आर्य समाज-एक सिंहावलोकन

आंतरिक मामले में आर्य समाज भले ही निर्बल हो रहा हो परंतु बाह्य आपदाओं से निपटने में वह पूर्णरूपेण सशक्त एवं सक्षम है। ऐसे अवसरों पर आर्य समाज के अंतर्गत विभिन्न विचारधाराओं के लोग मिल कर एकमत हो जाते हैं और विजयश्री निश्चित रूप से आर्य समाज को ही प्राप्त होती है।

आर्य समाज की स्थापना सन 1875 में महर्षि दयानंद सरस्वती ने मुंबई में की थी। अब वह 144 वर्ष का हो गया है। इन वर्षों में आर्य समाज ने कितना कार्य किया, वर्तमान स्थिति क्या है और उसका भविष्य क्या हो सकता है आदि बातों पर विचार करना आवश्यक है।
आर्य समाज के प्रथम 25 वर्षों में इसकी नींव को उन कर्मठ व्यक्तियों ने दृढ़ किया जिन्होंने ऋषि के उपदेशानुसार अपने अंदर सद्गुणों को धारण कर दुर्गुणों का त्याग किया। उस समय के आर्य पुरुष त्यागी, परोपकारी, चरित्रवान, स्वाध्यायशील, देशभक्त, निर्भीक तथा आत्मविश्वासी थे। उन्होंने स्वार्थपरता को त्याग कर ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का ध्येय धारण कर वैदिक धर्म की सेवा में अपना तन मन धन समर्पित कर दिया। इसके कतिपय उदाहरण पं. लेखराम, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, स्वामी श्रद्धानंद, लाला हंसराज आदि महापुरुष हैं। उस काल के महापुरुषों ने सेवा धर्म को अपना कर वैदिक धर्म की बेदी पर अपने को बलिदन कर दिया और आगे आने वाली पीढ़ी को पूर्णरूपेण प्रभावित किया, जिसके कारण आर्य समाज की चतुर्मुखी उन्नति हुई और उसने राजनीति, धर्म, समाज, साहित्य आदि सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया।

आर्य समाज में दूसरे चरण अर्थात 1900 से 1925 ई. तक अनेक महापुरुष, जो प्रथम चरण के थे, हमारे मध्य में रहे। उनकी प्रेरणा से कितने भी नए विद्वान, समाजसेवी, धर्म प्रचारक, संन्यासी आदि हुए जो आर्य समाज की नौका के कर्णधार बने और उसे आगे बढ़ाया। इस युग में आर्य समाज का कार्यक्षेत्र आगे बढ़ा और वेदों का नाद तथा यज्ञ की सुगंधित धूम विदेशों के आकाश में भी फैली। आर्य समाज का जन्मशताब्दी महोत्सव इसके उत्कर्ष का मध्याह्न काल था। तत्कालीन जनता ने यह स्वप्न देखा कि निकट भविष्य में ही आर्य समाज विश्व के प्रांगण में अवतरित हो जाएगा।

आर्य समाज के तीनों चरण 1925 से 50 तक का काल स्थिर काल कहा जा सकता है। यह काल भारत में राजनैतिक उथलपुथल का था, जिसके कारण आर्य समाज के जो अनेक सुधार धाराएं प्रवाहित की थीं वे मुख्य रूप से राजनैतिक धारा में समाहित होने लगीं। कितने ही आर्य पुरुषों का ध्यान ही नहीं अपितु कार्यक्षेत्र भी राजनैतिक हो गया। धार्मिक उत्साह मंद होने लगा। जिन पवित्र उद्देश्यों से प्रेरित होकर आर्यजन दत्तचित्त से कार्य करते थे वे धूमिल होने लगा। आर्य समाज की शिक्षा संस्थाओं में स्वार्थपरता ने जोर पकड़ा। लगभग प्रत्येक संस्था में दलबंदी के बादल छा गए। नई पीढ़ी आर्य समाज से प्रेरणा पाने के स्थान पर पाश्चात्य भावना से प्रभावित होने लगी। जो आर्य पुरुष एम.एल.ए., एम.एल.सी., एम.पी. और मंत्री बने उनमें से अधिकांश राजनीतिक मायाजाल में फंस गए और अधिक समय और ध्यान अपनी स्वार्थवृत्ति को संतुष्ट करने में ही लगा। इसमें कुछ अपवावद हो सकते हैं परन्तु उससे समाज का कितना हित हो सकता है? आर्य समाज की अधिकांश संस्थाएं आज विकृत रूप धारण कर रही हैं। जहां भविष्य के कर्णधार और भावी नागरिकों (बालक/बालिकाओं की) देशप्रेम, स्वार्थ-त्याग, चरित्र निर्माण आदि की शिक्षा न देकर केवल आत्मघात की ओर प्रेरित किया जा रहा है।

