गुड टच, बैड टच

स्कूलों में छोटे बच्चों को लेकर जो घिनौनी घटनाएं सामने आ रही हैं उससे लगता है कि उन्हें इस अबोध उम्र में भी ‘गुड टच, बैड टच’ समझाने की जरूरत है। स्कूलों को यह भूमिका निभानी होगी, जबकि अभिभावकों को बच्चों की हरकतों आदि पर बारीकी से नजर रखनी होगी ताकि भविष्य के संकट को टाला जा सके।
 विद्यालय में प्रद्युम्न नामक बच्चे की हत्या और पांच साल की एक बच्ची का उसके ही स्कूल में रेप!- मन विचलित हुआ न, सभी माता-पिता का? डर लगने लगा होगा। मन और आत्मा झकझोर गई होगी और इन बच्चों की जगह अपने बच्चों का खयाल दिमाग में कम से कम एक सेकंड के लिए तो आया ही होगा कि कहीं अगर इसकी जगह हमारा बच्चा? नही!! ये नहीं हो सकता। आपकी हमारी रूह कांप गई न, ऐसा सोच के भी। और इतना सब होने के बाद भी एक खास मित्र द्वारा कहीं पर कही बात पता चली कि, ‘‘अरे ये सब घटनाएं तो बड़े शहरों में होती हैं, हमारे छोटे शहरों में तो सब एक दूसरे को पहचानते हैं, यहां ऐसा नहीं हो सकता।’’
हद है। ऐसी लापरवाही भरी बातें सुन कर और वे भी अपने बच्चों के प्रति, इतना गुस्सा आया कि शायद सामने होने पर मैं उसे काफी कुछ सुना देती। अरे मूर्ख! ऐसी घटना का किसी जगह से कोई लेना-देना नहीं होता। विकृत मानसिकता के व्यक्ति हर जगह पाए जाते हैं, जो रेप या यौन शोषण जैसी घटना को अंजाम देते हैं। स्कूल की बात तो अलग पर आप ये भूल रहे हैं कि जान-पहचान का व्यक्ति ही ऐसी घटनाओं को आसानी से अंजाम दे सकता है, चाहे कोई बड़ी जगह हो या छोटी।
पर स्कूल की इतनी बड़ी घटना को देखते हुए हमें अपने बच्चों के प्रति थोड़ी नहीं अपितु बहुत अधिक सावधानी बरतने की जरूरत है। अब सवाल यह उठता है कि हम अपने छोटे बच्चों को ऐसी बातें कैसे समझायें? मन नहीं मानता। हां, मेरा भी बिल्कुल नहीं मानता। दिन भर दिमाग उलझन और संकोच से ही भरा रहता है। पर उस पांच साल की बच्ची के साथ क्या हुआ होगा? वह समझ भी पाई होगी या फिर प्रद्युम्न समझ पाया होगा? इससे पहले भी उस रेपिस्ट ने उस बच्ची को फुसलाने के बहाने टच किया होगा या प्यार से उसके गालों को छुआ होगा। वह बहुत परेशान भी हुई होगी। उसे उस अंकल का टच करना पसंद भी न आता हो, पर उसने यही सोच कर घर यह नहीं बताया होगा कि अरे मेरे मम्मा-पापा और दादा -दादी भी तो मुझे ऐसे ही प्यार करते हैं। हमेशा। पर वह छोटी सी बच्ची इस टच के फर्क को नहीं समझ पा रही थी। उसे क्या पता कि यह सब होता भी क्या है। घर में कभी उसे इस बारे में सचेत किया ही नहीं गया इसलिए उसने इस बारे में घर में कभी किसी से कुछ भी नहीं बताया। क्या करें, हमारी यही सोच है कि यह सब बता कर हम बच्चों का बचपना क्यों छीनें? पर आज इसी जागरुकता की कमी के कारण बच्चों के साथ बाहर या स्कूल में क्या हुआ, वह कभी नहीं बताते।
