आतंकवाद का असली चेहरा

किसी सामान्य लाइलाज महामारी की तरह ही आतंकवाद को भी हमने आज की एक वास्तविकता समझ कर स्वीकार कर लिया है। उसका कोई उपचार या निदान निकालें, पुराने घिसे-पिटे विफल हो चुके इलाज को छोड़ कर कोई जालिम उपाय ढूंढें, यह विचार भी कभी हमारे मन में नहीं आता। आतंकवाद तो केवल एक छलावा है। उसका असली स्वामी तो मानवाधिकार है।
शब्दों में बड़ी ताकत होती है। साथ ही, शब्द बड़ा छल कर सकते हैं। किसी भी कार्य या विषय को शब्दों में लपेटते ही उसका अर्थ पूरी तरह से बदला जा सकता है। शब्दों की व्याख्या भी ऐसे ही छलावा करती है। शब्द या व्याख्या किसी लेबल की तरह होते हैं। लेबल हमारी बुद्धि को कुंठित कर देते हैं। किसी दुकान में जाने के बाद, हम हमारी आवश्यकता की वस्तु दुकानदार से मांगते हैं। अगर वह वस्तु किसी खास लोकप्रिय कंपनी द्वारा निर्मित हो, तो हम उसकी ज्यादा जांच भी नहीं करते, न ही उसकी कीमत की हमें चिंता रहती है। इसके विपरीत सड़क पर बैठे सब्जीवाले से सब्जी खरीदते समय हम बहुत ही चौकन्ने रहते हैं। एक-एक आलू, प्याज चुन-चुन के लेते हैं। क्योंकि उस पर कोई लेबल नहीं होता। कई बार लेबल के चक्कर में माल खराब या गलत भी निकल जाता है। तब कुछ देर के लिए हम ठगा सा महसूस अवश्य करते हैं। लेकिन उसके बावजूद लेबल पर हमारी निष्ठा रत्ती भर भी कम नहीं होती। क्योंकि लेबल या ब्रांड, हमें अधिक सोचने-समझने से रोकने के लिए ही बनाए जाते हैं। धीरे-धीरे अब इस तकनीक का इस्तेमाल सार्वजनिक जीवन में भी शुरू हो गया है और राजनैतिक-सामाजिक विश्लेषणों में भी यह नज़र आने लगा है। कुछ विशेष शब्द इतनी आसानी से इस्तेमाल किए जाने लगे हैं कि हम ये जांचना भी भूल जाते हैं कि उसका असली अर्थ सचमुच वही है या फिर बदल गया है। वर्तमान समय में आतंकवाद ऐसा ही एक शब्द है और हमारे रोज़मर्रा के जीवन में रच-बस गया है। कोई यह नहीं पूछता कि इसका अर्थ क्या है? वह कैसा होता है ? किसी भी कार्य या घटना को आतंकवाद का लेबल लगाकर सच्चाई पर आसानी से पर्दा डाला जा सकता है। इसी के परिणाम दुनियाभर में देखे जा रहे हैं। इसके दाहक अनुभव हमें बार-बार देखने पड़ रहे हैं। इसके बावजूद उस व्याख्या या शब्द की गहराई में जाकर, उसका अध्ययन करने का विचार भी हमारे मन में कभी नहीं आता। है न कमाल की बात?
