आओ! जीवन का विश्वास जगाएं

अमेरिका के लास वेगास में जो नरसंहार हुआ वह सिहरन पैदा करता है। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का उत्तरार्द्ध हमें सचेत कर रहा है कि अब भी समय है कि हम इस भस्मासुरी प्रवृत्ति से बचें और सनातन जीवन मूल्यों को आत्मसात करते हुए विज्ञान और टेक्नालाजी से प्राप्त सुविधाओं और संपन्नता का सम्यक तथा संतुलित उपयोग और उपभोग करें।
पिछले दिनों एक दिल दहला देने वाला समाचार दुनिया के सब से समृद्ध और सभ्य कहे जाने वाले देश अमेरिका से आया। वहां के एक शहर लास वेगास में एक संगीत समारोह चल रहा था। १४०००० लोग उस समारोह का आनंद उठा रहे थे। तभी संगीत की धुन पर थिरकते नाचते-गाते लोगों पर पास के माडले-बे होटल की ३२वीं मंजिल से स्टीफन पेडाक नामक व्यक्ति ने अंधाधुंध गोलियां बरसा कर ५८ निर्दोष लोगों को मौत की नींद सुला दिया और ५०० से अधिक लोगों को बुरी तरह से घायल करके बाद में उसने खुद को भी गोली मार ली। आधुनिक अमेरिका के इतिहास में सामूहिक नरसंहार की यह सब से बड़ी घटना है।
स्टीफन पेडाक के सबंध में उसके भाई से पता लगा कि वह एक सामान्य व्यक्ति था। जुआ उसका शौक था, पैसा कमाना, मौजमस्ती करना यही उसकी दिनचर्या थी। वह लास वेगास में मजे में रह रहा था। वह सामान्य था तथा हिंसक वृत्ति का नहीं था। यह बात जरूर थी कि बाद में उसके घर की तलाशी लेने पर पुलिस को वहां से ४० अत्याधुनिक राइफल्स तथा रिवाल्वर मिले। अब विचार करने की बात यह है कि ऐसे सामान्य से दिखने वाले स्टीफन पेडाक ने ऐसा नृंशस कृत्य क्यों किया होगा? इस दुर्घटना से विश्व के समाजशास्त्रिथों और मनोविज्ञानियों का चौंकना स्वाभाविक है।
अमेरिका तथा अन्य यूरोपियन देशों में हिंसा की इस प्रकार की घटनाएं अब आम बात हो गई है। अमेरिका में स्कूल के बच्चे अपने साथ रिवाल्वर रखते हैं और अपने साथियों से थोड़ी बहुत कहासुनी होने पर रिवाल्वर चला कर उनकी जान लेने की घटनाएं लगातार सुर्खियों में रहती हैं और इनकी संख्या में पिछले दिनों बढ़ोत्तरी हुई है।
यह बात सही है कि इक्कीसवीं सदी में विश्व की प्रगति और विकास के सारे कीत्तिमान टूटे हैं। सुख के साधनों और आर्थिक समृद्धि और संपन्नता के लिहाज से आज मानव के पास वह सब कुछ है, जिससे वह अपनी सभी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। विज्ञान, टेक्नालाजी तथा औद्योगिक विकास ने मनुष्य को वे सारे साधन उपलब्ध करा दिए हैं, जिससे अब उसे कुछ करने को नहीं रह गया है और इसलिए आम आदमी अपने-आप से ऊबने लगा है तथा उसकी यह ऊब, असंतोष उसे हिंसा की तरफ ले जा रहे हैं। अमेरिका में पिहले दिनों जो कुछ हुआ, यह मानव के असंतोष और उससे उत्पन्न उन्माद का परिणाम है।
