संगीत में बदलाव सौंदर्यवर्धक हो

‘हिंदी विवेक’ का यह संगीतमय दीपावली विशेषांक रसिक पाठकों के हाथ में देते हुए हमें हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। इस विशेषांक का काम करते समय कर्मचारी वर्ग भी तल्लीन हो गया था। मानो संगीत की किसी महफिल में रंगत आ गई हो और स्थल-काल को भूल कर हम सुर-ताल-स्वरों के विश्व से एकरूप हो गए हो। ‘हिंदी विवेक’ के प्रत्येक व्यक्ति का यही अनुभव था।

सभी कलाओं की सम्राज्ञी संगीत कला ही है। मानवी जीवन से वह पूरी तरह एकरूप हो गई है। केवल मनुष्य ही नहीं, बल्कि पूरे चराचर को मोहित करने वाले सुर, ताल, लय का जादू एक चमत्कार ही है। वैसे देखें तो पूरा ब्रह्मांड ही संगीतमय है। प्रकृति का संगीत प्रकृति का सौंदर्य और बढ़ा देता है। जहां ऊंचे-ऊंचे पर्वत हो, आसपास में घने विशाल वृक्ष हो, निर्मल पानी को प्रवाहित करती नदी हो तब नदी किनारे किसी पत्थर पर बैठे; फिर देखें निसर्ग किस तरह संगीत सुनाता है! बहते पानी की कलकल, पेड़ों की सरसराहट, पंछियों के कलरव के निनाद में हम खो जाते हैं। प्रकृति के इसी निनाद से ओमऽकारमय संगीत ने जन्म लिया है। मानो सजीव व निर्जीव तत्वों से परमात्मा ही अपने अस्तित्व का अनुभव करा रहा है। मनुष्य को वह अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाता है। संगीत, गायन, गीत, नर्तन जैसी कलाओं से शायद परमात्मा ही स्वयं को प्रकट करता है। और, हमारा सौभाग्य है कि रसिक बन कर हम उसका पान करते हैं।

मनुष्य ने अपनी भावनाएं प्रकट करने के लिए प्रकृति से प्राप्त सहजस्फूर्त संगीत का उपयोग किया और इसीलिए मनुष्य व संगीत का अटूट नाता जुड़ गया। हमारे जीवन पर थोड़ा गंभीरता से विचार करें तो पता चलेगा कि हम जन्म से मृत्यु तक संगीत में ही जीते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य पर जो सोलह संस्कार किए जाते हैं उनमें से अधिकांश में कहीं न कहीं संगीत होता ही है।

संगीत के उगम स्रोत की खोज करने का अर्थ है मानव जाति के उगम स्रोत की खोज करना। मानव को शब्द-सम्पदा का पता चलने के पूर्व ही संगीत किसी न किसी रूप में अस्तित्व में था। प्रकृति से नई-नई बातें सीखते- सीखते मानव का विकास हुआ। संगीत भी उसका अपवाद नहीं है। प्रकृति की विविध सुप्त शक्तियों से संगीत का ज्ञान उसे होता गया। आगे मानवी जीवन जैसे-जैसे विकसित होता गया वैसे-वैसे ईश्वर, धर्म आदि क्षेत्रों में संगीत का विस्तार होता गया। ईश्वर को प्रसन्न करने के मार्ग के रूप में संगीत को प्राचीन समय से श्रेष्ठता प्राप्त थी। दुख-दर्द भुलाकर मानसिक सुख के अनोखे विश्व में ले जाने की ताकत संगीत में है। अपने यहां तड़के उठकर हाथचक्की पर आटा पीसते समय गाए जाने वाले पद, फौजी बैंड की धुन पर सैनिकों का संचलन ये सब संगीत की शक्ति के परिचायक हैं। मानव में चेतना भरने का काम संगीत करता है। केवल सजीव ही नहीं, शेष चराचर सृष्टि भी संगीत से भरी है। इस वैश्विक संगीत का एक भाग है मानवी संगीत। इस धरती पर विविध देश, धर्म, सभ्यताएं, भाषाएं हैं। उस हर मानव समूह का संगीत विविधतापूर्ण है। फिर भी, संगीत दुनिया को जोड़ने वाली भाषा है।