किसी बीमारी का एक नाम होता है और किसी बीमारी की औषधि या उपचार भी तय होते हैं। वास्तविक जीवन के रोगों से उसका संबंध हो भी सकता है या नहीं भी। लेकिन इसका विचार करने की फुरसत आज हमारी भागदौड़ भरी जिंदगी में नहीं है। विज्ञापनों और चर्चाओं के माध्यम से आने वाले इन शब्दों को हम आंख मूंद कर स्वीकार कर लेते हैं, उसके भले-बुरे परिणाम भी चुपचाप सह लेते हैं। फिर भी हम कभी शिकायत नहीं करते।
१९९३ में मुंबई में एक श्रृंखला से बम विस्फोट हुए। दो सौ से अधिक निर्दोष लोग मारे गए। उस पर आतंकवाद का लेबल लगा कर विषय समाप्त कर दिया गया। फिर २००६ में फिर एक बार इसी प्रकार की घटना पश्चिम रेलवे की गाड़ी में हुई और फिर एक बार वही लेबल लगा कर उसे भी ठंड़े बस्ते में डाल दिया गया। उसी के दो वर्ष के बाद २००८ में कराची से आए कसाब और उसकी टोली ने सैंकड़ों निर्दोष लोगों को कीड़े-मकौड़ों की तरह मौत के घाट उतार दिया। उस घटना को भी आतंकवाद का लेबल लगा कर विस्मृति की खाई में धकेल दिया गया। लेकिन ऐसी साजिशों और हत्याकांडों से निर्दोष नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए प्रशासन ने कौन से ठोस उपाय किए हैं? ऐसे सवाल कोई नहीं पूछता। आज भी ऐसी किसी घटना की संभावना व्यक्त की जाए, तो अपने-अपने घरों में दुबक जाने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। …. और अगर कोई और चारा न हो तो अपनी जान को हथेली पर रख कर घर से बाहर निकलते हैं। किसी सामान्य लाइलाज महामारी की तरह ही आतंकवाद को भी हमने आज की एक वास्तविकता समझ कर स्वीकार कर लिया है। उसका कोई उपचार या निदान निकालें, पुराने घिसे-पिटे विफल हो चुके इलाज को छोड़ कर कोई जालिम उपाय ढूंढें, यह विचार भी कभी हमारे मन में नहीं आता। परिणाम-रहित उपाय बदस्तूर जारी हैं और निर्दोष नागरिक मारे जा रहे हैं। किसी भी हत्या या हत्याकांड को आतंकवाद का लेबल लगा देने से, राज करने वाले अपने-आप बरी हो जाते हैं।
कुल मिला कर, अब यह लगने लगा है मानो आतंकवाद और सुरक्षा ने मिल जुल कर कोई समझौता कर लिया है और एक गृहस्थी बसा ली है। किसी विवाहित जोड़े की तरह, आपस में थोड़ी बहुत नोंक-झोंक चलती है। थोड़े बहुत नागरिक उसमें शहीद हो जाते हैं। फिर कुछ दिन शांति। किसी को कोई परवाह नहीं। मरने वालों को भी जीने की कोई गारंटी चाहिए हो, ऐसा लगता नहीं। न तो किसी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेने वालों को आतंकवाद का कोई स्थायी समाधान निकालने की इच्छाशक्ति बची है। हां, किसी भी घटना को आतंकवाद का लेबल चिपकाने का काम पूरी ईमानदारी से किया जाता है। क्योंकि उसकी गंभीरता और भयावहता देखने के लिए हम राजी नहीं होते। कसाब ने कीड़े-मकौड़ों की तरह कई निर्दोषों को मार डाला। ये सभी लोग निर्दोष थे। केवल संयोग से वे उस समय घटना-स्थल पर मौजूद थे। यही उनका गुनाह था। इसकी कीमत उन्हें अपनी जान देकर या गंभीर रूप से घायल होकर चुकानी पड़ी। लेकिन उन निर्दोषों पर जानलेवा हमले करने वालों का गुनाह कौन पूछेगा? याकूब मेमन ने मुंबई विस्फोटों की श्रृंखला की साजिश रची। क्या यह उसका गुनाह नहीं था? उसकी कीमत उससे कौन वसूलेगा? आखिर क्यों ऐसे सवाल नहीं पूछे जाते? सारी जांच-पड़ताल, सबूत-गवाह होने के बाद, बरसों तक मुकदमा चलने के बाद, और गुनाह साबित हो जाने के बाद भी, आखिर क्यों उसे फांसी से बचाने के लिए बड़े-बड़े वकील, समाज और कानून के ठेकेदार आगे आए? उनसे किसी ने क्यों ये सवाल नहीं पूछे? क्यों उनसे किसी ने यह नहीं पूछा कि फांसी देना अनुचित है तो धर्म के नाम पर निर्दोषों का कत्ले-आम करना उचित कैसे है? फांसी में जिनको अमानवीयता दिखती है, उन्हें कोई यह क्यों नहीं पूछता कि निर्दोषों को सैंकड़ों की तादात में मौत के घाट उतार देने से कौन-सी मानवता धन्य होती है? जो व्यक्ति मानव की परिभाषा में ही नहीं बैठता उसके साथ मानवता का व्यवहार कैसे हो सकता है?
