भटकाव की राह पर दलित राजनीति

देश में दलित और जातिगत राजनीति का नया दौर शुरू हो चुका है, या भारतीय जनता पार्टी गठबंधन की सरकारों के १९ राज्यों तक पांव पसारते जाने से खीझी कांग्रेस और वामपंथी खेमा २०१९ के लोकसभा चुनावों में बाजी पलटने के लिए जिग्नेश, हार्दिक, कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसे युवा चेहरों का मोहरों के रूप में इस्तेमाल करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। सच्चाई तो यही है कि आज देश के ७८ फीसदी से अधिक क्षेत्र की लगभग ६८ फीसदी आबादी एनडीए द्वारा शासित है और विपक्ष बुरी तरह हताश है। हैदराबाद के रिसर्च स्कॉलर रोहित वेमुला से लेकर महाराष्ट्र के भीमा – कोरेगांव तक कितना कुछ हो गया, अब जिग्नेश मेवाणी नए दलित नेता के रूप में तेजी से उभरे हैं। गुजरात के कांड के बाद उनकी ही अगुवाई में बड़ा आंदोलन हुआ था। लेकिन इतनी तेजी से वे राजनीति में आगे बढ़ेंगे, यह उम्मीद शायद राजनीति के दिग्गजों को नहीं थी।

बता दें कि भीमा कोरेगांव में अंग्रेजों द्वारा स्थापित युद्ध स्मारक की २००वीं बरसी पर एक जनवरी को कई लाख दलितों के जमाव के बाद शुरू हुए उपद्रव ने ही महाराष्ट्र को तीन दिन तक बंधक बनाए रखा। दूसरी ओर वढ़ू बुदरक गांव में भी दोनों समाजों के लोगों ने एकत्र होकर तय किया कि बाहर के किसी व्यक्ति का हस्तक्षेप वह अपने गांव के मसलों में नहीं होने देंगे। एक जनवरी, २०१८ को भीमा कोरेगांव से शुरू हुई अशांति के पीछे कुछ भूमिका २९ दिसम्बर की रात इस गांव में हुई एक घटना को माना जा रहा है। इसी गांव में छत्रपति शिवाजी महाराज के ज्येष्ठ पुत्र छत्रपति संभाजी राजे एवं उनका अंतिम संस्कार करने वाले दलित वर्ग के गोविंद महाराज की समाधि भी है। कहा जाता है कि गोविंद महाराज की समाधि पर लगाए गए छत्र को २९ दिसंबर की रात कुछ अज्ञात लोगों ने तोड़ कर समाधि पर लगे नामपट को भी क्षतिग्रस्त कर दिया था। ३१ दिसम्बर की शाम शनिवारवाड़ा पर जिग्नेश मेवाणी एवं उमर खालिद की उपस्थिति में हुई एल्गार परिषद के साथ इस घटना को भी एक जनवरी के उपद्रव की पृष्ठभूमि माना जा रहा है। इस गांव के मराठा और दलित दोनों समुदायों ने एकसाथ आकर गोविंद महाराज की क्षतिग्रस्त समाधि को ठीक कराने एवं मराठा समाज पर एट्रोसिटी एक्ट के तहत दर्ज मामला वापस लेने का निर्णय किया।

बता दें कि दलित नेता जिग्नेश इस बार गुजरात के वडगाम से विधायक चुने गए हैं। उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से निर्दलीय चुनाव लड़ा था। विधायक बनने के बाद जिग्नेश गुजरात से बाहर निकल कर देश के अलग – अलग हिस्सों में जा रहे हैं। वे न केवल दलितों, बल्कि किसानों, अल्पसंख्यकों की बात भी कर रहे हैं। शिक्षा और रोजगार का सवाल भी उठा रहे हैं।

जिग्नेश मेवाणी ने ९ जनवरी को दिल्ली में युवा हुंकार रैली की। इस रैली में कन्हैया कुमार, शेहला राशिद, उमर खालिद, सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण भी मौजूद थे। रैली तो हुई, लेकिन अपने मूल स्वरूप से काफी भटकती देखी गयी। ये रैली खास तौर पर युवा दलित नेता और सहारनपुर हिंसा के मामले में गिरफ्तार भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर की रिहाई को लेकर आयोजित हुई थी। हकीकत तो ये रही कि रैली में चंद्रशेखर की रिहाई की जगह ज्यादातर गो – रक्षक, लव – जिहाद और बेरोजगारी जैसे मुद्दे छाये रहे – और उससे भी ज्यादा निशाने पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी प्रमुख अमित शाह रहे। मेवाणी ने कहा, जिस तरह गुजरात में हार्दिक, अल्पेश और मैंने उनका १५० सीटों का घमंड तोड़ दिया, इसलिए हमें टारगेट किया जा रहा है। हम किसी जाति या धर्म के ख़िलाफ़ नहीं हैं। हम देश के संविधान को मानते हैं। हम फुले और आंबेडकर को मानने वाले हैं।

