मुजरिम सभी हैं, आज के हालात के लिए

‘ये बम्बई शहर हादसों का शहर है, यहां रोज-रोज हर मोड़ मोड़ पर होता है कोई न कोई हादसा!’ मुंबई के एलफिंस्टन रोड स्टेशन पर हुए हादसे के बाद १९८३ में आई हिंदी फिल्म ‘हादसा’ का यह मुक्तछंद गीत दोबारा याद आ गया।
इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में २७ लोगों की जान चली गईं। ऐसा नहीं है कि इस तरह की घटनाएं केवल मुंबई में ही घटित होती हैं। नाम बदल कर ऐसी घटनाएं देश के विविध शहरों, गावों, धार्मिक स्थलों इत्यादि पर निरंतर घटती रहती हैं। इन घटनाओं की मुख्य वजह होती है प्रशासन और समाज के द्वारा नियमों तथा संकेतों की अनदेखी करना। हर ऐसी घटना के घटित हो जाने के बाद आरोपों का एक चक्र दिखाई देता है। प्रशासन नागरिकों की ओर उंगली उठाता है, नागरिक प्रशासनिक अव्यवस्था की ओर इशारा करते हैं और राजनैतिक लोग सरकार पर आरोप करते हैं। किसी समस्या को सुलझाने के किए उस समस्या की जड़ तक जाकर सर्वांगीण रूप से विचार करने की दृष्टि हमारे समाज में दिखाई नहीं देती है। किसी भी समस्या की ओर हम थोड़ा सा ऊपर उठ कर नहीं देखते। हम उस ओर अपनी स्वार्थी और संकीर्ण विचारों की खिड़की से ही देखते रहते हैं। अत: हमें मर्यादित दृश्य ही दिखाई देता है और समाधान भी मर्यादित ही मिलता है।
यह दुर्घटना भी इसी सोच का परिणाम है। इस घटना से हमने कोई सीख ली हो, ऐसा दिखाई नहीं देता है; बल्कि दुर्घटना पर भी गिद्ध की भांति राजनीति ही की गई।
हमारे देश के जनमानस की एक विशेषता है। कोई आतंकवादी हमला हो, बाढ़ के कारण शहरों में पानी का जमाव हो या बलात्कार की कोई घटना हो तो बाद में सम्पूर्ण देश में जागृति की लहर उफनती दिखाई देती है। अचानक भारतीयों को राष्ट्रीय सुरक्षा का संज्ञान हो जाता है। हर घटना के बाद उन्हें लगता है कि तमाम राजनैतिक पार्टियां और नेता न केवल नालायक हैं, बल्कि देशद्रोही हैं। यह गुस्सा मध्यम वर्ग तथा उच्च मध्यम वर्ग में अधिक दिखाई देता है। किसी आतंकवादी या बलात्कार की घटना के बाद यह वर्ग हाथ में मोमबत्ती तथा तख्तियां लेकर रास्तों पर उतरता है। फिल्मी सितारों, फैशन जगत की खूबसूरत बालाओं और हाय-फाय अंग्रेजी न्यूज चैनलों को यह लगने लगता है कि अब अपने देश को सुरक्षित रखने की, समाज की सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर आ पड़ी है। परंतु कुछ दिन बाद ये मोमबत्तियां, ये तख्तियां सब भूल कर सब अपनी-अपनी दुनिया में रम जाते हैं। मुंबई, दिल्ली तथा देश के अन्य शहरों के नागरिकों की इस मनोदशा का कारण यह है कि भारतीय नागरिक स्वयं को असहाय और हताश महसूस करता है। दोबारा वही प्रश्न उठता है कि क्यों हम एलफिंस्टन जैसी घटना की ओर हतबल होकर देखने के लिए मजबूर हैं? क्या इसके लिए केवल राजनेता ही जिम्मेदार हैं या फिर समाज की बदलती हुई व्यवस्था भी इसके लिए जिम्मेदार है।