आतंकवाद, मानवता, मानवाधिकार ये सारे शब्द निरर्थक हो चुके हैं। ये सब सिर्फ लेबल बन कर रह गए हैं। इसीलिए निर्दोषों की हत्या को अब एक सामान्य घटना माना जाने लगा है। कानून और न्याय-व्यवस्था, अपराधियों को सुरक्षा देने के हथियार बन कर रह गए हैं। इस सबका वास्तविक अर्थ समझने के लिए, क्या हम कभी समय नहीं निकालेंगे? भले ही सौ गुनहगार छूट जाएं, लेकिन एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए। यह आधुनिक न्याय की नीति है। लेकिन अब तो ऐसा नज़र आ रहा है कि भले ही सौ निर्दोष मारे जाएं, पर एक भी गुनाहगार को सज़ा न होने पाए। यही अब मानवता की परिभाषा है। हम सब इस व्यवस्था के शिकार हैं और आतंकवाद कानून की लाड़ली, हठी संतान की तरह बन चुका है। इसलिए कसाब और मेमन जैसों को दोषी साबित करने के लिए बरसों बरस कानून की उलटबासियां करनी पड़ती हैं, जबकि इन निर्दयी लोगों ने सैंकड़ों लोगों को बिना कोई मौका दिए, सीधे मौत की सजा सुना दी थी। ऐसी घटनाओं में जो मारे गए हैं उन पर आरोप करने वाला, दोषी समझ कर उन्हें सज़ा-ए-मौत देने वाला केवल वह स्वयं है। उनका गुनाह केवल इतना है कि वे किसी और धर्म में पैदा हुए हैं और वे उसके सामने मौजूद हैं। इतना गुनाह, उन्हें सज़ा-ए-मौत देने के लिए काफी है। न कोई गवाह, न कोई सबूत, न कोई क़ानून। उन्हें किसी की आवश्यकता नहीं। ऐसे लोगों को आतंकवादी माना जाता है, लेकिन उनका दोष साबित करने में पुलिस और न्याय-व्यवस्था के पसीने निकल जाते हैं। इसकी वजह केवल छलावे वाले लेबल, व्याख्याएं और भटकाने वाले शब्द हैं। हमें इन शब्दों और व्याख्याओं ने ही खतरे में डाला है। जब तक हम इन शब्दों और व्याख्याओं के खिलाफ खड़े नहीं हो जाते, तब तक हमें अपनी सुरक्षा की आशा रखने का कोई अधिकार नहीं।
पिछले दो-तीन दशकों में आतंकवाद दुनियाभर में फैल चुका है, और मानवाधिकार इस आतंकवाद का आश्रयदाता बन चुका है। जब तक इस आश्रयदाता से सवाल नहीं पूछे जाते तब तक नागरिकों को सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती। कोई सामान्य अपराधी हो या आतंकवादी, जब तक उसे सजा और कानून का भय नहीं होगा, तब तक उनके हौसले पस्त नहीं होंगे। दुनियाभर में केवल एक ही देश ऐसा है जिसने ये हिम्मत दिखाई है। उस देश से आतंकवाद का नामोनिशान भी मिट चुका है। उस देश का नाम है श्रीलंका। चार दशक पूर्व, खालिस्तान नामक अतिवाद ने हाहाकार मचाया था। उसी समय श्रीलंका में लिट्टे नामक अलगाववादी जहरीले सांप का जन्म हुआ। उनका बंदोबस्त श्रीलंका की सेना भी कर नहीं पाई थी। तमिल आतंकियों के वर्चस्व वाले भाग जाफना में तो श्रीलंका की सेना प्रवेश भी नहीं कर सकती थी। इस पूरे कालखंड में मानवतावादी संस्थाओं और मानवाधिकार संगठनों ने लगातार अपना हस्तक्षेप बनाए रखा था। लेकिन इस हस्तक्षेप से न तो हिंसा रुकी, न आतंकवाद पर नियंत्रण आ पाया। जब-जब इन तमिल आतंकियों पर श्रीलंका