भारत में भी इस प्रकार की घटनाओं में अब इजाफा देखा जा रहा है। हिंसा, बलात्कार तथा छोटी-छोटी बातों पर अत्याचार की घटनाओं में लगातार वृद्धि हुई है। हत्या तथा अत्महत्याएं अब आम बात हो गई है। पिछले दिनों जहां हरियाणा के गुरुग्राम में रेयान इंटरनेशनल स्कूल में आठ वर्ष के मासूम प्रद्युम्न की हत्या ने सब को विचलित किया है, वही किशोर, युवक-युवतियों में आत्महत्याओं की बढ़ती प्रवृत्तियों ने भी समाज को सोचने पर मजबूर किया है कि आखिर गलती कहां हो रही है? क्यों आज इतना वैभव, संपन्नता तथा सुविधाओं के बावजूद समाज मेें तनाव, संताप तथा असहिष्णुता का वातावरण है। दुनियाभर के विचारवंत लोग चिंतित हैं कि मनुष्य इतना असंवेदनशील तथा हिंसक क्यों हो रहा है? आतंकवाद पर कोई लगाम क्यों नहीं लग पा रही है? व्याक्ति अंदर ही अंदर क्यों सुलग रहा है? और इर्ष्या, द्वेष तथा क्रोध की आग में क्यों जल रहा है? विज्ञान तथा टेक्नालाजी की प्रगति से प्राप्त साधनों ने व्यक्ति को नितांत एकाकी, स्वार्थी और व्यवहार के स्तर पर क्रूर क्यों बना दिया है? इसी क्रूरता का परिणाम है कि वह हत्या करता है और जब वह स्वयं से असंतुष्ट होता है तो आत्महत्या करता है आज का अमेरिका और यूरोपीय देश इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। भारत तथा अन्य देशों में भी जहां-जहां तथाकथित विज्ञान और टेक्नालाजी की प्रगति को हवा पहुंच रही है, वहां पर इसी प्रकार का चित्र निर्माण हो रहा है।
सुप्रसिद्ध उपन्यासकार जार्ज आरवेल ने भविष्य की इन चिंताओं को अपने सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘१९८४’ में बहुत ही गंभीरता से रेखांकित किया, जो आज सत्य होती दिख रही है। उन्होंने लिखा कि जो पुरानी सभ्यताएं थीं, उनमें सहअस्तित्व, बंघुता, परस्पर सहयोग तथा न्यायपूर्ण व्यवस्था का दावा किया गया था, किन्तु वर्तमान सभ्यता का आधार कृपा, द्वेष, प्रतियोगिता, असयोग तथा क्रोध है, जिसमें आत्मविस्मृति होगी। व्यक्ति धन के लोभ, लालच में स्वयं को मूल जाएगा और केवल धन का स्मरण रखेगा। येनकेन प्रकारेण अपने स्वार्थ की पूर्ति और ऐसा न होने पर सामने वाले को समाप्त कर देने की हिंसक वृत्ति व्यक्ति के स्वभाव को विकृत करेगी। किसी भी तरीके से प्राप्त विजय की खुशी ही सब से बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी। साधनों पर नहीं केवल साध्य पर नजरे टिकी रहेंगी। कला, साहित्य और ज्ञान-विज्ञान से प्राप्त खुशी भी जय-पराजय प्रतियोगिता और घृणा से उत्पन्न खुशी में बदल जाएगी। इसलिए विंस्टन (उपन्यास का एक पात्र) यह मत व्यक्त करता है कि अब भविष्य, शक्ति के नशे का भविष्य होगा।
क्या इस शक्ति का नशा हम अनुभव नहीं कर रहे हैं? हथियारों के अंबार लगा कर शक्ति का एकाधिकार सुनिश्चित किया जा रहा है, वस्तुएं, व्यक्ति और उसके व्यक्तित्व का चीरहरण कर रही है, धन बल के सामने किसी की नहीं चलती चाहे वह लोकतंत्र हो या राजतंत्र। भविष्य का शासन-प्रशासन धन बल के सामने नतमस्तक होगा। इसी प्रकार, एलविन टाफलर की पुस्तक ‘फ्यूचर शॉक’ और ‘थर्ड वेव’ में जो जो भविष्यवाणियां की गई हैं, वे भी अब सत्य हो रही हैं। टाफलर