स्वदेशी राष्ट्रभाषा का महत्व

महर्षि दयानंद हिंदी को आर्य भाषा कहते थे। आर्य समाज, लाहौर ने सन 1936 में प्रथम आर्य भाषा सम्मेलन किया, जिसके अध्यक्ष मुंशी प्रेमचंद थे।

आर्य समाज, लाहौर ने सन 1936 में आर्य भाषा सम्मेलन किया। आर्य समाज के संस्थापक, स्वराज्य की अवधारणा के प्रथम उद्घोषक, क्रांतिकारियों के दोनों दलों के मूल प्रेरक महर्षि दयानंद जी महाराज हिंदी को आर्य भाषा कहते थे। लाहौर आर्य समाज की स्वदेशीय भावना का पता इसी से चल जाता है कि कांग्रेस के जन्म से छह वर्ष पूर्व सन् 1879 में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का शुभारंभ इसी संस्था ने किया था, जिसका विवरण 24 अगस्त 1879 के “स्टेट्समैन” अखबार में मिलता है।

इसी देशभक्त संस्था के आर्य भाषा सम्मेलन के अध्यक्ष पद से उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद जी ने कहा था- “भाषा के विकास में हमारी संस्कृति की छाप होती है, और जहां संस्कृति में भेद होगा वहां भाषा में भेद होना अनिवार्य है।” हम मुंशी प्रेमचंद जैसे क्रान्तदर्शी, साहित्य-पुरूष के विचारों की गहराई को न जान सके, हमने अंग्रेजी की छत्रछाया में भारतीय संस्कृति को जीवित व साहित्य-पुरुष के विचारों की गहराई को न जान सके, हमने अंग्रेजी की छत्रछाया में भारतीय संस्कृति को जीवित व सुरक्षित रखने का असफल प्रयास किया। डॉ. शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने तो यहां तक कहा था- “हिंदी हमारी मातृभाषा ही नहीं, अपितु वह देश की आत्मा की आवाज है।” साहित्य से जुड़े भारतीय सभ्यता व संस्कृति के प्रति निष्ठावान हर बुद्धिजीवी के ऐसे ही विचार हमें पढने व सुनने को मिलते हैं।

साहित्यकार ही नहीं देश के उच्च कोटि के राजनेता, देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने तो बार-बार आग्रह किया था कि देश का संविधान ही राष्ट्रभाषा हिंदी में लिखा जाना चाहिए। 18 मई 1949 को सेठ गोविंददास के एक प्रश्न के उत्तर में कहा था- “मैं अपने इस मत पर स्थिर हूं कि राष्ट्र की गरिमा और आत्मसम्मान के अनुरूप तो यही होगा कि संविधान राष्ट्रभाषा में ही हो।”

संविधान निर्माताओं में डॉ. भीमराव आंबेडकर का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। डॉ. आंबेडकर ने भाषा के विषय में बड़े विस्तार के साथ कहा था, “एक राज्य एक भाषा” लगभग प्रत्येक देश की सार्वभौमिक विशेषता है। जर्मनी का संविधान देखिए, फ्रांस के संविधान पर द़ृष्टि डालिए, इटली के संविधान पर द़ृष्टि दौड़ाएं, यूएसए का संविधान पढें, सब जगह एक राज्य एक भाषा का नियम है। जहां-जहां इस नियम का पालन नहीं हुआ-राज्य को खतरा पैदा हो गया।

आस्ट्रियाई साम्राज्य और तुर्की की सल्तनतें इसलिए नष्ट-भ्रष्ट हुईं क्योंकि वे बहुभाषी थे। डॉ. आंबेडकर आगे लिखते हैं- “भारतवासी संगठित होना चाहते हैं और एक सामाजिक संस्कृति विकसित करना चाहते हैं, इसलिए सभी हिन्दुस्तानियों का भारी कर्तव्य है, कि वे हिंदी को अपनी भाषा घोषित करें।” उन्होंने अंत में एक चेतावनी भी दी थी कि, “यदि मेरा यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया जाता तो भारत नहीं रहेगा। वह अलग-अलग राष्ट्रों का समूह होगा, जो परस्पर प्रतिस्पर्धा व लड़ाई में लगे रहेंगे। कितनी दूर द़ृष्टि थी इन संविधान निर्माताओं की, कितना सटीक व सच्चा आकलन था उनका? विश्व इतिहास पर द़ृष्टि डाली जाए तो पता चलता है कि स्वतंत्र होने वाले हर राष्ट्र ने अपनी मातृभाषा को ही देश के राज-काज की भाषा बनाया।

पराधीनता की स्थिति में जन-जीवन से निकल कर आइरिश भाषा भी प्राय: छिन्न-भिन्न हो गई थी, उसे जंग लग गया था, मगर उन देशभक्त आइरिशों ने हिम्मत नहीं हारी, अपनी बिखरी हुई भाषा के सूत्रों को पिरोकर उसे ही अपनाया। इजराइल ने सशक्त कही जाने वाली भाषाओं का मोह त्याग कर अपनी पुरानी हिबू्र भाषा को ही अपनाया। स्वयं इंग्लैण्ड ने गुलामी से मुक्त होते ही अपने ऊपर लदी हुई लैटिन और फ्रांसीसी भाषा के विरूद्ध संघर्ष शुरू कर दिया था और अंतत: उसने इन भाषाओं को निकाल कर फेंक ही दिया।

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