आम चुनाव किस के ताबूत की आखरी कील

माना जाता है कि चुनाव में यदि सत्ता विरोधी लहर पैदा होती है तो इससे विपक्ष को फायदा होता है। लेकिन, नोटा विपक्ष की इस उम्मीद को ढहाने का काम भी करता है।

लोकसभा चुनाव 2019 किसकी ताबूत में आखिरी कील सिद्ध होगा, यह तो 23 मई को साफ हो जाएगा, लेकिन एक बात तो तय है कि इस बार नोटा का सोटा 2014 या पिछले विधान सभा चुनावों जैसा नहीं पड़ने वाला। 2014 में पहली बार करीब 60 लाख लोगों ने नोटा का विकल्प चुना था। ये 21 पार्टियों को मिले वोटों से ज़्यादा था। अगर 543 सीटों के मतदान पर नज़र डालें तो करीब 1.1% वोटरों ने नोटा का विकल्प चुना था। इसी तरह पिछले वर्ष पांच राज्यों के चुनाव में 16 लाख से अधिक मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाया। ये वैसे मतदाता थे जो किसी प्रत्याशी या दल को वोट नहीं देना चाहते थे, साथ ही किसी दूसरे के द्वारा अपने वोट के दुरुपयोग की संभावना को भी समाप्त करना चाहते थे, इसलिए उन्होंने नोटा का बटन दबाया था। लेकिन, इसने अनेक राज्यों में सत्ता का गणित बदल दिया।
नोटा का मतलब है नन ऑफ द एबव, यानी इनमें से कोई नहीं। भारत के अतिरिक्त ग्रीस, यूक्रेन, स्पेन, कोलंबिया और रूस समेत कई देशों में नोटा का विकल्प लागू है। पिछले वर्ष मध्यप्रदेश विधान सभा चुनाव में 15 साल से सत्तारूढ़ भाजपा की नैया इसी नोटा ने डुबोई। कांटे की लड़ाई में भाजपा को 109 और कांग्रेस को 114 सीटें मिलीं। यहां 22 सीटों पर प्रत्याशियों के बीच जीत-हार के अंतर से अधिक मत नोटा को मिले हैं। इन 22 सीटों में से 12 पर कांग्रेस विजयी रही जबकि नौ पर भाजपा एवं एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार विजयी रहा। नोटा से कम अंतर से जीतने वाले इन नौ भाजपा प्रत्याशियों ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को हराया जबकि कांग्रेस के 12 उम्मीदवारों ने भाजपा के उम्मीदवारों को मात दी। निर्दलीय उम्मीदवार ठाकुर सुरेन्द्र सिंह नवल ने प्रदेश की मंत्री अर्चना चिटणीस (भाजपा) को बुरहानपुर सीट से 5,120 मतों से हराया था, जबकि नोटा पर 5,726 मत पडे थे। चिटणीस सहित भाजपा के चार मंत्री अपनी-अपनी सीटों पर नोटा में पड़े मतों से कम अंतर से हारे। इस तरह हारने वाले तीन अन्य मंत्री जयंत मलैया, शरद जैन एवं नारायण कुशवाहा हैं। मलैया दमोह सीट से 798 मतों से हारे जबकि वहां नोटा को 1,299 मत मिले। जैन जबलपुर उत्तर सीट से 578 मतों से हारे जहां नोटा को 1,209 वोट मिले। कुशवाहा ग्वालियर दक्षिण सीट से मात्र 121 मतों से हारे और वहां पर 1,550 वोट नोटा को मिले। इन चार मंत्रियों के अलावा, भाजपा के नौ उम्मीदवार जौबट, सुवासरा, राजपुर, राजनगर, गुन्नौर, नेपानगर, ब्यावरा, पेटलावद एवं मानधाता सीटों पर भी नोटा के कम अंतर से हारे। कांग्रेस के आठ प्रत्याशी टिमरनी, इंदौर-5, चांदला, बांधवगढ़, नागौद, जावरा, कोलारस, बीना एवं गरौठ सीटों से नोटा से कम वोटों से हारे। इसी तरह छत्तीसगढ़ में सर्वाधिक 2.1 प्रतिशत वोट नोटा के खाते में गए। जबकि मिजोरम में नोटा का प्रतिशत सबसे कम (0.5 प्रतिशत) दर्ज किया गया। चुनाव वाले राज्यों में नोटा का मत प्रतिशत आप और सपा सहित अन्य क्षेत्रीय दलों से अधिक दर्ज किया गया। छत्तीसगढ़ की 90 में से 85 सीटों पर चुनाव लड़ रही आप को 0.9 प्रतिशत, सपा और राकांपा को 0.2 तथा भाकपा को 0.3 प्रतिशत वोट मिले। वहीं राज्य के 2.1 प्रतिशत मतदाताओं ने नोटा को अपनी पसंद बनाया।