आर्य समाज के सिद्धांतानुकृत बालकों को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करा कर विद्या प्रदान करने की जो प्राचीन शिक्षा-प्रणाली की नींव गुरुकुलों के रूप में डाली गई थी आज उसका स्वरूप पूर्णरूपेण परिवर्तित हो गया है। अन्य विश्वविद्यालयों के अनेक दुर्गुण इन शिक्षा मंदिरों में भी प्रविष्ट हो गए। यही कारण है कि आर्य जनता ने गुरुकुल के मेधावी ब्रह्मचारियों से ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ की जो आशा की थी उस पर कुठारघात हो गया।

इस काल की दो महत्वपूर्ण घटनाएं हैं। हैदराबाद का अपूर्व सत्याग्रह एवं सिंध में ‘सत्यार्थ प्रकाश’ पर लगाए गए प्रतिबंध के विरुद्ध आंदोलन तथा उसकी विजय। आर्य समाज के इतिहास की इन प्रमुख घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया कि आंतरिक मामले में आर्य समाज भले ही निर्बल हो रहा हो परंतु बाह्य आपदाओं से निपटने में वह पूर्णरूपेण सशक्त एवं सक्षम है। ऐसे अवसरों पर आर्य समाज के अंतर्गत विभिन्न विचारधाराओं के लोग मिल कर एकमत हो जाते हैं और विजयश्री निश्चित रूप से आर्य समाज को ही प्राप्त होती है।

आर्य समाज के चतुर्थ चरण 1950-75 की दशा पर दृष्टिपात करने से ज्ञात होता है कि इस काल में आर्य समाज का प्रभाव बढ़ने के स्थान पर घट रहा है। आज आर्य समाज के प्रचार की जितनी आवश्यकता है उतनी पहले न थी। जिसे आर्य समाज ने प्रारंभ के पिछले 50 वर्षों में जनता को प्रभावित किया, देश में जागृति उत्पन्न की एवं हिंदी संस्कृत की साहित्य धारा को मोड़ दिया वह शिक्षावृद्धि के साथ-साथ युवकों को प्रभावित करने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है। आर्य समाज को इनके कारणों पर विचार करके भविष्य का मार्ग प्रशस्त करना है।

आर्य समाज ने इस काल में दो शताब्दियां मनाईं। प्रथम दीक्षा शताब्दी मथुरा में सन् 1960 के प्रारंभ में और द्वितीय शास्त्रार्थ शताब्दी वाराणसी में सन 1969 ई. में। दीक्षा शताब्दी के अवसर पर गुरुवर स्वामी विरजानंद जी के स्मारक निर्माण का निश्चय हुआ जो अब बन कर तैयार हो गया है। वहां आर्य साहित्य के अध्ययन और निर्माण का प्रयत्न किया जा रहा है। इस क्षेत्र में आर्य समाज बहुत पिछड़ा हुआ है। आज गांधी साहित्य की प्रचुरता और व्यापकता को देखते हुए आर्य समाज का साहित्य नगण्य सा है। वस्तुतः महर्षि दयानंद जी के ही धार्मिक सुधारों के साथ-साथ राष्ट्रीयता का भी श्रीगणेश किया परन्तु गांधी साहित्य को राजकीय प्रश्रय मिलने और अन्य साधान उपलब्ध होने से उसका व्यापक प्रचार हुआ। महर्षि के पूर्व सभी जीवन चरित्रों को मिला कर एक विस्तृत एवं क्रमिक घटनाओं से युक्त जीवन चरित्र की महती आवश्यकता है। शास्त्रार्थ शताब्दी के अवसर पर आर्य समाज को कोई विशेष उपलब्धि नहीं हुई।