की सेना का दबाव बढ़ता था, ठीक उसी समय ये मानवाधिकार संस्थाएं हस्तक्षेप कर के समझौता करवा देती थीं। युद्ध विराम की संधि होती थी। तमिल आतंकियों को गोला-बारूद मिलने तक यह संधि टिकती थी। उसके बाद फिर नया संघर्ष शुरू होता था। तीन दशकों तक यही आंख-मिचौली का खेल चलता रहा। इसमें भारत के प्रधान मंत्री राजीव गांधी ने भी हस्तक्षेप किया और भारत की ओर से शांति सेना भेजी। इस शांति सेना के १६०० जवान मारे गए। उन्हें भी इन तमिल आतंकियों ने ही मारा था। लेकिन एक समय के बाद श्रीलंका सेना और सरकार ने इन हस्तक्षेप करने वालों को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया और आतंकवाद का हमेशा के लिए सफाया हो गया।
यही आतंकवाद का सत्य है। उसके पीछे कोई तर्क नहीं है, कोई विचार नहीं है। क्रांति, स्वतंत्रता या स्वाभिमान का इससे कोई सरोकार नहीं है। पड़ोसी देशों की सरकारें दूसरे देश के असंतुष्टों को उपद्रव फैलाने के लिए जो भी धन और साधन मुहैया कराती है, उसी का नाम आतंकवाद है। श्रीलंका के तमिल उपद्रव में भारत का हाथ किसी से छिपा नहीं है। आखिर इसकी कीमत भारत को राजीव गांधी की हत्या के साथ चुकानी पड़ी। इसके बावजूद तमिल आतंकवाद समाप्त नहीं हुआ था। आखिरकार, छह वर्ष पूर्व श्रीलंका में राजपक्षे नामक एक ऐसा नेता आया जिसने आतंकवाद को नेस्तनाबूत करने का बीड़ा उठाया और जनता से समर्थन मांगा। जनता ने भी उसे चुना। उसके बाद, साल भर में ही राजपक्षे ने श्रीलंका को आतंकवाद के काले साये से हमेशा के लिए मुक्त करवा दिया। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्होंने आतंकवाद शब्द के हौवे को कभी हावी नहीं होने दिया। हर तरह की हिंसा को सिरे से नकार दिया और उसका सीधे आंखों में आंखें डाल कर सामना किया। उन्होंने अपने विचार स्पष्ट रखे और किसी संभ्रम को कोई स्थान नहीं दिया। उन्होंने सीधे कहा कि जो भी हिंसा कर रहे हैं, फिर वे चाहे किसी भी विचारधारा के हों, वे एक हत्यारे खूनी हैं, और उनके साथ किसी भी सामान्य अपराधी की तरह ही बर्ताव होना चाहिए। उन्हें कोई विशेष दर्जा नहीं दिया जाएगा। अपने इस विचार पर वे अटल रहे। इन आतंकियों के हथियार इतने पैने नहीं हैं जितने इनकी सुरक्षा के लिए आगे आने वाले मानवाधिकार संगठनों के पास कानूनी दांवपेंच हैं। इसलिए राजपक्षे ने सबसे पहले घरेलू और अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संगठनों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया। किसी प्रकार के मानवाधिकार संगठनों और उनके एजेंटों को श्रीलंका में कोई स्थान नहीं रहा। कानून में भी राजपक्षे ने इसी प्रकार से परिवर्तन किए और फिर कठोर सैनिक कार्रवाई की। परिणामस्वरूप, श्रीलंका की सेना और आतंकवादियों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई हुई। इसमें कोई बाधा उत्पन्न नहीं कर पाया। इस प्रकार आखिरी तमिल आतंकी का भी सफाया हो गया।
