मर्केल की मरियल जीत

जर्मनी में लम्बे समय बाद कट्टर दक्षिणपंथी पार्टी का उभरना और एंजेला मर्केल की पार्टी का मतदान प्रतिशत घट जाना भविष्य के बदलाव की ओर इंगित कर रहे हैं। सीरियाई शरणार्थियों को अपने यहां जगह देना मर्केल को महंगा पड़ा है। इससे जर्मनी की अर्थव्यवस्था पर भी असर पड़ रहा है।
२४ सितंबर २०१७ को जर्मनी में संपन्न संसदीय चुनाव एक मोड़ लेकर आया है। मौजूदा चांसलर एंजेला मर्केल को लगातार चौथी बार जीत तो जरूर मिली है, लेकिन घुर दक्षिणपंथी पार्टी ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) संसद में दमदार अंदाज में पहुंची है और चांसलर मर्केल कमजोर हुई हैं। मर्केल की पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) ने पिछले चुनाव के मुकाबले ८.५ प्रतिशत वोट खोये हैं। इस बार उसे लगभग ३३ फीसदी वोट मिले हैं। सामान्य परिस्थितियों में ये चुनाव परिणाम मर्केल के इस्तीफे के बारे में सोचने की वजह बनते लेकिन यूरोप और खासकर जर्मनी के हिसाब से यह समय सामान्य नहीं है।
यह बात काबिलेगौर है कि यूरोपीच संघ में फिलहाल कोई ऐसा देश नहीं है जहां किसी नेता ने अपने शासन के १२ साल पूरे किए हों और एंजेला मर्केल की तरह अब भी चुनाव मैदान में कामयाब होकर डटा हो। एक तरह से देखें तो एंजेला मर्केल ने चौथी बार चांसलर बनने का मौका हासिल कर अपनी पार्टी के हेल्मट जोसेफ मारकल कोहल की बराबरी की है। हेल्मट कोहल १९८२ से १९९८ तक लगातार १६ साल जर्मनी के चांसलर रहे। उनके चांसलर रहते ही जर्मनी का एकीकरण हुआ था। यूरोपीय संघ के पड़ोसी मुल्कों मे सिर्फ रूस (पुतिन), बेलारूस (लुकाशेंको) और तुर्की (एर्दोअन) के बारे में कहा जा सकता है कि यहां किसी एक नेता का लगातार १२ वर्षों से ज्यादा वक्त से शासन चल रहा है। पर यह बात भी जाहिर है कि इन देशों में लोकतंत्र डांवाडोल हालत में है और सत्ता लगातार एक ही व्यक्ति और पार्टी के हाथ में केंद्रित हुई है। लिहाजा, लोकतंत्र की अपनी गौरवशाली परंपरा के सब से चमकदार प्रतीक के रूप में एंजेला मर्केल की तरफ यूरोप पूरे विश्वास के साथ देख सकता है।
अगर यूरोप के हालात को ध्यान रखें हो जर्मनी में मध्यमार्गी क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन की जीत उदारवादी लोकतंत्र के मूल्यों की हिफाजत के लिहाज से बड़ी अहम है। अप्रवासियों की समस्या, बढ़ती आर्थिक असमानता, यूरोपीय यूनियन से तेजी से होता मोहभंग और राष्ट्रीय पहचान के खो जाने से बढ़ती चिंता के बीच यूरोप के ज्यादातर देशों में दक्षिणपंथी पाटियों का तेजी से उभार हो रहा है। बीते डेढ़ दशक में यूरोप के २० देशों में दक्षिणपंथी पार्टियों के उभार को रेखांकित किया जा सकता है। यूरोप में दक्षिणपंथी पार्टियों की बढ़त के इस वक्त में एंजेला मर्केल का चौथी बार चांसलर बन कर उभरना निश्चित ही उनके लिए एक ऐतिहासिक कामयाबी है। लेकिन इस जीत के साथ जुड़ी एक बड़ी विडंबना ऑल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) का देश की सब से बडी पार्टी के रूप में स्थापित हो जाना है।