ऊपर जो कुछ लिखा गया है वह आर्य समाज के इतिहास पर अत्यंत संक्षेप में एक विहंगम दृष्टि है। आर्य समाज के शुभचिंतकों, विद्वानों, लेखकों, धर्मोपदेशकों, नेताओं एवं आर्य दानवीरों को सम्मिलित रूप से विचार-विमर्श कर भविष्य का मार्ग प्रशस्त करना है जिससे कि हम आर्य समाज में आई हुई बुराइयों को दूर कर उसे पुनः वह स्थान प्रदान कर सकें जो आर्य समाज की स्थापना काल से 50 वर्ष तक प्राप्त रहा। तत्कालीन आर्य समाज चारित्रिक उच्चता का द्योतक और सच्चे अर्थों में अपने चरित्र को श्रेष्ठ रख कर आर्यत्व का परिचय देता था। आज आर्य समाज में जो स्वार्थी घुस आए हैं और जिनका एकमात्र उद्देश्य आर्य समाज को हानि पहुंचा कर अपना स्वार्थ साधन करना है उनसे केवल सतर्क नहीं रहना है अपितु ऐसे अकल्याणकारी व्यक्तियों को आर्य समाज से बहिष्कृत कर देना है।

पूज्य स्वामी श्रद्धानंद जी एवं पूज्य नारायण स्वामी जी ने अपने समय में ऐसे व्यक्तियों पर सतर्क दृष्टि रखी थी और आवश्यकतानुसार उन्हें आर्य समाज से बाहर से निकाल फेंका था। उनका सिद्धांत था ‘कुर्वन्नेह कर्माणि जिजीविषत् शतं समाः‘ निस्संदेह यहां ‘कर्माणि’ शब्द शुभ कर्मों के कथन तक ही सीमित न था। कथनी और करनी के विषय में उन्होंने ऋषि दयानंद के जीवन से शिक्षा ली थी ‘जो कहो उसे करो अवश्य’। इतना ही नहीं उन मनीषी एवं कर्मठ नेताओं ने कहा कम और किया अधिक था। आज हमें आर्य समाज में ऐसे ही कर्मशील व्यक्तियों की आवश्यकता है जो अपने चरित्र की रक्षा करते हुए जो कुछ कहें उसे कार्यान्वित करके दिखाए।

अब मैं अपने कुछ विचार से आर्य समाज में जो अभाव आ गए हैं उनकी ओर संकेत कर देना चाहता हूं जिससे आर्य विद्वान् मनीषी एवं नेता उन पर विचार कर आर्य समाज को दिशानिर्देश करें और डगमगाती हुई आर्य समाज की नौका को लेकर ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम्’ का संकल्प पूरा कर सके।

1. राजनीति- देश की स्वतंत्रता के पश्चात बहुत से आर्य समाजी राष्ट्रीय कार्यकर्ता कांग्रेस में कार्य करते थे और प्रांतीय विधान सभाओं एवं संसद के सदस्य हो गए। उन्होंने आर्य समाज की ओर ध्यान देना बंद कर दिया और पूर्ण रूप से राजनीति में सक्रिय भाग लेने लगे। कतिपय अन्य विद्वान् कार्यकर्ता हैं जो आर्य समाज की ओर भी ध्यान देते रहते हैं और संसद में भी ऐसे कार्य करते रहते हैं जो आर्य समाज के हित में है परंतु ऐसे व्यक्तियों की संख्या अत्यल्प है।