श्रीलंका हो या किसी और देश की सेना, उनके लिए किसी भी आतंकवादी टोली का सफाया करना कठिन नहीं होता। लेकिन उनके हाथों के शस्त्रों की तुलना में उनके समर्थन में आने वाले मानवाधिकार संगठन ज्यादा खतरनाक होते हैं। ये मानवाधिकार संगठन ही असली आतंकवादी हैं। वे ही कायदे-क़ानून में से ऐसी गलियां और पगडंडियां निकालते हैं कि सेना के बड़े-बड़े शस्त्र भी उनके आगे बेअसर हो जाते हैं। फिर, इन कानूनी दांव-पेंचों में फंसे सेना के जवानों का सामना करना आतंकवादियों के लिए बहुत आसान होता है।
हाल ही में कश्मीर में हमारे मेजर गोगोई ने एक पथराव करने वाले को जीप से बांध दिया और सेना पर हमला करने वालों के क्रिया-कलाप एक क्षण में बंद हो गए थे। लेकिन उन पथराव करने वालों को समझाने के लिए और मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए एक भी मानवतावादी नहीं गया। लेकिन यही मानवतावादी बिना देरी किए मेजर गोगोई और भारतीय सेना पर टूट पड़े थे। इसमें यह बात ध्यान देने योग्य है कि आतंकवाद नामक फौज की तीन सतहें हैं। पहली सतह में मानवतावादी सामने आते हैं, सेना के हर काम पर सवाल उठाते रहते हैं और सरकार का ध्यान विचलित करने की कोशिश करते हैं। दूसरे स्तर पर कुछ बुद्धिजीवी, आतंकवाद को क्रांति या आंदोलन जैसा कोई फैंसी नाम देकर उसका महिमा मंडन करते हैं। उसे राजनैतिक संघर्ष का रूप देने की कोशिश करते हैं। जब इन दोनों स्तरों पर काम अच्छी तरह हो जाता है तो आतंकवादी अपनी असली तीसरी टोली को निकालते हैं और सीधे-सीधे सेना पर हिंसक हमले करने लगते हैं। एक ओर जहां सशस्त्र आतंकी अपने हमले सेना पर जारी रखते हैं, वहीं दूसरी ओर बिना किसी शस्त्र के उनके एजेंट, सिर उठा कर समाज में मानवाधिकार कार्यकर्ता बन कर घूमते हैं और उन्हीं की लड़ाई लड़ते हैं। उनकी यह निशस्त्र लड़ाई, आगे की हिंसा के लिए बहुत निर्णायक होती है। श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति राजपक्षे ने इन्हीं दो स्तरों पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को सरकारी तंत्र से निकाल बाहर किया। आतंकियों के ये रक्षक ख़त्म होने के बाद तमिल आतंकियों को नेस्तनाबूत करना श्रीलंका की सेना के लिए कठिन नहीं था।
श्रीलंका सरकार ने मानवाधिकार नामक विषैले सांप का सिर कुचल दिया। मानो उन्होंने तमिल आतंकियों के रक्षा कवच को ही ख़त्म कर दिया। इसके बाद सेना ने जाफना को चारों ओर से घेर लिया। उसमें से समुद्र मार्ग से निकल जाना या घुस आना, दोनों ही असंभव हो गया। समुद्र मार्ग से भारत या किसी अन्य देश में आश्रय लेने वाले आतंकियों को जाफना में ही घेर लिया गया। दक्षिण की ओर से जाफना को पहले ही घेर लिया गया था यह सब तैयारी होने के बाद श्रीलंका सरकार ने वहां के तमिल जनसमुदाय को सीधे-सीधे चेतावनी दी कि जो भी तमिल लोग स्वयं को आतंकवादियों का समर्थक न मानते हों वे जाफना से निकल कर दक्षिण में स्थित सेना की सुरक्षित छावनी में दाखिल हो जाएं। तय समय सीमा के अंदर जो भी इस छावनी में शामिल होगा उस पर कोई कार्रवाई नहीं होगी, उसकी जान को कोई खतरा नहीं होगा। समय-सीमा समाप्त होने के बाद जो भी जाफना या आतंकियों के बाकी अड्डों पर बाकी बचेगा, ऐसे हर एक को आतंकवादी करार देकर गोली मार दी जाएगी।