लोक परंपरा से संगीत को आकार मिला। समय के साथ वह बदलता गया। बदलते समय में मनुष्य का परस्पर में सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी बदलता गया, विस्तारित होता गया। इससे संगीत के प्रवाह एक-दूसरे से मिलते चले गए। लिहाजा, इन बदलते प्रवाहों की अनावश्यक चिंता करने के बजाय उनका विश्लेषण होना जरूरी है। स्थानीय संगीत का प्रवाह सूखने न देकर, नए का स्वागत करना तथा नई पीढ़ी की पसंद- नापसंद को ध्यान में रखा जाना चाहिए। मूलतया प्रकृति से प्राप्त परंतु बाद में व्यवहार में आई संगीत की लोरियों से लेकर संतों के पदों तक, संगीत घरानों से लेकर संगीत के विविध प्रकारों तक, शास्त्रीय संगीत से फिल्मी संगीत तक संगीत के सैंकड़ों प्रवाह हैं। संगीत की इन परंपराओं का जतन करने की हम पर बड़ी जिम्मेदारी है। हाथचक्की पर आटा पीसना बंद हो रहा है तो क्या पद टिकेंगे? महफिलों का संगीत कंसर्ट तक पहुंच गया है, अतः क्या लावणी, मुजरा जैसी कलाएं बचेगीं? बदलते सामाजिक माहौल में उनकी आवश्यकता खत्म हो जाने पर भी कला के रूप में उन्हें किस तरह बचाए रखें? इस संबंध में ऐसे अनेक प्रश्न हैंं।

संगीत मूलतया लोक संगीत ही है। नए सृजन के प्रयत्नों के कारण उस पर नए-नए संस्कार होते गए। इससे संगीत को सौंदर्य, ढब, सुर मिले और संगीत को ‘शास्त्रीय संगीत’ का सम्मान प्राप्त हुआ। बाद में शास्त्रीय संगीत के घराने, उनकी आपसी स्पर्धाएं, विद्यादान में कंजूसी वृत्ति, अपने घराने की स्वतंत्र शैली बनाने की अपवृत्ति इस आपाधापी में शास्त्रीय संगीत का विकास थमने लगा। परंपरा के वृथा अभिमान के कारण वह एक ही ढांचे में ढलने लगी। भारतीय फिल्मी संगीत जितना विकसित हुआ उतना अन्यत्र अनुभव नहीं होता। गीत रचना, संगीत रचना, गायन की विविधतापूर्ण शैली, वाद्यों का इस्तेमाल और परदे पर उसका प्रस्तुतिकरण इसमें पिछले ६०-७० वर्षों में लगातार बदलाव होते गए। फिल्मी संगीत नवीनता का स्वाद हमेशा देता रहा। उसे समाज ने स्वीकार किया यही उसका कारण है। ‘कोलावरी डी’ जैसे अल्प काल जीवित रहने वाले गाने इससे निर्मित हो रहेे हैं। ये गीत क्या वर्तमान समय की आवश्यकता है? यह प्रश्न भले ही पैदा हो, लेकिन शास्त्रीय संगीत आज भी खत्म नहीं हुआ है। हम बारीकी से देखें तो पता चलेगा कि फिल्मी संगीत में भी शास्त्रीय संगीत का उपयोग बढ़ा है।

हिंदुस्तानी संगीत में पाश्चात्य संगीत का योगदान भी महत्वपूर्ण है। जिस तरह हिन्दुस्तानी संगीत मनुष्य की आत्मा को स्पर्श करता है उसी तरह पाश्चात्य संगीत मनुष्य को उत्साहित करता है। पाश्चात्य संगीत की रचना में एक ताल है। अत: उसके वाद्यों के प्रभाव के कारण मनुष्य में ऊर्जा का निर्माण होता है। यह भी सत्य है कि पाश्चात्य संगीत जीवन की नीरसता को दूर कर सकारात्मक ऊर्जा की ओर ले जाने के लिये उपयुक्त है। अत: संगीत हिन्दुस्तानी हो या पाश्चात्य वह सकारात्मकता की ओर ही ले जाता है। हमें हमारा दृष्टिकोण बदलना होगा।