2. आर्य समाज में कुछ ऐसे सफेदपोश व्यक्ति घुस आए हैं जिनका मुख्य उद्देश्य समाज की उन्नति न होकर कुछ और है। ऐसे व्यक्तियों में सेवा भावना की कमी है और अपना उद्देश्य पूर्ण होने तक ही समाज में रहते हैं और पश्चात् छोड़ कर चले जाते हैं। इनका प्रमुख उद्देश्य किसी न किसी प्रकार आर्थिक लाभ उठाने का रहता है। समाज को ऐसे व्यक्तियों से सतर्क रहना है।
3. फैशन की आंधी आजकल इतने जोर से चली है कि युवा वर्ग आर्य समाज में आना पसंद ही नहीं करता। ये लोग केवल बड़े-बड़े बाल रखने और तंग वस्त्र पहनने तक ही अपने को सीमित नहीं रखते अपितु मांस भक्षण, सुरापान, अंडे आदि का सेवन फैशन का अंग समझते हैं। धूम्रपान तो साधारण बात है। नई पीढ़ी बाह्य आकर्षणों में बही जा रही है। इनका सुधार तभी संभव हो सकता है जब विश्वविद्यालयों में सच्चरित्र, न्यायप्रिय एवं धार्मिक वृत्ति के अध्यापक हों और वे दलबंदी के शिकार न बनाए जाए। वास्तव में विश्वविद्यालयों में राजनीति इतनी प्रविष्ट हो गई है कि नियुक्तियां योग्यता के आधार पर नहीं हो पातीं और योग्य सच्चरित्र, न्यायप्रिय एवं धार्मिक वृत्ति के अध्यापक नहीं आ पाते। फलतः दुष्ट लोग विद्यार्थियों से मिल कर अनेक प्रकार के षड्यंत्र करते हैं और अनाचार एवं दुराचार में संलग्न होते हैं। यह बात बहुत पहले के हिंदू विश्वविद्यालय आयोग एवं कतिपय वर्ष पूर्व के न्यायमूर्ति श्री एस.डी.सिंह की अध्यक्षता में गठित लखनऊ विश्वविद्यालय जांच आयोग से स्पष्ट है। ऐसी ही दशा लगभग सभी विश्वविद्यालयों की है।

4. स्वयं आर्य समाजी अपनी नैतिकता की रक्षा नहीं कर पाते जो आर्य समाज की सबसे बड़ी पूंजी है। दलबंदी में फंस कर वे बहुधा धर्म, न्याय एवं विधान के विरुद्ध कार्य कर बैठते हैं। आज आर्य समाज में तपे हुए व्यक्तित्व की आवश्यकता है, जो स्वार्थ वृत्ति त्याग कर परोपकार को अपना सकें।

5. आर्य प्रतिनिधि सभाओं के अंतर्गत सच्चे भजनिकों और महोपदेशकों का सर्वथा अभाव है, आज प्रचार की लगन से कार्य करने वाले कार्यकर्ता नहीं है। उनका मिशनरी उत्साह समाप्त हो गया है। दूसरी ओर आर्य प्रतिनिधि सभा के अधिकांश पदाधिकारी भी उपदेशकों के प्रति सम्मान नहीं रखते। उनके खानपान एवं यात्रा का समुचित प्रबंध नहीं हो पाता और बाध्य होकर उपदेशक दूसरा धंधा खोज लेते हैं।

6. सबसे बड़ी कमी जो वर्तमान आर्य समाजियों में है वह है स्वाध्याय की कमी। आर्य समाज के सिद्धांतों को समझने वाले आर्य, आज बहुत कम हैं। स्वाध्यायशीलता से मनुष्य की बुद्धि तीव्र होती है और उसे औचित्य एवं अनौचित्य का ज्ञान होता है। स्वाध्याय द्वारा ही आर्य सिद्धांतों से अभिज्ञता प्राप्त होती है और सिद्धांतों से अभिज्ञ व्यक्ति ही पथभ्रष्ट व्यक्तियों को प्रभावित कर सन्मार्ग पर लगा सकता है।

अत्यंत संक्षेप में मैंने एक सिंहावलोकन प्रस्तुत किया है। आर्य समाज बड़ी कठिन परिस्थितियों से पार हुआ है। आज उसकी स्थिति प्रारंभिक काल से भिन्न है। जहां प्रारंभिक आर्य महापुरुषों को विष देकर, छुरा मारकर, गोली से प्रहार कर शहीद किया गया वहां आज लगभग समस्त शिक्षित वर्ग महर्षि दयानंद के चरणों पर नतमस्तक है और आर्य समाज को एक जागरूक एवं देश की रक्षक संस्था के रूप में स्वीकार करता है। आर्य समाज में जो दोष सम्प्रति उपस्थित हैं वे अवश्य समाप्त होंगे। यदि इसके मनीषी विद्वान सत्य का आश्रय लेकर, चरित्र की उच्चता को प्रमुखता प्रदान कर, ईश्वर पर विश्वास कर आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ कर ब्रह्मचर्य में निष्ठ हो कर कर्मठ योगी की भांति कल्याणकारी मार्ग पर बढ़ते चले जाएंगे तो सर्व शक्तिमान् प्रभु अवश्य हमें सफलता प्रदान करेंगे।

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