सब से पहले तो हमें बच्चों को ‘गुड टच’ और ‘बैड टच’ में फर्क समझाना होगा, क्योंकि अब ढाई साल में ही बच्चों को हम नर्सरी में भेजना शुरू कर देते है। साथ ही उन्हें उनके शरीर के अंगों के बारे में समझाना होगा कि कौन से अंग संवेदनशील हैं! उनकी उम्र के हिसाब से ही जैसे हम उनसे घर में बातचीत करते हैं, सहज शब्दों में समझाना होगा। बातों ही बातों में, कि बाहर या स्कूल में अगर आपको इधर कोई टच भी करता है, तो आप तुरंत मम्मा या पापा को बताओ। साथ ही उन्हें यह समझाना होगा कि घर में अगर आपके मां, पापा, दादा या दादी आपको प्यार करते हैं, या कभी आपको स्कूल में टीचर भी प्यार करती हैं तो आपको अच्छा लगता है, और आप मुस्कुराते भी हो तो बच्चे इसे ‘गुड टच’ कहते हैं। यदि बाहर या स्कूल में और कोई आपको इसी तरह से प्यार करता है, और आपको बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता तथा आपके मना करने पर भी वह बार-बार ऐसा ही करें, और आपको इधर-उधर टच करे तो बच्चे इसे हम ‘बैड टच’ कहते हैं। अगर ऐसा आपके साथ होता है तो आप तुरंत अपनी टीचर को बताओ और घर आने के बाद अपने मम्मा-पापा को भी बताओ।
बच्चों को स्कूल बस में स्कूल भेजने से उसके वापस आने के बाद तक का पूरा ब्यौरा बड़े प्यार से आप उनसे लेते रहें कि जाते समय बस में क्या -क्या हुआ, और दिन भर स्कूल में आपने क्या किया। टीचर ने क्या-क्या पढ़ाया, और आते समय स्कूल बस में क्या हुआ? अगर किसी दिन आपका बच्चा थोड़ा भी उदास दिखे तो उससे तो पूछें ही, साथ ही उसके स्कूल में तुरंत फोन करें और जानकारी दें। हो सकता है कि टीचर ने डांट दिया हो, या किसी बच्चे ने मार दिया हो, पर इसे भी हल्के में न लें। रोज जानकारी लें; बच्चे से भी, उसके टीचर से भी और उसके बस ड्राइवर से भी ताकि सब को लगे कि आप अपने बच्चे को लेकर बहुत ज्यादा सतर्क हैं।
ऐसा नहीं है कि हमें सिर्फ बच्चे के यौन शोषण को लेकर ही सतर्क रहना होगा वरन उसकी हर उस गतिविधि पर नजर रखनी होगी ताकि बच्चे कुंठा या अवसाद से नहीं घिरे। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपने ही घर में कोई परम् आत्मीय आपसे जलन और द्वेष वश आपके बच्चे से अकेले में दुर्व्यवहार करता हो। यौन शोषण न भी हो पर हो सकता है उसे डराता, धमकाता या मारता हो और बाहर भी माता-पिता से कोई शख्स दुश्मनी रखता हो और अकेले में उसके बच्चे से बुरा बर्ताव करता हो। इस बात की खबर बच्चे के माता-पिता को नहीं लग पाती क्योंकि बच्चे को बुरी तरह से डराया जाता है कि वह घर में कुछ न बोले। आत्मीय होने की वजह से माता-पिता उस पर शक नहीं करते, लेकिन उनका बच्चा जरूर उदास रहने लगता है। कई माता-पिता अपने मन में ही सोच लेते हैं, अरे कुछ नहीं! स्कूल में किसी बच्चे से झगड़ा हुआ होगा। इस बात को मामूली समझ के टाल देते