इस घोषणा के बाद, लाखों की संख्या में तमिल जनता जाफना छोड़ सुरक्षित छावनियों में पहुंची। उसके अलावा आतंकियों ने कई तमिलों को बंदी बना कर अपनी ढाल की तरह इस्तेमाल करने के लिए रखा था। यदि श्रीलंका की सेना हमला करती है, या बम गिराती है, तो बच्चों, महिलाओं और वृद्धों को मारने का इलज़ाम सेना पर डाल कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बवाल मचाया जा सकता था। अधिकतर आतंकवादी संगठन यही पैंतरा इस्तेमाल करते हैं। नक्सलवादी, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के जिहादी, ऐसे ही सामान्य नागरिकों को मार कर इलज़ाम सेना पर डालते हैं और मानवतावादी लोग उसका अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बवाल करते हैं। यह शैली ही बन चुकी है। लेकिन श्रीलंका की सरकार ने इसकी कोई परवाह नहीं की। इस प्रकार के निर्णायक युद्धों में कुछ लोग अपरिहार्य रूप से शिकार हो जाते हैं। इस युद्ध में भी यही हुआ। कुछ सैकड़ा लोग इस सैनिकी कार्रवाई में मारे गए।
जब इन निर्दोष लोगों की जानें गई, तब विश्वभर के मानवाधिकार संगठनों ने श्रीलंका सरकार और सेना के खिलाफ बहुत हो-हल्ला मचाया। सरकार को यह अपेक्षित भी था। इसलिए दुनियाभर में आलोचना होने के बावजूद राजपक्षे सरकार ने किसी को घास नहीं डाली। सैनिक कार्रवाई के परिणामों को देखने के किसी भी संस्था के प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया और किसी को भी जाफना में घुसने नहीं दिया। सैनिक कार्रवाई के अनेक चित्र दुनियाभर के चैनलों पर दिखाए जा रहे थे। मृतों के विछिन्न पड़े शरीरों को मीडिया ने बढ़ा-चढ़ा के दिखाया। फिर भी श्रीलंका सरकार विचलित नहीं हुई। उन्होंने कार्रवाई जारी रखी और अंतिम आतंकी मारे जाने तक, और इस बात की पुष्टि होने तक बड़ी निर्ममता से कार्रवाई जारी रही। आज इस बात को चार साल पूरे हो चुके हैं। इसके बाद श्रीलंका में कोई भी आतंकी हमला नहीं हुआ। तमिल आतंकियों के किसी भी गुट को अब सिर उठाना संभव नहीं है। तमिल आतंकवाद ने पिछले तीन दशकों में लाखों निर्दोष लोगों की जानें लीं। उसकी तुलना में, इस निर्णायक लड़ाई में कुल मिला कर १५०० लोग मारे गए। इसे नगण्य ही कहा जाएगा; क्योंकि शांति की स्थापना के लिए जहां नित्य हिंसा का पोषण हो रहा था, वह समस्या हमेशा के लिए जड़ से ख़त्म हो गई। तमिल अतिवादियों की बात सुनना, उनके विचार समझना, उनके गुस्से को शांत करने की कोशिशें करना, उनसे युद्ध विराम के समझौते करना, इस सारी कवायद में लाखों निर्दोष