जर्मनी के राजनीतिक इतिहास में दूसरे विश्व युद्ध के बाद के सालों में पहली बार हुआ है कि धुर दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी १२ फीसदी से ज्यादा मत हासिल कर जर्मनी के संसद बुंडस्टैग में पहुंच गई है। २०१३ में हुए पिछले चुनाव में एएफडी को मात्र ४.७ फीसद वोट हासिल हुए थे। राष्ट्रवाद के तीखे मुहावरे में बात करने वाली और अप्रवासियों को जर्मनी की राष्ट्रीय पहचान के लिए खतरा बताने वाली इस पार्टी ने चार साल की अवधि में अपने वोटों में तकरीबन तीन गुना इजाफा किया है। क्रिश्चियन डमोक्रेटिक यूनियन के परंपरागत वोट बैंक मे एएफडी की सेंधमारी के कारण एंजेला मर्केल के सामने एक विचित्र स्थिति आ खड़ी हुई है। जर्मन संसद की ६७२ सीटों में मर्केल की क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन और क्रिश्चियन सोशल यूनियन को ३३ प्रतिशत वोटों के साथ कुल २४६ सीटें मिली हैं और पार्टियों की यह साझेदारी बहुमत के आंकड़े से दूर रह गई है। अब चौथी बार चांसलर बनने के लिए एंजेला मर्केल को जर्मनी की दो छोटी पार्टियों फ्री डेमोक्रेट्स तथा ग्रीन पार्टी का समर्थन हासिल करना होगा। मर्केल के लिए यह बड़ी असहज स्थिति है क्योंकि विचारों के मामले में फ्री डेमोक्रेट्स और ग्रीन पार्टी एक दूसरे के विपरीत ध्रुवों पर खड़ी हैं। ग्रीन पार्टी पर्यावरण की संरक्षा, सामाजिक कल्याण और अहिंसा की बात करती है तो फ्रीडम पार्टी मुक्त व्यापार की पक्षधर है। वामपंथी सोशल डेमोक्रेट्स (एएपीडी) को इस चुनाव में भारी पराजय का सामना करना पड़ा है। एएपीडी के वोट ऐतिहासिक निचले स्तर २०.१८ प्रतिशत पर ल़ुढक गए हैं। सोशल डेमोक्रेट्स पिछली सरकार में एंजेला मर्केल के महागठबंधन में शामिल थे। मौजूदा समीकरणों के मुताबिक अगर मर्केल और सोशल डेमोक्रेट्स हाथ मिला लें तो उनके गठबंधन की सरकार बड़ी आसानी से बन सकती है लेकिन इस बार अपने वोटों में आई तेज गिरावट से परेशान सोशल डेमोक्रटिक पार्टी ने विपक्ष में बैठने का फैसला किया है। जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी का दूसरे विश्व युद्ध के बाद के समय में यह सबसे खराब चुनावी प्रदर्शन है।
एंजेला मर्केल की पार्टी के लिए आगे के दिन कठिनाई भरे साबित होंगे। इसका संकेत इस बात से मिलता है कि यूरोपीय यूनियन को शक की नजर से देखने वाली एएफडी के जर्मन संसद में पहुंचने की खबरों के साथ ही यूरो के भाव विदेशी मुद्रा बाजार में डॉलर के मुकाबले गिर गए और यह भी कयास लगाए जाने लगे कि एंजेला मर्केल की सरकार अपने निर्धारित चार साल पूरा करने से पहले गिर जाएगी।
चुनावी नतीजे आने के बाद एंजेला मर्केल ने कहा है कि हमें कहीं ज्यादा बेहतर नतीजे की उम्मीद थी और हम कोशिश करेंगे कि जिन मतदाताओं ने हमारा साथ छोड़ा है वे हम पर फिर से भरोसा करके हमारी ओर लौटें। सवाल उठता है कि यूरोपीय यूनियन के सब से ताकतवर देश की नेता से चुनावी रणनीति तय करने में चूक कहां हुई? ज्यादातर विश्लेषकों का मानना है कि इस चुनाव में एंजेला मर्केल को अप्रवासियों के प्रति उदारता दिखाने की भारी कीमत चुकानी पड़ी है। सीरिया से आए मुस्लिम शरणार्थियों के लिए एंजेला मर्केल की अगुवाई में जर्मनी ने न सिर्फ अपने दरवाजे खोले बल्कि यूरोपीय यूनियन के देशों के लिए एक तरह से नजीर भी कायम की। दो साल पहले खबरें आईं कि जर्मनी पहुंचे शरणार्थी हमलावर हो रहे हैं और मेजबान देश की महिलाओं के साथ अप्रवासी दुव्यवहार कर रहे हैं। लेकिन तब भी एंजेला मर्केल का कहना था कि शरणार्थियों का जर्मनी में स्वागत जारी रहेगा। जाहिर है, दक्षिणपंथी एएफडी को जर्मनी मे बढ़ती इस्लाम विरोधी भावना का फायदा पहुंचा है।