को दूसरी पुस्तक ‘पावर शिफ्ट’ में भी उसने कहा है कि शक्ति का स्त्रोत केवल धन होगा। सुप्रसिद्ध विचारक एवं लेखक श्री रमेश दवे ने उनकी उस संकल्पना का विवेचन करते हुए लिखा है, ‘‘टाफलर मानता है कि आगामी सदी साम्राज्यों के अंत की सदी होगी, ईश्वर अब श्वेत वस्त्रधारी नेताओं में प्रकट होगा। भविष्य की बमबारी घोषणाओं के जरिए होगी और नकली नम्रता का दौर चल पड़ेगा। शक्ति तंत्र अनेक मान्यताओं के साथ तथ्य, झूठ और सत्य के बजाए लोकतंत्र में दरारें पैदा करेगा। सैनिक कमांडों के समानांतर व्यवसाय कमांडो की फौज खड़ी की जाएगी और रक्त और बर्फ का नया धनशास्त्र पश्चिम पैदा करेगा। शक्ति का एकाधिकार होगा, धन के माध्यम से और हर व्यक्ति के पास एक बंदूकें होगी और वह गुप्त होगी अर्थात मानवता को हिंसा में जीने के लिए बाध्य होना पड़ेगा। यह हिंसा हत्या और आत्महत्या के रूप में समाज को झकझोरती रहेगी। सारे विश्व में हिंसा, आतंक और दहशत का वातावरण, यह इसी व्यवस्था और विचार शैली की देन है। टाफलर आगे कहता है, ‘‘विचारधाराएं या तो मर जाएंगी या कमजोर हो जाएंगी। और ज्ञान के विरुद्ध पूंजी खड़ी होकर ज्ञान का भी व्यापार करेगी। हर जगह धन और पूंजी का साम्राज्य होगा, धन शक्ति को निरंतर बढ़ाने की प्रतियोगिता होगी, वही विकास और प्रगति का पैमाना होगा। इलेक्ट्रानिक संचालित राजमार्गों का जाल फैलेगा और संदेशों को तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाएगा। सूचना तंत्र के नए साम्रायावादी शासक पैदा होंगे और सुपर मार्केट या मॉल सभ्यता के बाजार होंगे और मनुष्य के विवेक और मानसिक संतुलन का अपहरण कर लेंगे। मनुष्य के यश और प्रसिद्धि को फैलाने के लिए फेम फर्म्स बना जाएंगी। एक नए सर्वहारा वर्ग का जन्म होगा जिसे ‘इलेक्ट्रानिक प्रोलितेरियट’ कहा जाएगा। पूरा आर्थिक तंत्र अब एक नए परिवेश में उपस्थित होगा। कारपोरेट से अलग एक शक्ति केन्द्र होगा जो परिवार कार्पोरेट होगा। राजनीति और व्यापार-व्यवसाय में गठजोड़ होगा और उनकी कार्यप्रणाली तरह-तरह के बहानों से भरी रहेगी। सत्ता का सतत संघर्ष देखने को मिलेगा, जिसमें आम आदमी की कोई अहमियत नहीं होगी। नई-नई पसंद को ईजाद किया जाएगा जिसका प्रभाव खाने, पहनने, काम करने, व्यवसाय करने और अपनी वासना-कामना को पूरा करगे में देखने को मिलेगा तथा यदि इसमें कोई अवरोध उत्पन्न करेगा तो हिंसा का सहारा लिया जाएगा। मीडिया प्रचार का माध्यम होगा, ज्ञान बिकेगा और दूसरी ओर अज्ञान की अनेक धाराएं पैदा होंगी, जिसकी अंतिम परिणति हत्या, आतंक और एक दूसरे को समूल नष्ट कर देने की प्रवृति में दिखेगी।