हैं, पर यह बिल्कुल गलत है। हमें इसे बिल्कुल भी अनदेखा नहीं करना है, बल्कि जानने की कोशिश करना है कि बात क्या है। इस बात पर जरूर गौर कीजिए कि जब भी उस शख्स के पास, जो आपका आत्मीय है, आपका बच्चा जाने से कतराए तो इसे हल्के में न लें। यह न सोचें कि झिझक रहा है, या घुला-मिला नहीं है तो उनके पास नहीं जा रहा ह। बच्चे को देखिए। अगर वह बार-बार कतरा रहा है उस शख्श के पास जाने में, तो जरूर गड़बड़ है। तुरंत इस बात का पता लगाइये। बच्चे से बड़े प्यार से पूछिए, क्योंकि हमें बच्चों की केवल यौन शोषण ही नहीं अपितु हर तरह से सुरक्षा करनी है कि वह अवसाद से न घिरे।
एक बहुत ही ऐतिहासिक फैसले में तमिलनाडु के मदुरै जिले में अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश शंनमुगसुंदरम ने स्कूल के प्रधानाचार्य अरोक्यासामी को ५० साल से अधिक की सजा दी। उस पर उसकी ही स्कूल के ९१ बच्चों एवं बच्चियों के साथ यौन अत्याचार के मामले में उसका अपराध सिद्ध हुआ था। सरकारी वकील पी परीमालादेवी के मुताबिक यह देश में ऐसी पहली घटना है जब अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम के लिए बनी विशेष अदालत ने किसी अपराधी को पचास साल की सजा दी और जुर्माना लगाया। मदुरै जिले के पोथुम्बु के सरकारी हाईस्कूल के अपने कार्यकाल में अरोक्यासामी ने ९१ छात्रों को (जिनमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल थे) को हवस का शिकार बनाया था। इस मामले का खुलासा तब हुआ जब पंजू नामक व्यक्ति की बेटी (जो अब इस दुनिया में नहीं है) ने उसके साथ हो रही ज्यादती का विरोध किया और अरोक्यासामी के अपराधों का भांड़ा फूट गया।
स्कूलों के अंदर यौन अत्याचार की बढ़ती घटनाओं के खुलासे की पृष्ठभूमि में यह ऐतिहासिक फैसला सुकून दे सकता है, लेकिन स्कूल हो या अपने घर का आंगन कहीं भी बच्चे सुरक्षित नहीं हैं और यही बार-बार देखने में आता है कि अधिकतर बच्चे उन्हीं लोगों द्वारा यौन अत्याचार का शिकार होते हैं जिन्हें वे जानते हैं या जो उनके ‘आत्मीय’ कहलाते हैं। ‘स्टडी ऑन चाइल्ड एब्यूज इंडिया २००७’ ने इस बात का खुलासा किया था कि लगभग ५३ प्रतिशत बच्चे यौन हिंसा के शिकार होते हैं, और उन्हें उत्पीड़ित करने वालों में अधिकतर उनके करीबी कहलाने वाले लोग ही शामिल होते हैं। ये ऐसे लोग जिन पर बच्चे ही नहीं बल्कि उनके माता-पिता भी भरोसा करते हैं। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के अध्ययन में यह तथ्य भी रेखांकित हुआ था कि जहां ५३ फीसदी बच्चे जीवन में कभी न कभी अत्याचार का शिकार होते हैं, वहीं महज छह फीसदी बच्चे इसके बारे में शिकायत करते हैं। अर्थात् अधिकतर मामले दबे ही रह जाते हैं। यह भी सोचने का मसला है कि अत्याचारी इस कदर बेखौफ होकर इसे कैसे अंजाम देता है!