एएफडी के उभार के पीछे सब से बड़ा कारण जर्मनी मे बढ़ती आर्थिक असमानता है। बेशक फोर्ब्स पत्रिका के मुताबिक दुनिया की चार सबसे बड़ी कंपनियां जर्मनी की हैं और जर्मनी यूरोपीय यूनियन के देशों में प्रति व्यक्ति औसत आमदनी के लिहाज से सबसे शीर्ष (२०१६ में प्रति व्यक्ति ४५५५१ डॉलर यानी विश्व औसत का ३६१ प्रतिशत) का देश है, साथ ही बेरोजगारी की दर भी कम (३.१ प्रतिशत, अप्रैल २०१७) है। लेकिन एंजेला मर्केल के बीते १२ साल के शासन में ज्यादातर लोगों को फायदा पहुंचा है तो कुछ लोगों को बुरे दिन भी देखने पड़े हैं। रोजगार बढ़ा है और कामगारों की संख्या बढ़ी है लेकिन साथ ही साथ सरकारी सहायता के सहारे जीवनयापन करने वाले लोगों की तादाद बढ़ी है क्योंकि पहले की तुलना में जर्मन कामगार का वेतन घटा है। २०१२ के बाद में जीवनयापन के लिए सरकारी सहायता पर निर्भर लोगों की संख्या में २० लाख का इजाफा हुआ है। फिलहाल जर्मनी की कुल आबादी का लगभग सात प्रतिशत हिस्सा सरकारी सहायता के सहारे जीवनयापन कर रहा है। कम से कम १२ लाख लोग ऐसे हैं जिनके पास नौकरी तो है लेकिन जीवन चलाना इतना महंगा है कि वे गरीबी रेखा के नीचे हैं। एक आकलन के मुताबिक जर्मनी की कम से कम १६ फीसदी आबादी के सामने फिलहाल गरीब हो जाने का खतरा मंडरा रहा है।
एंजेला मर्केल अपनी चुनावी सभाओं में खुल कर कहती थीं कि जर्मनी ने इतने अच्छे दिन कभी न देखे थे। जर्मनी में गरीबी का खतरा झेल रही १६ प्रतिशत आबादी के लिए ऐसा प्रचार बेमानी था। इस वंचित आबादी के मन में घर करते डर को भुना कर इस्लाम विरोधी उग्र राष्ट्रवादी पार्टी एएफडी ने एकबारगी यूरोप की सब से ताकतवर अर्थव्यवस्था के अंतर्विरोध उजागर कर दिए हैं। एकाएक तीसरे नंबर पर एक दक्षिपपंधी पार्टी एएफडी का आ जाना यह बताता है कि जर्मनी के लोगों का मन बदल रहा है। आगामी समय में इसका असर भी जर्मनी पर दिखने लगेगा।
एएफडी की चुनावी सफलता के एक घंटे के भीतर ही इस पार्टी के नेतृत्व ने अपना उद्देश्य स्पष्ट कर दिया। इसके मुताबिक एएफडी का उद्देश्य है मर्केल को सत्ताच्युत करना और अपने लोगों को अपना देश वापस करना। यानी अमेरीकी राष्ट्रपति ट्रंप की भाषा में कहें तो मजबूत जर्मन धड़ा एएफडी के नेतृत्व में नई जर्मनी का निर्माण करना चाहता है, जहां नाजी काल जैसा ताकतवर जर्मनी दिखे। सवाल यह उठता है कि क्या एएफडी का कोई आर्थिक एजेंडा था जिसे लेकर जर्मन मतदाताओं ने ऐसा रुझान दिखाया था? उनका कोई छिपा एजेंडा है जिसे लोगों ने अधिक पसंद किया है। इसका मतलब है कि जर्मनी में भी अमेरिका और रूस की भांति एक ऐसी विचारधारा तेजी से उभर रही है जो कट्टरपंथी राष्ट्रवाद को प्रश्रय दे रही है। शुरुआत में एएफडी नामक इस दक्षिणपंथी पार्टी के निशाने पर यूरोपीय संघ, यूरो मुद्रा और विदेशी कामगार रह चुके हैं। लेकिन २०१५ में शुरू हुए शरणार्थी संकट ने इस पार्टी को एक नई हवा दी। पार्टी नेताओं ने खुले आम नाजी जर्मनी पर गर्व करने जैसे विवादित बयान दिए। जर्मनी में एएफडी के आधार से यूरोप और अमेरिका के यहूदियों में भय और भविष्य के प्रति आशंका है। ‘वर्ल्ड यहूदी कांग्रेस’ के अध्यक्ष रोेनाल्ड हाउडर ने कहा है कि एएफडी ने ऐसे समय में सफलता पाई है जब दुनिया भर में यहूदी विरोधी भावना उभर रही है। चुनाव परिणाम आने के बाद जर्मनी में कई जगह प्रदर्शन भी हुए। राजधानी बर्लिन में एएफडी के कार्यलय के बाहर प्रदर्शनकारी इकट्ठा हो गए और पार्टी विरोधी नारे लगाने लगे। फ्रेंकफर्ट और कोलोन में भी प्रदर्शन किए गए।
जर्मनी को यूरोप का पॉवर हाऊस कहा जाता रहा है। उसकी अर्थव्यवस्था यूरो जोन की धुरी है। पिछले कुछ वर्षों में वहां की आर्थिक व्यवस्था में शिथिलता की खबरें आती रही हैं। ऐसे में शरणार्थियों की भीड़ और पुरानी नस्ली घृणा मिल कर जर्मनी में एक विस्फोटक स्थिति बना रहे हैं। यूरोपीय संघ ने ब्रेग्जिट को तो किसी तरह झेल लिया लेकिन जर्मनी में ऐसा कुछ हुआ तो इस विशाल आर्थिक संगठन के धुर्रे बिखर जाएंगे।

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