मुंबई में जो सामाजिक और अर्थिक परिवर्तन हो रहा है वह भी इसके लिए जिम्मेदार है। इस बात को समझे बिना दुर्घटना के कारणों को समझा नहीं जा सकता। एलफिंस्टन और आसपास के इलाके में पिछले कुछ सालों में बहुत परिवर्तन हुआ है। दत्ता सामंत की ऐतिहासिक हड़ताल के बाद कपड़ा मिलें खंडहर हो गई थी। परंतु हर परिस्थिति का फायदा उठाने वाली एक जमात हमारे यहां मौजूद है और वह है बिल्डर। उन्होंने इस परिसर में व्यवसाय ढूंढ़ लिया। यहां की जमीनें खरीद कर उन्होंने ‘मिलों के गांव’ अर्थात एलफिंस्टन को हांगकांग बना दिया। गगनचुंबी इमारतें बनाईं। अब शहर के सब से बड़े तथा पॉश ऑफिस, शॉपिंग मॉल, नाइट क्लब, कॉल सेंटर, पंचसितारा होटल, बार आदि यहां स्थानापन्न हो चुके हैं। जो एलफिंस्टन स्टेशन केवल कपड़ा मिलों में शिफ्ट ड्यूटी में काम करने वाली भीड़ को संभालता था, वहां इस परिवर्तन के कारण अत्यधिक भीड़ होने लगी। एलफिंस्टन में काम करने के लिए आने वालों की संख्या में दस गुना वृद्धि हुई। परंतु रेल्वे, बस, रास्ते आदि अत्यावश्यक सुविधाएं कपड़ा मिलों के जमाने की ही हैं। एलफिंस्टन परिसर का ‘मिलों के गांव’ से ‘गगनचुंबी इमारतोंवालों परिसर’ तक तथाकथित विकास करते समय बढ़ने वाले यातायात, भीड़, वाहन आदि का विचार ही नहीं किया गया। इससे एक सामाजिक विसंगति का भी जन्म हुआ।
यह समस्या केवल मुंबई की ही नहीं है। बेंगलुरू, चेन्नई, अहमदाबाद, दिल्ली जैसे महानगरों से लेकर जयपुर, पुणे, नासिक जैसे तुलनात्मक रूप से छोटे शहरों में भी यह समस्या है। कोई आवश्यक नहीं है कि इसके बाद की घटना रेल्वे स्टेशन पर ही घटित हो। वह रास्तों पर, मॉल में, यात्रा में, किसी कार्यक्रम के प्रवेश द्वार पर- अर्थात कहीं भी हो सकती है। इसका कारण होगा हमारे ही द्वारा किया गया अनियंत्रित तथा अनियोजित विकास।
लोकल ट्रेन में हुआ बम विस्फोट, मुंबई पर हुआ आतंकवादी हमला, बाढ़, दिल्ली में घटी बलात्कार की घटना इत्यादि जैसी कई घटनाएं हमारे जीवन को हिला कर रख देती हैं। सैकड़ों लोगों के दम घुट कर, दब कर मर जाने की घटना को केवल असहाय नजरों से देखते रहना ही क्या हमारी नियति बन गई है? यह सही है कि जीने के लिए संघर्ष करना ही है, परंतु ऐसे प्रश्नों की तीव्रता भी अत्यधिक है। एक ओर लोगों की यह भावना है कि सब कुछ सरकार को ही करना चाहिए तो दूसरी ओर सामाजिक संज्ञान भी कम होता जा रहा है। सामाजिक संज्ञान की जगह मोमबत्ती जला कर कार्य सम्पन्नता के बोध ने ले ली है। नागरिकों की जानलेवा समस्याओं पर राजनैतिक रोटियां सेंकने की बजाय उनके समाधान के लिए दूरदर्शी तथा प्रभावी उपायों के साथ समाज के सभी संवेदनशील घटकों को तत्परता से आगे आना होगा। अन्यथा समस्या का मूल कारण राजनीति में फंसा रहेगा और हम इस तरह की या इससे अधिक भयानक समस्याओं के साथ जीने के आदी हो जाएंगे। अंत में एक बात अवश्य कहना चाहूंगा-
इल्जाम दीजिए न किसी एक शख्स को।
मुजरिम सभी हैं, आज के हालात के लिए॥

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