दरअसल वह जानता होता है कि बच्चा इसके बारे में बोलेगा नहीं, और अगर बोलेगा तो उस पर कोई यकीन नहीं करेगा और अगर यकीन भी किया तो समुदाय के अन्य सदस्य विभिन्न कारणों से- फिर चाहे ‘परिवार की इज्जत’ का सवाल हो या ‘बच्चे के भविष्य’ की चिंताएं हों या अत्याचारी की आर्थिक-सामाजिक शक्ति का डर हो- उसे उठाएंगे नहीं और मान लें कि कोई कदम उठाया भी गया तो भी अदालती प्रक्रियाओं में इतनी खामियां हैं कि उसे लाभ मिल जाएगा। ऐसे मामलों से निपटने के लिए, एक विशेष कानून बनाने की बात हुई थी और मई २०१२ में ही राज्यसभा एवं लोकसभा ने प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन फ्रॉम सेक्युअल आफेन्सेस एक्ट २०१२ पारित कर दिया था, जिसका मकसद था यौन अत्याचार एवं शोषण से बच्चों की रक्षा के लिए कानूनी प्रावधान मजबूत करना।
यह विडंबना ही है कि इतनी बड़ी मानवीय त्रासदी (जब पचास फीसदी बच्चे जीवन में कभी न कभी यौन हिंसा का शिकार होते हैं, जिसमें महज लड़कियां नहीं, लड़के भी शिकार होते हैं) का एहसास आज भी बहुत कम है। ध्यान रहे बच्चों के खुले आकाश में विचरण करने के लिए ऐसी तरह-तरह की बंदिशें महज सुदूर इलाकों में ही मौजूद नहीं हैं। ऐसी बेरुखी चौतरफा ऊपर से नीचे तक व्याप्त है। जैसे, पिछले साल जहां एक तरफ बाल अत्याचारों के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए पोस्टरों के इस्तेमाल की बात हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ यह सच्चाई भी सामने आ रही थी कि खुद राजधानी में प्रोटेक्शन ऑफ चिल्डेन फ्रॉम सेक्सुअल आफेन्सेस एक्ट के तहत गठित विशेष अदालत को समाप्त किए जाने को लेकर समाजसेवियों को अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ रहा था और अदालत को पूछना पड़ा था कि प्रशासन स्पष्ट करें कि आखिर उसने प्रोटेक्शन ऑफ चिल्डेन फ्रॉम सेक्सुअल आफेन्सेस एक्ट के तहत गठित विशेष अदालत को क्यों समाप्त किया।
आज जब मीडिया में बाल अत्याचार की घटनाएं सुर्खियों में हैं फिर एक बार यह सवाल लाजिमी हो उठता है कि आखिर ऐसी घटनाओं के दोहराव को रोकने के लिए क्या किया जाए? एक सुझाव यह आ सकता है कि सेक्स एजुकेशन को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए, जिसके बारे में मौजूदा सरकार की राय बिल्कुल अलग दिखती है। याद करें कि वर्ष २०१४ में तत्कालीन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्द्धन ने स्कूलों में ऐसी किसी शिक्षा पर पाबंदी लगाई। इतना ही नहीं वर्ष २०१६ में नई शिक्षा नीति के लिए सिफारिशें तय कर रहे पैनल को यह निर्देश दिया कि वह सरकारी दस्तावेज से ‘सेक्स’ और ‘सेक्सुअल’ शब्द हटा दें क्योंकि वह लोगों को ‘आहत’ कर सकते हैं। स्पष्ट है कि भारत में अभी भी सरकार द्वारा सूत्रबद्ध यौन शिक्षा का स्कूलों में अभाव है। दूसरा, सुझाव यह भी आ सकता है कि कम से कम बच्चों को ‘गुड टच’,‘बैड टच’ आदि के बारे में गंभीरता से शिक्षा दी जाए ताकि वे उनके साथ हो सकने वाली प्रताड़ना से बच सकें।
