मातोश्री रमाबाई

बाबासाहब के जीवनकार्यके संघर्षमय जीवनकाल में, उत्कर्ष की चरम सीमा में और समाज उन्नति के ध्यासपर्व में दृढ़ता से, निस्वार्थ भाव से, त्याग भाव से, प्रेरक भाव से उनके पीछे दृढ़ता से खड़ी रहने वाली एक ही व्यक्ति का नाम आता है और वह है रमाबाई। डॉ. बाबासाहब के एक लोकोत्तर राष्ट्रपुरुष बनने का सफर रमाबाई के सिवा पूरा नहीं हो सकता था।
रमाबाई का जीवन शुरू होता है बाबासाहब के जीवन में आने के साथ। वह साल था १९०७ जब भीमराव ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी। अस्पृश्य समाज का पहला बच्चा मैट्रिक पास हुआ था, पिता रामजी खुशी से फूले नहीं समा पा रहे थे। पूरा अस्पृश्य समाज आनंद में था। उसमें भीमराव के शिक्षक गुरुवर्य केलुस्कर सर भी थे। अस्पृश्योद्धारक संस्था के ओर से भीमराव का सत्कार करने की योजना बनाई गई थी। केलुस्कर सर ने स्वयं लिखा हुआ बुद्ध चरित्र भीमराव को भेंट किया था। उसी विचार प्रभाव में भीमराव था तभी एक अनजान आदमी रामजी के साथ आया था और कह रहा था बेटा इस जगह पर कल तेरा विवाह होने वाला है। भीमराव ने कहा तो-तो मुझे क्या करना होगा। उत्तर में कहा गया, कुछ नहीं तुझे दुल्हा बनके खड़े रहना है। रामजी ने पहले से ही लड़की देख कर तय की थी।
रमाबाई को मां-बाप नहीं थे। वह अपने मामा के साथ रहती थीं। महाराष्ट्र में दाभोलगांव के नजदीक वणंदगांव मे भिकूजी धोत्रे की पुत्री रमाबाई शादी के समय नौ साल की थी। १८९७ मे जन्मी ‘रमा’ दिखने में सुंदर थी। बचपन में ही मां-बाप का साया छीन गया था। शादी के समय भीमराव की उमर १६ साल और रमाबाई की उमर ९-१० साल की थी। बझट के खुले मैदान पर यह शादी हुई थी। विवाह के पश्चात ज्येष्ठों के आशीर्वाद लेने के लिए पति-पत्नी झुके तो किसी ने पूछा कितनी पढ़ाई हुई है, तब रमाई ने कहा- मुझे ‘ग म भ न’ आता है। पति मैट्रिक पास और पत्नी ‘ग म भ न’ तक सीमित।
भीमराव इंटर पास हुए। आगे की शिक्षा पैसे के अभाव में कैसे करें यह समस्या थी। रामजी और भीमराव चिंतित थे। भीमराव कह रहा था, बाबा मैं कहीं तो नौकरी पकड़ता हू,ं शिक्षा बाद में भी ली जा सकती है। रमा इससे प्रसन्न हुई थी। क्योंकि रामजी की पेंशन और आनंदराव (देवर) का वेतन में घर व भीमराव की शिक्षा पर खर्च होता था। सौतेली सास और नणंद दोनों भी काम पर जाते थे। उसकी वजह से घर में झगड़े भी होते थे। उनकी बातें रमाबाई को सुननी पड़ती थीं। उसमे भीमराव बीमार पड़े। उसमें उनका एक साल बरबाद हो गया। रामजी और रमा दोनों चिंतित थे। रमा डरते-डरते भीमराव के सम्मुख कुछ बोले बिना आकर बैठी। भीमराव ने पूछा रमा तुझे कुछ कहना है क्या? रमा ने कहा नहीं जी। भीमराव ने खुद रमा से पूछा, रमा तुझे क्या लगता है; मैं पढ़ाई करूं या नौकरी? उस पर रमा ने कहा, ‘जी, आपको जो सही लगे वह करें।’ रमाबाई आंबेडकरजी को ‘साहब’ कहती थी। इस पर एक बार उन्होंने कहा, ‘रामू तू मुझे साहब कहती है परंतु साहब की पत्नी अनपढ़ रहे यह ठीक नहीं है। तुम्हें पढ़ना होगा। रमाई का उत्तर था, ‘आप बहुत पढ़|े मेरा पढ़ना उसीमें आ गया।