नोटा के पहले ये विकल्प था

नोटा विकल्प के आने से पहले, नकारात्मक वोट डालने वाले लोगों को एक रजिस्टर में अपना नाम दर्ज करना पड़ता था और एक अलग बैलट पेपर पर अपना वोट डालना पड़ता था। चुनाव नियम, 1961 की धारा 49-ज के तहत, एक मतदाता फॉर्म 17- में वोटर अपनी चुनावी क्रम संख्या लिखकर एक नकारात्मक वोट डालता था। फिर पीठासीन अधिकारी उसे देखकर इस पर हस्ताक्षर करता था। यह धोखाधड़ी या मतों के दुरुपयोग को रोकने के लिए किया गया था। हालांकि, यह प्रावधान सुप्रीम कोर्ट द्वारा असंवैधानिक माना गया क्योंकि इसमें मतदाता की पहचान सुरक्षित नहीं थी। आज चुनाव के दौरान, ईवीएम में उम्मीदवारों की सूची के अंत में नोटा का भी विकल्प होता है।

नोटा से संबंधित आंकड़ों का अध्ययन करने पर यह बात सामने आती है कि इस विकल्प का उन सीटों पर अधिक इस्तेमाल किया गया जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी टक्कर थी। यानी माना जा सकता है कि अधिकांश मामलों में इन सीटों पर मजबूत विकल्प के रूप में किसी तीसरी पार्टी की कमी ने मतदाताओं को इसका इस्तेमाल करने को मजबूर किया। पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में 80 में से 19 सीटों पर नोटा को 10,000 से अधिक वोट मिले थे। वहीं, गुजरात की 26 में से 23, राजस्थान की 25 में से 16, बिहार की 40 में से 15 और मध्यप्रदेश की 29 में से 19 सीटों पर 10,000 से अधिक मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को खारिज किया था। 2014 में नोटा वोट हासिल करने वाले राज्यों में उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु और बिहार शीर्ष पर थे।
माना जाता है कि चुनाव में यदि सत्ता विरोधी लहर पैदा होती है तो इससे विपक्ष को फायदा होता है। लेकिन, नोटा विपक्ष की इस उम्मीद को ढहाने का काम भी करता है। यह भी सही है कि विशेषकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से विभिन्न कारणों से घबराए विपक्षी नेताओं/दलों ने गठबंधन/महागठबंधन की कवायद करके लोकसभा के पिछले नतीजों को पलटने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया है और एक समय ऐसा लगने लगा था कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार भले ही बन जाए लेकिन सीटें कम हो सकती हैं, पर ऐसा लगता है कि पुलवामा हमले और पाकिस्तान से निपटने की मोदी-शैली एक बार फिर जाति-धर्म, क्षेत्र आदि की दीवारें ढहा देगी। 2014 के लोकसभा चुनाव में कई बड़े इतिहास देखने को मिले थे। 30 साल बाद ऐसा मौका आया था जब कोई पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने में कामयाब हुई। इतना ही नहीं भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए की सीटों की संख्या भी 300 पार कर गई।
वहीं उस समय की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस को न सिर्फ पहली बार 100 से कम सीटें मिली, बल्कि उसका वोट शेयर भी पहली बार 20 फीसदी से कम हो गया। बात अगर 2014 में पार्टियों को मिले वोट शेयर की करें तो एनडीए 39 फीसदी वोट शेयर के साथ पहले नंबर पर रहा था, जबकि यूपीए को 23.5 फीसदी वोट शेयर के साथ दूसरे नंबर पर संतोष करना पड़ा था। 2014 के आम चुनाव में भाजपा पहली बार 30 फीसदी से ज्यादा यानी कुल 31.3 फीसदी वोट पाने में कामयाब हुई थी, वहीं कांग्रेस को सिर्फ 19.5 फीसदी वोट मिले थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में अन्य पार्टियों के खाते में 37.5 फीसदी वोट गए थे।
