दशावतार: मिथकों को वैज्ञानिक आधार देता उपन्यास

सृष्टि की उत्पत्ति जानने के लिए ही बिग-बैंग अर्थात महामशीन का प्रयोग किया गया था। तत्पश्चात निष्कर्ष में कहा गया कि इसकी उत्पत्ति का कारक ‘गॉड पार्टिकल‘ अर्थात ‘ईश्वरीय-कण‘ हैं। इन कणों को ही गीता में अल्पांश कहा गया है।

मूल रूप से संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों में उल्लेखित मिथकों में विज्ञान के रहस्य छिपे होने की बात कोई वैज्ञानिक या लेखक करता है तो उनका उपहास तो खूब उड़ाया जाता है, लेकिन इन रहस्यों को वैज्ञानिक ढंग से गांठें खोलने की कोशिश नहीं की जाती। इस परिप्रेक्ष्य में अब हिंदी में ‘दशावतार‘ शीर्षक से प्रसिद्ध लेखक व पत्रकार प्रमोद भार्गव का ऐसा अद्वितीय उपन्यास आया है, जो लोक में प्रचलित अनेक मिथकों का न केवल वैज्ञानिक ढंग से उत्तर देता है, बल्कि उत्तरों की तर्किक पुष्टि के लिए दुनियाभर में हो रहे नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधानों के उदाहरण भी प्रस्तुत करता है। अतएव लेखक का इस संंदर्भ में विशद् अध्ययन न केवल चमत्कृत करता है, बल्कि दिए गए तथ्यों से सहमत होने को विवश भी करता है। इस द़ृष्टि से विष्णु के दशावतारों पर आत्मकथात्मक रूप में यह औपन्यसिक प्रस्तुति बेहद सारगर्भित है।
लेखक द्वारा ही लिखी उपन्यास की भ्ाूमिका बौद्धिक चेतना का एक ऐसा दस्तावेज है, जो हमारे पूर्वग्रहों को उपन्यास पढ़ने की शुरूआत से पहले ही झकझोर देता है। अभी तक हम जैव व मानव विकास यानी जीवोत्पत्ति के विज्ञान को डॉर्विन के नजरिए से ही देखते चले आ रहे हैं। अलबत्ता लेखक सनातन संस्कृति में विष्णु के जो दशावतार हैं, उनके माध्यम से डॉर्विन के सिद्धांत को एक विस्तृत फलक देते हुए एक कोशीय जीव से लेकर मनुष्य तक के अवतरण एवं कालक्रम को प्रस्तुत करता है। इस भौतिकवादी व्याख्या के अंतर्गत पहला अवतार मछली है। विज्ञान भी मानता है कि जीव-जगत में पहला जीवन-रूप जल में विकसित हुआ। दूसरा अवतार कछुआ है, जो जल और भ्ाूमि दोनों पर रहने में समर्थ हुआ। विज्ञान भी मानता है कि मछली के बाद जीव विकसित हुए जो जल और थल दोनों पर रहने में सक्षम हुए। तीसरा वराह हुआ, जो पानी के भीतर से धरती की ओर बढ़ने का संकेत था। अर्थात पृथ्वी को जल से मुक्त करने का प्रतीक है। चौथा, नरसिंह है, जो जानवर से मनुष्य में संक्रमण का प्रतिबिंब है। पांचवां वामन अवतार है, जो लघ्ाु रूप में मानव जीवन का अवतरण है। छठा परशुराम हैं, जो संपूर्ण रूप में मनुष्य के विकसित हो जाने का रेखाकंन है। हाथ में फरसा लिए परशुराम मानव जीवन को व्यवस्थित रूप में बसाने के लिए वनों को काटकर घर बसाने की स्थिति को भी अभिव्यक्त करते हैं। सातवें अवतार राम हैं, जिनका प्रगटीकरण हाथों में धनुष-बाण लिए हुए है। धनुष-बाण इस बात का भी संकेत हैं कि इस समय तक मनुष्य मानव बस्तियों की दूर से सुरक्षा करने में सक्षम हो गया था। आठवें अवतार कंधे पर हल लिए हुए बलराम हैं। यह विकसित हो रही मानव सभ्यता के बीच कृषि आधारित अर्थव्यवस्था को इंगित करता है। नवें अवतार में कृष्ण हैं, जो मनुष्य को कृषि के साथ दुग्ध उत्पादों से जोड़ने और आजीविका चलाने का घोतक है। कृष्ण ने महाभारत युद्ध के समय अर्जुन को जो गीता का उपदेश दिया, वह उनके दर्शनिक भाव की भी अभिव्यक्ति है। दसवां कल्कि हैं, जो भविष्य का अवतार है। लेखक इस काल्पनिक अवतार को जिस रूप में पुराण-कथाओं में होना दर्शाया गया है, उसे उस रूप में होना संभव नहीं मानता है। इससे स्पष्ट होता है कि लेखक किसी धार्मिक या रूढ़िगत मान्यता से मुक्त है। अत: पूरा उपन्यास मिथकों के इंद्रियातीत रहस्यों को कथाओं के माध्ययम से विज्ञान-सम्मत प्रस्तुतियों का रोचक व तार्किक आख्यान बन पड़ा है।