भीमराव की चिंता केलुस्कर सर के प्रयास से मिट गई। क्योंकि केलुस्कर सर ने बड़ौदा के सयाजी महाराज गायकवाड के पास जाने का तय किया था। भीमराव और सर दोनों महाराज के पास गए। महाराजा ने प्रति माह पच्चीस रुपये छात्रवृत्ति देने का निर्णय लिया। इस प्रकार भीमराव के बी. ए. तक की शिक्षा का प्रबंध हुआ। अपने पति की यह समस्या हल हो जाए इसीलिए भगवान के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना कर ही थी। वैसे तो भीमराव और रमाबाई को साथ रहने का, बातें करने का मौका बहुत कम मिलता था। जब भी मिलता था तो भीमराव शिक्षा की बात करते थे और रमाई निरुत्तर होती थी। इस तरह भीमराव मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से बी. ए. फायनल परीक्षा तीसरी श्रेणी में पास हुए। क्षणिक नाराज भी हुए। लेकिन अस्पृश्य समाज का पहला लड़का बी. ए. पास हुआ था। इसीलिए सभी प्रसन्न थे। भीमराव-रमाई की पारिवारिक जीवन लोक विलक्षण था। १२ दिसम्बर १९१२ को भीमराव-रमा के पहले पुत्र ने जन्म लिया। उसका नाम यशवंत रखा गया। उसी समय बडौदा से नौकरी के लिए बुलावा आ गया। भीमराव को नौकरी पर जाना जरूरी था; क्योंकि स्कॉलरशिप के बदले में दिया हुआ यह शब्द था। रामजी को दु:ख हुआ था क्योंकि भीमराव को बैरिस्टर बनाना उनका स्वप्न था। यही जीवन लक्ष्य भीमराव का भी था। भीमराव तो बैरिस्टर से आगे जाने की सोचते थे। उसके लिए कुछ भी कष्ट उठाने की उनकी तैयारी थी। भीमराव ने रमाबाई को पूछा, ‘तेरा क्या कहना है, मैं बडौदा नौकरी के लिए जाऊं।’ उस पर रमा ने कहा, ‘मैं क्या कहू;ं लेकिन आपने पूछा इसीलिए कहती हूं कि आप बडौदा जाइये और बाबाजी का सपना पूरा करें।’
सयाजी महाराज को भीमराव के रूप में सूर्य पुत्र मिला था। उन्होंने भीमराव को आगे की पढ़ाई के लिए विदेश भेजने का तय किया। २१ जुलाई १९९३ दोपहर १२ बजे भीमराव न्यूयार्क पहुंचे। उन्होंने कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया। ४ अगस्त १९१३ को भीमराव ने रमाई को पत्र भेजा। सीमित छात्रवृत्ति में गुजारा करना बहुत कठिन था। भीमराव को बहुत पढ़ना था। भीमराव अमेरिका-लंदन में एक के बाद ऊूची उपाधियां संपादन कर रहे थे और यहां रमा की स्थिति बहुत ही बदत्तर थी रमा स्वाभिमानी स्त्री थी। उसने किसी से मदद नहीं मांगी। वह खुद गवलीवाडा में गोबर जमा करती थी। उसके उपलें बनाकर खुद बाजार में बेचती थी।
उधर सयाजीराव के दीवान सर मनुभाई मेहता ने भीमराव को पत्र लिखा, आपके स्कॉलरशिप का समय खत्म हुआ। आप भारत वापस आइये। भीमराव को धक्का लगा और उन्होंने भारत वापस आने का निर्णय लिया। यह खबर सुनकर रमा खुशी से समा नहीं पा रही थी। अब साहब आएंगे। बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर आएंगे। रमा का हृदय गर्व से भर रहा था। बीच-बीच में युद्ध की वार्ता भी सुनाई देती थी। यूरोप खंड में जर्मनी ने युद्ध पुकार लिया था। समुद्र में बम गिर रहे