लोग मारे गए। उसके बावजूद हिंसा समाप्त होने का नाम नहीं ले रही थी। लेकिन इन १५०० जानों के बदले में हिंसाचार और हत्याकांड हमेशा के लिए बंद हो गए। इतना ही नहीं, मानवतावादी शांति को स्थापित करने के प्रयत्न में जितने लोग मारे गए, उसकी तुलना में सैनिक शांति प्रक्रिया में बहुत ही कम लोग मरे। कुछ भी हो, श्रीलंका में स्थायी शांति स्थापित हो चुकी है, यह आज की वास्तविकता है। सामान्य नागरिकों का जीवन आज सुरक्षित है।
आतंकवाद तो केवल एक छलावा है। उसका असली स्वामी तो मानवाधिकार है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद, किसी भी युद्ध में या हिंसा में सामान्य नागरिकों को मौत का शिकार न होना पड़े, इसलिए मानवाधिकार का कानून बनाया गया था। इसमें विश्व स्तर पर समझौते किए गए थे। लेकिन, जितने असैनिक लोग युद्ध में मारे गए हैं, उससे कहीं अधिक सामान्य नागरिक आतंकवादी हमलों में मारे गए हैं। इसका यही अर्थ है कि मानवाधिकार और मानवता के नाम पर चल रहे इस नाटक ने अत्यधिक संख्या में निर्दोष लोगों की जानें ली हैं। मानवाधिकार इंसानों को निगलने वाला एक भयानक राक्षस बन चुका है। पुराणों में जिस तरह से बकासुर का उल्लेख है, ठीक उसी प्रकार यह बकासुर का आधुनिक संस्करण है। वनवास के समय पांडव जब एक गांव में पहुंचते हैं, तब उन्हें पता चलता है कि बकासुर नाम के एक राक्षस ने गांव वालों का जीना मुश्किल कर रखा है। उसे रोज एक गाड़ी भर अनाज और एक इंसान खाने के लिए दिया जाता है। अंततः गांव के लोगों की ओर से भीम अनाज की गाड़ी लेकर उस राक्षस के पास जाता है। भीम स्वयं ही वह खाना खाने लगता है, जिससे गुस्सा होकर राक्षस भीम पर हमला करता है। उनके बीच भीषण युद्ध होता है और भीम अंततः बकासुर का वध कर देता है। इस बकासुर से आज का मानवाधिकार के शस्त्रों से लैस आतंकवाद का राक्षस कहां अलग है? इस राक्षस को कानून का संरक्षण मिला हुआ है और उसे खुश रखने के लिए सैंकड़ों निर्दोष नागरिकों की बलि चढ़ानी पड़ती है। उसके बाद भी उसकी भूख शांत नहीं होती। आतंकवाद और मानवाधिकार, आज के बकासुर हैं। श्रीलंका ने भीम के रास्ते पर चल कर हमेशा के लिए आतंकवाद से मुक्ति पा ली। बाकी की दुनिया, अब भी डरपोक गांव वालों की तरह मानवाधिकार को खुश रखने की कोशिश कर रही है।
बकासुर से कोई संवाद या चर्चा नहीं हो सकती। बकासुर को समाप्त करके ही समस्या का समाधान हो सकता है। चूंकि यह महाभारत की कथा है, इसलिए कुछ लोग शायद इसे बकवास समझ कर नकार देंगे। लेकिन कथा भले बकवास लगे परंतु उससे मिलने वाली सीख तो बकवास नहीं है। कथाओं से सीख कर ही दुनिया को बदला जा सकता है। सत्तर-अस्सी साल पहले युद्ध और निर्दोष नागरिकों की मौतें टालने के लिए जो मानवाधिकार कानून बनाया, आज वही कानून ही अगर सैंकड़ों निर्दोष नागरिकों की मौत का जिम्मेदार होने लगे, तो उसमें बदलाव लाना आवश्यक है। उसकी तरफ आंखें मूंद कर