उत्पादन की संभावना खड़ी है। इतना ही नहीं दुग्ध उत्पादन में भी यह क्षेत्र काफी संभावनाओं से युक्त है। बस कमी इस बात की है कि पूर्वांचल की कोई चिंता करें और विकास से उपेक्षित इस क्षेत्र में विकास का दौर चले। क्योंकि पूर्वांचल जैसे नए राज्य बनने से राजनेताओं को भले ही फायदा हो लेकिन पूर्वांचल की जनता को फायदा तो विकास की गति तेज करने से ही होगा। इसीलिए अलग पूर्वांचल राज्य के पक्ष में खड़ा न होकर, पूर्वांचल विकास की प्रतीक्षा कर रहा है। पर्यटन की भी भरपूर संभावना यहां है।

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