थे। भीमराव समुद्र मार्ग से ही प्रवास कर रहे थे। रमा चिंतित थी। इसी बीच यह खबर आ गई कि बाबासाहब जिस बोट से आ रहे थे उसी बोट को सुरंग लगाकर डुबोया गया है। रमा की पैंरों तले जमीन खिसक गई। लेकिन यह वार्ता झूठ निकली। २१ अगस्त १९१७ डॉक्टर भीमराव मुंबई पहुंचे। दु:खों का पहाड़ झेल कर रमा क्षीण हो चुकी थी। १९१३ में भीमराव के कोलबिंया जाते समय रमाबाई गर्भवती थी। उन्होंने बेटे को जन्म दिया था लेकिन डेढ़ साल के बाद उसकी मृत्यु हो गई थी। यह दु:ख रमा ने अकेले सहा था। उसको संबल देनेवाले ‘साहब’ उस मां के पास नहीं थे।
बड़ौदा नरेश के साथ करारानुसार डॉ. आंबेडकर बड़ौदा नौकरी पर गए, लेकिन दरबार के लोगों ने उनके साथ जो अपमानजनक बर्ताव किया था उससे डॉक्टर बहुत दु:खी थे, बेचैन थे। उनका हृदय आक्रांतित हो रहा था। बड़ौदा नरेश स्पृश्य हिंदुओं के विरोध में जाना नहीं चाहते थे। आखिर निराश होकर १९१७ में डॉ. आंबेडकर मुंबई वापस लौटे, फिर कभी बड़ौदा नहीं जाने का तय करके ही। इसी कालखंड में १९१७ में डॉ. भीमराव के भाई आनंदराव की मृत्यु हो गई। आनंदराव कुटुंब प्रमुख थे। डॉ. भीमराव के सामने समस्याओं का पहाड़ खड़ा था। कुटुंब कैसे चलाएं। अधूरी शिक्षा पूरी कैसे करें। इस चिंता से वह व्यथित थे।
रमाबाई के सामने पारिवारिक अड़चनें बहुत थीं। बच्चों की अल्प आयु में मृत्यु हो रही थी। कमाने वाला देवर गुजर गया। साहब की इतनी पढ़ाई होने के बावजूद केवल जाति के कारण नौकरी नहीं मिल रही थी। आर्थिक अस्थिरता थी। इसी कालखंड में मुंबई के सिडैनहैम महाविद्यालय मे प्रोफेसर की जगह खाली हो गई थी। डॉ. आंबेडकर और आर. एम. जोशी की अर्जियां आई थीं। ११ नवम्बर १९१८ में ४५० रु. वेतन पर डॉ. आंबेडकर प्रोफेसर बन गए। पहला वेतन हाथ में आया, डॉ. आंबेडकरजी को रमा की याद आई। घर जाते समय साथ में मिठाई लेते गए। रमा और बेटा यशवंत दरवाजे में ही खड़े थे। डॉक्टरसाहब को देखकर रमा ने कहा, ‘हमारा वनवास खत्म हुआ।’ इस पर डॉ. आंबेडकर ने कहा, ‘नहीं रमा, हमारा जीवन यह एक बड़ा वनवास है। यह मेरी स्थायी नौकरी नहीं है। सिर्फ दो साल की है। इन दो साल में बचत करके मुझे मेरी अधूरी पढ़ाई पूरी करनी है। रमा निराश हो गई। कभी-कभी वह डॉक्टरजी से कहती थी कि अब आगे की पढ़ाई की इच्छा छोड़ दीजिए। अपना गृहस्थी करेंगे। अच्छी तरह रहेंगे। लेकिन डॉक्टरजी के लिए बैरिस्टर होना अपने समाज के लिए जरूरी था। रमा अपनी जगह पर सही थी। लेकिन बाबासाहब का कुटुंब बढ़ा था; उसे चलाने के लिए ये सारी पढ़ाई उन्हें जरूरी लगती थी। आखिर डॉक्टरजी ने रमा को मना ही लिया।
५ जुलाई १९२० डॉक्टर फिर आगे की पढ़ाई के लिए लंदन की ओर चले। रमा दु:खी थी। लेकिन मन में यह भाव था मेरा पति दुनिया को जीतने के लिए जा रहा है; उसका हृदय विरह से फूट रहा था और दूसरी ओर स्वाभिमान से भरी हुई थी। साहब की एक्सीलट बोट ने भारत का किनारा छोड़ा। रमा की नजर के सामने से पिछले दो साल का चित्र घूम रहा था।