कुछ समय पूर्व ऐसे प्रचार पोस्टरों के जरिए बच्चों को यह समझाने की कोशिश की गई थी कि वे अपने आप को अनुचित व्यवहार से कैसे बचायें और खतरे की स्थिति में किससे संपर्क करें। ‘स्वयं को सुरक्षित रखने के चतुर उपाय’, ‘तुम्हें हर समय सुरक्षित रहने का अधिकार है’, आदि शीर्षकों से बने ये पोस्टर सरल भाषा में बच्चों को सचेत करते दिख रहे थे। निश्चित तौर पर यह योजना बाल अधिकारों के लिए कार्यरत विशेषज्ञों की सलाहों के अनुरूप ही थी जिसमें उनकी तरफ से यह बात रखी जाती रही है कि किस तरह बच्चों को ‘गुड टच’,‘बैड टच’ के बारे में बताना जरूरी है। एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने तो इस मसले पर पहले से प्रचार सामग्री भी तैयार की है, जो अभिभावकों, शिक्षकों को स्पर्श से उपजती चुनौतियों से वाकिफ कराती है।
लेकिन इसमें दो तरह की दिक्कतें हैं-एक, व्यावहारिक दिक्कत यह है कि कई बच्चे इतनी कम उम्र में अत्याचार का शिकार होते हैं, कि उन्हें आप शिक्षित नहीं कर सकते हैं। दूसरा, इस पर अत्यधिक जोर कहीं पीड़ित को ही उसके अत्याचार के लिए जिम्मेदार मानने तक पहुंच जाता है। न विशेष अदालतें मौजूद हैं, न बच्चों के काउंसलिंग के इंतजाम मौजूद हैं और न ही एक सुरक्षित वातावरण जिसमें वे पल-बढ़ सकें। सबसे बढ़ कर बड़े बच्चे या बच्चियां- जिन्हें इस बात का बोध भी रहता है, लेकिन परिवार या समाज के अंदर सत्ता सम्बन्ध ऐसे बने होते हैं कि वह बोल नहीं पाते।
मदुरै के पोथुम्बु स्थित सरकारी स्कूल का प्रधानाचार्य जब ९१ बच्चे-बच्चियों को समय-समय पर अपनी हवस का शिकार बना रहा था, तब क्या वह बात उसके सहयोगियों या अन्य लोगों को पता नहीं होगी, मगर वह विभिन्न कारणों से खामोश रहे होंगे। सवाल है कि जब आधे से अधिक बच्चे अत्याचार अपने ‘आत्मीयों’ के हाथों अत्याचार झेल रहे हों तो कौन चुप्पी तोड़ेगा और कौन जोखिम उठाएगा? शुरू से ही घरवालों को अपने बच्चों को चाहे वह लड़की हो या लड़का स्कूल भेजने से उसके आने तक बहुत टेंशन रहता है, और आजकल की घटनाएं हमें और भी ज्यादा मजबूर कर दे रही हैं सोचने पर… लेकिन बहुत से अभिभावक हैं, जो आज भी अपने बच्चे का स्कूल में उसकी पढ़ाई के अलावा कोई ब्योरा नहीं लेते, और खासकर बच्चों से ज्यादा कुछ नहीं पूछते। सीधा उनके स्कूल में जाकर उसकी पढ़ाई और फीस की चर्चा करना ही उनका अहम मुद्दा होता है। शायद समय के अभाव के कारण ऐसा होता हो।
पर बस मैं इतना कहना चाहूंगी, कि आजकल की इतनी हृदय विदारक घटना को देखते हुए, अपने बच्चों की पूरी खबर रखनी जरूरी है। वह भी उनसे बड़े प्यार से, पर्याप्त समय देकर और मित्रवत व्यवहार रख कर, ताकि वह समझ सकें कि माता-पिता से बढ़ कर बाहर उनका कोई भी मित्र इतना विश्वासपात्र नहीं हो सकता जिससे वह अपनी निजी बातें साझा कर सकें। बस थोड़ी सी सावधानी हमारे और हमारे बच्चों के लिए मददग़ार हो सकती है।

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