और केवल किताबी पांडित्य बता कर आतंकवाद का सफाया नहीं हो सकता। क्योंकि आतंकवाद शब्द ही एक छलावा है और भटकाने वाला है। आतंकवाद जैसी कोई चीज़ नहीं है। सीधे युद्ध न कर, अपने एजेंटो के माध्यम से पड़ोसी या शत्रु देश में उपद्रव करना, यही दुनिया भर में फैला हुआ आतंकवाद है। पाकिस्तान भारत को अस्थिर करना चाहता है। लेकिन उसमें सीधे युद्ध करने की हिम्मत है नहीं। इसलिए धर्म और जिहाद के नाम पर वह भारत से परोक्ष युद्ध कर रहा है। इसमें सैनिक कम और आम नागरिक ज्यादा मारे जाते हैं। इसके अलावा मानवाधिकार के नाम पर भारत के ही कुछ नागरिक उन आतंकवादियों के एजेंट बन कर उनके लिए दूसरे मोर्चे पर लड़ते हैं। यूरोप-अमेरिका में भी ऐसे ही किसी की मदद लेकर, कुछ हिंसात्मक घटनाएं कराई जाती हैं। इसिस को अरब देशों का आशीर्वाद प्राप्त है और लेबनान के हिजबुल को ईरान रसद पहुंचा रहा है। ऐसी हिंसात्मक शांति से कई बुद्धिजीवी और मानवतावादी अपनी तिजोरियां भर लेते हैं और अपना जीवन ऐशोआराम से गुजारते हैं।
आतंकवाद अब हिंसा के बहुत बड़े उद्योग में बदल चुका है। उसका किसी भी राजनैतिक विचारधारा से कोई संबंध नहीं। नक्सलवाद हो या जिहाद, उससे कई हिंसा के व्यापारी अपनी रोटी सेंक लेते हैं। हाल ही में हुर्रियत और बाकी अलगाववादी नेताओं की संपत्ति का ब्यौरा सामने आया है। बिना कोई मेहनत किए, बिना कोई व्यवसाय किए उन्होंने करोड़ों की संपत्ति खड़ी की है। आखिर इतनी संपत्ति उनके पास आई कहां से? दिल्ली में शांति और मानवता का गुणगान करने वाले और उनके हिमायती बिना किसी व्यवसाय के करोड़पति कैसे हो गए? फिलिस्तीन के युद्ध के माध्यम से करोड़ों रुपये कमाने वाले आज यूरोप में चैन से जीवन जी रहे हैं और उनके भड़काने से इजराइल और बाकी जगहों पर हिंसा और आतंकवाद फैलाने वाले मरते- मारते रहते हैं। कीड़े-मकौडों की तरह करोड़ों लोग बंजारों का जीवन जीने को मजबूर हैं। कुल मिला कर, जिसे हम आतंकवाद कहते हैं, वह एक निर्दयी, अमानुष व्यवसाय बन चुका है। दुनियाभर में उनके एजेंट अपनी दुकान लगाए बैठे हैं। हथियार, ड्रग्स और नकली नोट सब कुछ उपलब्ध है यहां। मानवाधिकार के नाम से उन्हें हिंसा को बढ़ावा देने का अधिकृत लाइसेंस भी मिल जाता है। निर्दोषों की चिताओं पर अपनी रोटियां सेंकना, इनके सफल व्यवसाय का मूल-मंत्र है। इन्होंने ही शांति, अहिंसा, मानवता, मानवाधिकार जैसे राक्षस पैदा किए हैं। जो इनकी सारी इच्छाएं पूरी करते हैं। हम कभी इन लेबलों की गहराई में नहीं जाते, इसलिए हिंसा और हत्याकांड का इनका बाजार तेजी में है। इस सच्चाई को न समझ पाने के कारण, हम समझ रहे हैं कि आतंकवाद बढ़ रहा है। वास्तव में, मानवाधिकार और आतंकवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसी ने दुनियाभर में पिछले सात-आठ दशकों में लाखों निर्दोषों की जान ली है।

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