एक दिन रमा गुस्से से बोली, हम क्या जिंदगी भर इसी हालत में जिये क्या? इतना वेतन मिलता है लेकिन उसमें संतोाष नहीं है। आप परदेश जाते हैं, हमारी यहां क्या हालत होती है इसका पता भी है आपको? आपकी पढ़ाई खत्म ही नहीं होती। घर में आपका तनिक भी ध्यान नहीं। यहां हो के भी घर में नहीं है। इस पर डॉक्टर साहब ने चुटकी लेते हुए कहा, ‘ऐसा है क्या? मैं लंदन से दो-चार मैडम ही लेकर आता हूं।’ उस पर रमा बोली, ‘मुझे पता है। आप विलायत में दिनरात पुस्तक में ही मुंह लगाकर बैठोगे, लिखते बैठोगे। आपके साथ कोई मैडम नहीं आने वाली।’ भीमराव ने कहा, ‘अरे यह तो सच है। मेरी रामू ही मेरे लिए ठीक है। थोड़ी अज्ञानी, थोड़ी पागल, थोड़ी झगडालू, लेकिन है वो अच्छी।’
लंदन में भीमराव को अत्यंत मितव्ययिता से जीना पड़ रहा था। उसी में मुंबई से रमा का पत्र आया। पत्र में लिखा था- पैसे खत्म हुए। गंगाधर बीमार है। बिल के बिना डॉक्टर आगे की औषधि नहीं दे रहा। यशवंत भी हमेशा बीमार रहता है। हो सके तो पैसे भिजवा देना। नहीं हो तो यहां की चिंता मत करना। मैं यहां समर्थ हूं। आप मन लगाकर पढ़ाई करो और जल्दी लौटने का प्रयास करो।’
रमा के दिए हुए पैसे वैसे ही रखे थे। साहब को जरूरत पड़ने पर भेज सके इसलिए। नणंद-भाभी ने मजदूरी करना शुरू किया। गोबर बेचना शुरू किया। रमा खुद बीमार थी। बच्चे बीमार थे। गंगाधर की बीमारी ने जोर पकड़ा था।
बाबासाहब ने रमा को पत्र लिखा-
प्रिय रामू, नमस्ते
आपका पत्र मिला। गंगाधर बीमार है यह पढकर दु:ख हुआ। नसीब में जो है वह सहना पड़ेगा। तेरी पढ़ाई चल रही है यह सुनकर आनंद हुआ। मैं पैसों की व्यवस्था कर रहा हूं। यहां खाने की भी दिक्कतें हो रही हैं। मेरे पास भेजने के लिए कुछ नहीं है। फिर भी मैं बंदोबस्त करुंगा। लेकिन ज्यादा समय लगा तो तुम्हारे जेवर बेचकर बंदोबस्त करना। वहां आने के बाद तुम्हारे जेवर फिर से बनवा दूंगा। यशवंत, मुकुंद का शिक्षण कैसे चल रहा है यह लिखा नहीं।
मेरी तबीयत ठीक है। चिंता न करें। पढ़ाई खत्म नहीं हुई। जून महीने में आ पाऊंगा ऐसा लगता नहीं। सखू, मंजुला इनके बारे में कुछ लिखा नहीं है। पैसे मिलने के बाद मंजुला और लक्ष्मी की मां को एक-एक साही (मराठी साड़ी) खरीद लेना। शंकर कैसा है? गौरा कैसी है? बाकी सब कुशल,
– भीमराव
गंगाधर की बीमारी में मृत्यु हो गई। मां रमा आक्रोश करती रही। मैं अपनी जिम्मेदारी निभा नहीं पाई। अब साहब को क्या उत्तर दूं? आक्रांतित रमा का दुख देखा नहीं जा रहा था।
कार्यकर्ताओं ने चन्दा जमा किया। दो सौ रुपये जमा हुए। रमा को देने लगे। रमा ने स्पष्ट कहा, ’ऐसे चन्दे के पैसे लेना ना साहब को पसंद आएगा ना हमें। यह पैसे डी. सी. मिशन होस्टेल के विद्यार्थियों के लिए खर्च करें। उन्हें पुरण-पोली (मराठी मीठा व्यंजन) का भोजन दे। साहब ने मेरी यह इच्छा पूरी नहीं की थी। उन्होंने मटन-मछली का भोजन दिया था।