दलित राजनीति की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि दलित आंदोलन जिस आंबेडकरवादी विचारधारा को लेकर चला क्या दलित राजनीति डॉ . आंबेडकर के उन्हीं विचारों और सिद्धांतों के रास्ते पर चली या उसकी दिशा में भटकाव दिखाई देता है ? देश भर में १६ . ५ फीसदी से ज्यादा दलित वोटर हैं, इससे वे मुस्लिमों की तुलना में अधिक शक्तिशाली वोट बैंक हैं। जैसा पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों के मामले में हुआ, १९८९ के बाद कांग्रेस इनके वोट भी गंवाने लगी। मुस्लिमों के विपरीत दलितों ने कभी रणनीतिक रूप से अथवा किसी पार्टी को चुनने अथवा अन्य को सत्ता से बाहर रखने के एकमात्र उद्देश्य से वोट नहीं दिए।

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में बसपा की करारी हार के बाद ये सवाल उठा कि दलित मतदाताओं ने किस पार्टी के पक्ष में मतदान किया था। भाजपा की जीत से साफ है कि पार्टी को अलग – अलग समुदायों का जबरदस्त समर्थन मिला जबकि परंपरागत तौर पर बसपा के कैडर जो पहले भी मत दिया करते थे, उसमें किसी तरह की खास गिरावट नहीं दर्ज की गई।

ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या जिग्नेश मेवाणी राष्ट्रीय स्तर पर दलित नेता के रूप में उभर सकते हैं ? जिग्नेश मेवाणी बड़ा खतरा जरूर हैं, लेकिन तभी तक जब तक वे खुद के बूते खड़े हैं – डर सिर्फ इसी बात को लेकर है कि कहीं वे कांग्रेस के दलित नेता बन कर न रह जाए ? वे भाजपा को अपना एकमात्र शत्रु मान कर निशाना बना रहे हैं और इसके आधार पर दूसरों से तालमेल बिठा रहे हैं। गुजरात में हुए हालिया विधान सभा चुनाव में मिली जीत के बाद उनमें संभावनाओं की तलाश करने वालों की संख्या बढ़ गई। लेकिन क्या जिग्नेश मेवाणी देश की दलित राजनीति को कोई नई दिशा दे पाएंगे ? मायावती, रामविलास पासवान, मल्लिकार्जुन खड़गे, थावरचंद गहलोत आदि अलग – अलग नेता समय – समय पर इस कमी को पूरा करने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन जगजीवनराम और कांशीराम के बाद यह जगह खाली ही रही है।

दलित राजनीति की असफलता पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्रोफेसर रहे स्व . तुलसीराम ने एक इंटरव्यू में बड़ी सटीक टिप्पणी की थी – ‘ गांधी और आंबेडकर की जब बातचीत हो रही थी तब उन्होंने साफ – साफ कहा था कि सामाजिक आंदोलनों का राजनीतिक आंदोलनों पर वर्चस्व होना चाहिए। राजनीतिक आंदोलन के चलते सत्ता तो मिल जाएगी लेकिन समाज में बदलाव नहीं आ पाएगा। इसलिए यदि समाज बदलना है तो सामाजिक आंदोलन बहुत जरूरी हैं।’

वर्तमान हवा उसके विपरीत बह रही है। राजनीति में जातीय धुव्रीकरण बड़े पैमाने पर होने लगा। आज राजनीति का चेहरा जातीय ध्रुवीकरण की वजह से ज्यादा विद्रूप हो गया है। इसकी वजह से देश में लोकतंत्र नहीं जातियां फल – फूल रही हैं। अब पार्टियां नहीं जातियां सत्ता में आने लगी हैं। ऐसे में यह प्रश् ‍ न भी लाजमी हो जाता है कि इस तरह की विडंबनाएं भारतीय राजनीति खासकर दलित समाज की राजनीति को किस दिशा में ले जाएंगी क्योंकि इतिहास गवाह रहा है कि कांग्रेस ने कभी भी दलित राजनेताओं को वह स्थान नहीं दिया, जिसके वे हकदार थे। अब जबकि कांग्रेस राजनीति के सब से बुरे दौर से गुजर रही है, २०१९ के चुनावों के मद्देनजर ऐसे तमाम हथकंडे अपनाकर येनकेन प्रकारेण जीत दर्ज चाहेगी। लेकिन इन दलित नेताओं के स्वार्थपरक राजनीतिक गठजोड़ों के बल पर दलित समाज की कितनी उन्नति हो पाएगी, यह विचार सर्वोपरि होना चाहिए।

– ७६९४९०५९५२

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