इस भौतिकवादी अवधारणा को महात्मा गांधी और ब्रिटेन के विकासवादी जीव-विज्ञानी जेबीएस हल्डेन के उदाहरणों से प्रमाणित भी किया गया है। इस उपन्यास की एक अन्य विलक्षणता यह है कि यह जीव के विकासक्रम के साथ-साथ संपूर्ण सृष्टि अर्थात ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति और वह किस वैज्ञानिक ढंग से अस्तित्व में हैं, उनके कारण एवं कारकों की भी सार्थक प्रस्तुति है। साफ है, ॠषियों ने गुरूत्वाकर्षण बल की महिमा को पहचान कर हजारों साल पहले व्याख्यायित भी कर दिया था। ब्रह्माण्ड के उद्भव और उसकी विराटता के रहस्यों को हम अब जाकर उपकरणों के माध्यम से जानने की कोशिश कर रहे हैं, किंतु कृष्ण का विराट रूप इसे पहले ही दर्शा चुका है। गीता में कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं, समूची द़ृष्टि मेरी अध्यक्षता में चलायमान हैं, इसलिए संपूर्ण ब्रह्माण्ड का आधार मैं हूं। मेरे एक अल्पांश से अभिव्यक्त प्रत्यक्ष दिखने वाले ब्रह्माण्ड का कारक मैं हूं।‘ कृष्ण आगे कहते हैं, ‘जो ब्रह्माण्ड है, उसके जन्म का मूल मैं हूं और मुझसे ही सारा संसार गतिशील है।‘ इन कथनों से यह बात सिद्ध होती है कि भारतीय चिंतन और आधुनिक विज्ञान की खोज में जबरदस्त साम्य है। सृष्टि की उत्पत्ति जानने के लिए ही बिग-बैंग अर्थात महामशीन का प्रयोग किया गया था। तत्पश्चात निष्कर्ष में कहा गया कि इसकी उत्पत्ति का कारक ‘गॉड पार्टिकल‘ अर्थात ‘ईश्वरीय-कण‘ हैं। इन कणों को ही गीता में अल्पांश कहा गया है। इन्हीं अल्पाशों से अर्थात कणों से अरबों निहारिकाएं अस्तित्व में आईं। इसी तरह से लेखक ने कृष्ण विवर और सापेक्षता के सिद्धांत की भी आध्यात्मिक आवरण को अनावृत्त करते हुए वैज्ञानिक व्याख्या की है। दरअसल मनीषियों का आध्यात्मिक दर्शन ब्रह्माण्ड के अद़ृश्य की खोज है, जो प्रकृति विज्ञान का मूल-धरातल है। वैसे भी अब विज्ञान यह मानने लगा है कि खोज द़ृश्य की नहीं अद़ृश्य की होनी चाहिए।
महाभारत से एक श्लोक लेकर लेखक एक कोशीय जीव से जीवन की उत्पत्ति के बारे में स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ‘सृष्टि के आरंभ में जब वस्तु विशेष के नाम नहीं थे, चहुंओर अंधःकार था, तब एक बहुत बड़ा अण्डा प्रकट हुआ। जो संपूर्ण जीवों का अविनाशी बीज था। इस दिव्य अण्डे या चमत्कारी बीज से चार प्रकार के प्राणियों का क्रमानुसार जन्म हुआ। इनमें पहले मत्स्यवंशी जलचर आए, फिर जलचरों से मण्डूकवंशी उभयचर आए। उभयचरों से धरा पर रेंगने वाले सरीसृप और नभचर आए और फिर थलचर आए। यानी डार्विन का जो जीव विकासवादी सिद्धांत 1859 में ओरीजन ऑफ स्पीशीज के जरिए आया, जैविक विकास का वह सिद्धांत महाभारत या पुराणों में हजारों साल पहले दर्ज हो चुका था।
इस अण्डे को भारतीय सनातन संस्कृति के अनुसार सृष्टि के जनक ‘ब्रह्मा‘ का रूप मानते हुए लेखक उनके नाम के पर्यायवाची हिरण्यगर्भ, हिरण्याण्ड अथवा कमलयोनि को परिभाषित करते हुए लिखते हैं, ‘ब्रह्मा‘ जब विष्णु की नाभि से कमल-दण्ड के रूप में उत्पन्न हो गए तो कालांतर में इस एकाकी ब्रह्म में सृष्टि की कामना जागी। यही कामना अर्थात वासना ब्रह्मा का वीर्य है। इसे हिरण्य भी कहते हैं। इस वीर्य को ब्रह्मा अपनी योनि में गर्भित करते हैं। यानी जीव में जीवनी-शक्ति के रूप में बीज को रोपते हैं। यही बीज सृजन का मूल बीज है। जीव-विज्ञान ने अब तय कर दिया है कि पहले-पहल सृजन एक कोशकीय प्रजनन से अस्तित्व में आया। अमीबा और हाइड्रा एक कोशीय जीव हैं। ब्रह्मा की कमलयोनि भी एक कोशीय है। इससे ज्ञात होता है कि सृष्टि के आरंभ में जब चारों तरफ पानी ही पानी था, तब उस पानी में ऐसे सर्वव्यापी विलक्षण शक्ति तत्व थे, जो मातृत्व की क्षमता रखते थे। इस मातृशक्ति को हम जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाशीय तत्वों का समन्वित रूप मानते हैं। इन्हीं पंच तत्वों को विज्ञान जैव महारासायन अर्थात डीएनए मानता है। अर्थात जीवन-शून्य ब्रह्माण्ड में अद़ृश्य तत्वों और सूर्य किरणों के संयोग व प्रभाव से जो रासायनिक क्रिया हुई, फलस्वरूप एक कोशीय देह वाले सरलतम जीव जल में अस्तित्व में आए।

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