यहां रहते हुए डॉ. आंबेडकरजी ने शुरू किया हुआ ‘मूकनायक’ पत्र भी बंद हो चुका था। कार्यकर्ता घोलप रमाबाई पर गुस्सा हो रहे थे। उसी समय नवल मथेना का आदमी आया। रमाबाई की पूछताछ की। बाबासाहब के कहने पर नवलभाई ने सौ रुपये भिजवाये थे। वह रमाई ने ले लिए। उसी पैसे से रमाई ने बाबासाहब के लिए, पंचाजोडी (एक अंगवस्त्र), एक गद्दी, भोजन की थाली और पटिया खरीदा।
सब ठीक होने के बाद फिर से काम पर जाने लगी। औरतें उनको चिढ़ाती थीं- बैरिस्टर बाई गोबर बेचती है। रमाई उन पर ध्यान नहीं देती थी। एक दिन बाबासाहब का पत्र आया वे बैरिस्टर बन गए। रमाई का उपवास, व्रत, प्रार्थना, पूजा का यह फल है इसका आनंद उनके चेहरे पर झलक रहा था। साहब के आने की राह देख रही थी रमाई। और एक दिन सुबह रामू कर के किसी ने पुकारा। १४ अप्रैल १९२३ का यह दिन था बैरिस्टर बाबासाहब लंदन से लौटे थे। भरे मन से रमा ‘साहब-साहब’ करके पैर पर पकड़ कर रोती रही। बाबासाहब ने प्यार से रमाई को उठाया। परिस्थिति ने दोनों के शरीर पर हल्ला बोला था। बाबासाहब-रमाई के शरीर पर दरिद्रता, कृशता दिखाई दे रही थी। रमाई ने कितना कष्ट झेला है। रमाई के त्याग पर बैरिस्टर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर खड़े थे। बाबासाहब की आंखें भर आईं। उन्होंने आबा से कहा, आबा रामू जीती, मैं हारा। दूसरे को खिलाकर खुद भूखा रहने वाला व्यक्ति बड़ा होता है।
साहब हमेशा लिखते रहते थे। रमाई ने एक दिन साहस करके पूछा, साहब अभी भी आपकी पढ़ाई चल रही है। साहब ने कहा- एक बार इस रुपये का प्रश्न पूरा कर दूं फिर तेरे रुपये का प्रश्न पूरा करुंगा। इसके बाद तुझे कभी गोबर बेचना नहीं पड़ेगा। तुम्हारे जेवर लाकर दे दूंगा। रमा ने कहां मुझे नहीं चाहिए जेवरात, मुझे आप चाहिए, मेरी गृहस्थी के लिए। साहब ने कहा, मेरी जरूरत ज्यादा समाज को है। मुझे उस पर ज्यादा ध्यान देना होगा। १९२३ दिसम्बर बाबासाहब को डॉक्टर ऑफ सायन्स की उपाधि प्रदान हुई। १९२५-२६ को रमाई ने राजरत्न को जन्म दिया। लेकिन एक साल के अंदर उसकी भी मृत्यु हो गई। बाबासाहब की गोद में राजरत्न ने प्राण त्यागे। दोनो पति-पत्नी दु:खी हुए। उसके बाद बाबासाहब का मन गृहस्थी से उजड़ गया। रमाई ने बिस्तर पकड़ लिया।
२० मार्च १९२७ को महाड तालाब के सत्याग्रह से बाबासाहब सामाजिक क्रांति का आंदोलन शुरू किया। इसके बाद सामाजिक आंदोलन में बाबासाहब मग्न रहे। रमाई बीमारी से उठी नहीं। शरीर कृश होता गया। बाबासाहब रमाई की चिंता-सेवा करते थे। रमाई के लिए सारा प्रयास उन्होंने किया लेकिन किसी औषधि का असर नहीं हो रहा था। आखिर २७ मई १९३५ के दिन सुबह ९ बजे रमाई बाबासाहब को छोड़ कर चली गई। बाबासाहब पर यह बहुत बड़ा आघात था।
रमाई धार्मिक थी। पूरी हिंदू पद्धति से अंत्यसंस्कार किया गया। खुद का सर मुंडन किया। बाबासाहब विरक्त तेजस्वी संन्यासी जैसे दिख रहे थे। बाबासाहब का सांत्वन करना कठिन था। एक महामानव की अर्धांगिनी का दायित्व रमाई ने आखिरी सांस तक निभाया। बाबासाहब के संघर्षमय जीवन की तेजोमय, महापुरुष की स्फूर्तिदेवता रमाई थी।
मो. : ९२२५१०४३१२

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