वर्तमान का यह परिदृश्य वास्तव में एक सिहरन पैदा करता है। इक्कीसवी सदी के दूसरे दशक का उत्तरार्द्ध हमें सचेत कर रहा है कि अब भी समय है कि हम इस भस्मासुरी प्रवृत्ति से बचें और सनातन जीवन मूल्यों को आत्मसात करते हुए विज्ञान और टेक्नालाजी से प्राप्त सुविधाओं और संपन्नता का सम्यक तथा संतुलित उपयोग और उपभोग करें। यह इस युग की विडम्बना ही है कि सुख साधनों की भरमार होने के बावजूद हत्या, आतंक तथा अत्याचार चरम पर है। इसका अर्थ यह भी है कि केवल भौतिक सुख और समृद्धि मनुष्य को आनंद और संतोष नहीं दे सकते, उसके लिए आंतरिक संपन्नता और सहिष्णुता चाहिए। आज हम जिसे ज्ञान समझ रहे हैं, वास्तव में वह ज्ञान नहीं है, बल्कि केवल सूचना है। उसने मनुष्य को स्वार्थी, अहंकारी और ईष्यालु बनाया है जिसके कारण परिवार नामक संस्था समाप्त हो रही है, यहां तक कि पति-पत्नी के बीच के संबंध भी समाप्त हो रहे हैं और नई पीढ़ी आत्मीयता, वास्तल्य तथा स्नेह से वंचित होने के कारण टी वी पर डोरेमॉन-पोकोमॉन देख कर बड़ी हो रही है। एक हृदयहीन संवेदना से शून्य भावी समाज को बनाने में हम सब भागीदार हो रहे हैं। इन सब से सावधान करते हुए महाकवि जयशंकर प्रसाद ने बहुत पहले ही लिख दिया था-
सब कुछ अपनों से ही डर कर
कैसे व्यक्ति विकास करेगा
यह एकांत स्वार्थ भीषण है
अपना ही नाश करेगा
लगता है, वह समय आ गया है। इस वृति से आज का मानव मन के स्तर पर सिकुड़ता जा रहा है और धन के स्तर विस्तार पा रहा है जिसका परिणाम है कि आज का मानव असुाक्षित है और अपनों से ही डर कर जीवन जीने को अभिशप्त है। अतएव हम सब को मिल कर मानव जीवन के प्रति एक समझ पैदा करनी होगी। सुप्रसिद्ध दर्शनिक एवं चिंतक श्री कृष्णमूर्ति कहते हैं कि हमें आगे आने वाली पीढ़ी को ‘जीवन को समन्वित समझ के लिए तैयार करना होगा। कोई अकेला नहीं जी सकता, उसे मानव जीवन का धड़कता हिस्सा बन कर ही जीना होगा। वैयक्तिक लालच और कामना की पूर्ति के लिए कोई स्थान नहीं है। भौतिक सुख सुविधाओं को अधिक से अधिक प्राप्त कर लेने की अंधी दौड, हमें जानवर से भी बदतर बना देगी। पश्चिम के भूमंडलीकरण के सिद्धांत ने हमारे अंदर के मनुष्यत्व को समाप्त कर दिया है। हम मशीन बने हैं और मशीन में आत्मा नहीं होती, संवेदना नहीं होती। क्या हम ऐसे विश्व के निर्माण में भागीदार बन रहे हैं? यह एक यश प्रश्न है। इस प्रश्न का उत्तर दिया है भारत की सनातन संस्कृति ने। महाभारत के शांति पर्व में महर्षि वेद व्यास ने सूत्र दिया है कि संसार में मानव से बढ़ कर श्रेष्ठ और कोई नहीं है-
शुद्य व्रद्य तद्विदं बवीमि
नहि मानुषात श्रेष्ठतंर हि किंचित
(शांति पर्व १८०-९२)
अर्थात यह एक गहन सत्य है, तत् ब्रवीमि, मैं उसे कहता हूं नहि मानुषात श्रेष्ठतंर-मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ नहीं है। केवल मनुष्य में ही जीवन के परम सत्य को प्रकट करने की अदभुत सामर्थ्य है। यह अन्य किसी प्राणी में नहीं है, क्योकिं मानव सृष्टि का सिरमौर है, सर्वोच्च है। वेद वाणी मनुष्य को अमृत की संतान घोषित करती है- मानवा: अमृतस्य पुत्रा:। मानव का चिंतन और चरित्र जब सत्य के साक्षात्कार के लिए प्रयत्न करता है, तब वह अमृत पुत्र हो जाता है।

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