वहीं, इस बार न्यूज नेशन प्रोजक्शन के सर्वे में एनडीए को 268 से 272, यूपीए को 132 से 136 और अन्य को 137 से 141 सीटें दी गई हैं। हालांकि अगर महागठबंधन होता है तो एनडीए को नुकसान उठाना होगा। सर्वे के मुताबिक एनडीए का वोट शेयर 34% और यूपीए का 28% रह सकता है। इस बार भाजपा से टकराने के लिए सपा और बसपा साथ आ गए हैं। ऐसे में सर्वे के अनुसार, अगर बसपा-सपा और रालोद का गठबंधन बना रहता है तो भाजपा को 33 से 37 सीटों से संतोष करना पड़ सकता है। हालांकि इसकी भरपाई पश्चिम बंगाल और उत्तर-पूर्व के राज्यों से होती दिख रही है। सपा-बसपा गठबंधन को 41 से 45 और अन्य को 01 से 03 सीटें मिलने का अनुमान है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी कांग्रेस के साथ जाने का रास्ता ढूंढ रही थी लेकिन कांग्रेस ने ऐसी संभावनाओं से इनकार कर दिया है। हालांकि यहां भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले नुकसान होता दिख रहा है। सर्वे के मुताबिक दिल्ली में भाजपा को 4 सीटें और आम आदमी पार्टी को 3 सीटें मिल सकती हैं। 2014 के चुनाव में सातों सीटों पर भाजपा विजयी रही थी और किसी अन्य पार्टी का खाता भी नहीं खुला था।
वहीं सी-वोटर के सर्वे में एनडीए को 264 सीटें दी गई हैं, जबकि यूपीए को 141 सीटें मिलने की संभावना जताई गई है। इसके अलावा अन्य दलों को 138 सीटें मिल सकती हैं। यदि उत्तर प्रदेश में महागठबंधन नहीं होता है तो ऐसी स्थिति में एनडीए 307 सीटें हासिल कर लेगा और यूपीए 139 सीटें और अन्य दलों के खाते में 97 सीटें जा सकती हैं। सीटों के मामले में भाजपा को अकेले 220 सीटें और उसके गठबंधन सहयोगियों को 44 सीटें मिल सकती हैं। यदि एनडीए वाईएसआर कांग्रेस, मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ), भाजपा और टीआरएस से चुनाव बाद गठबंधन करता है तो उसकी सीटों की संख्या 301 हो जाएगी।
ये तो अनुमानित सर्वेक्षण हैं लेकिन एक तरफ जहां तमाम गठजोड़ के बावजूद पूरा विपक्ष अब भी नेतृत्वहीनता की स्थिति का शिकार है, प्रधानमंत्री पद का कोई सर्वमान्य उम्मीदवार सामने नहीं है, बसपा प्रमुख मायावती ने कांग्रेस के साथ गठजोड़ की अटकलों पर पूर्णविराम लगा दिया है। वहीं मोदी के नाम के अतिरिक्त एनडीए सरकार की अनेक उपलब्धियां भाजपा और सहयोगी दलों की नैया पार लगाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं, जैसे जनधन योजना, उज्ज्वला, सौभाग्य योजना, दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना, जननी सुरक्षा योजना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ योजना, पीएम सिंचाई योजना, अंत्योदय अन्न योजना जिनसे 22 करोड़ से उपर लोगों के लाभान्वित होने का दावा है। यही नहीं, हाल ही में प्रयागराज में कुंभ के सफल आयोजन से मिली वाहवाही का भी प्रकारांतर से सत्तारूढ़ दल को लाभ मिल सकता है। इन हालात में इस बार नोटा के प्रयोग की संभावनाएं भी क्षीण लगती हैं।

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