प्रत्येक नवनिर्मिति में पुराने की अच्छाई अवश्य सुरक्षित रहती है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नए-नए प्रयोग होते रहते हैं। ऐसी स्थिति में बार बार पुनरावृत्ति, ढांचापन, उसकी खामियां, अधूरापन नए प्रतिभावानों को खटकता रहता है। इससे संगीत में नए प्रयोग शुरू हो जाते हैं। आगे नवनिर्मिति होती है। संगीत का कुल इतिहास भी हमें यही बताता है। डार्विन का ‘सर्वायवल ऑफ द फिटेस्ट’ सिद्धांत यहां भी लागू होता है। नया है इसलिए नया नहीं टिकता, बल्कि पुराने से अधिक अच्छा होगा तो वह टिक सकता है, यह ध्यान में रखना जरूरी है। इसलिए असली भारतीय संगीत परंपरा का जतन करते समय उसमें बदलाव अधिक सौंदर्यपूर्ण कैसे होंगे इस पर संगीतविदों को ध्यान देना चाहिए।

सामाजिक बदलाव के प्रवाह में विविध भावनाओं का भला-बुरा असर हम देखते रहते हैंं। किसी संस्कृति के दूसरी संस्कृति पर आक्रमण जैसे मामले सामाजिक जीवन में जितनी मात्रा में हुए हैं उतनी मात्रा में संगीत के क्षेत्र में नहीं हुए। अपने हिंदुस्तानी संगीत ने एक बुनियाद रच रखी है। विभिन्न संगीत प्रवाहों का अथवा जाति धर्म के संगीत पर आक्रमणों का भारत में ‘राजनीतिक उद्देश्य’ के लिए कभी विरोध नहीं हुआ। संगीत के प्रवाह की लड़ाई लड़नी हो तो वह संगीत के जरिए ही लड़नी होगी इसका ध्यान संगीत के प्रचारकों, जानकारों को था। इसलिए गायक कौन, संगीतकार किस जाति का, किस समाज का, किस धर्म का इन बातों से संगीतविदों एवं श्रोताओं का भी कुछ लेनादेना नहीं था। पंडित और उस्ताद दोनों संगीत परंपराएं भारत में शांति से चल रही थीं। समाज ने भी उसे मान्य किया है। इसी कारण बड़े गुलाम अली खां एवं ओंकारनाथ ठाकुर एक ही समय में लोकप्रिय रहे हैं।

‘हिंदी विवेक’ का संगीतमय दीपावली विशेषांक रसिक पाठकों को प्रस्तुत करते समय इन सब बातों पर हमने विचार किया है। महफिल में अच्छी रंगत आई तो श्रोता आखरी समय तक डटे रहते हैं और यही रसिक श्रोता महफिल का राजा होता है। ‘हिंदी विवेक’ का पाठक वर्ग भी इसी तरह का है। संगीत, गायन, नृत्य के सौंदर्य बोध का चयन कर वह रसिक पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास प्रतिभाशाली लेखकों के माध्यम से किया गया है। संगीतप्रेमी किसी एकाध मुखड़े पर गायक की वाहवाही कर उसकी कद्र करता है। इसी तरह का अनुमोदन हमारा पाठक वर्ग ‘हिंदी विवेक’ के सम्पादकीय विभाग के प्रयासों को देगा और ‘हिंदी विवेक’ के आगामी मार्गक्रमण में प्रोत्साहन देगा यह उम्मीद है।

सम्पादकीय मंडल ने जब यह तय किया कि यह विशेषांक संगीत पर आधारित होगा तब विषय-वस्तु की पूरी जनकारी लेने के लिये तथा सम्पादकीय दृष्टिकोण से इसे समृद्ध करने के लिये हमने इस क्षेत्र में कार्यरत लोगों से मार्गदर्शन लेने का निर्णय लिया। संपादकीय मंडल के विचार को कार्यान्वित करने और मूर्त रूप प्रदान करने के उद्देश्य से श्रीमती माधवी नानल(मुंबई), डॉ. अखिलेश सप्रे(जबलपुर) और डॉ.श्रीमती स्मिता सहस्रबुद्धे(ग्वालियर)से संपर्क किया। इन तीनों के उत्साहवर्धक सहयोग से ही हमें अंक को सम्पादकीय दृष्टिकोण से सुशोभित करने में सफलता मिली।

दीपावली विशेषांक के दौरान अनेकों ने अपना कार्य समझ कर सहयोग किया है। हितचिंतकों, लेखकों, अनुवादकों, मुखपृष्ठकार इन सभी को उनके प्रति आभार प्रकट करना शायद अच्छा न लगे, इसलिए केवल नामोल्लेख किया है। जिनके अर्थपूर्ण सहयोग से हम यह दीपावली विशेषांक प्रकाशित कर सके उन हमारे विज्ञापनदाताओं, हितचिंतकों, दानदाताओं, ग्राहकों, पाठकों सब को कृतज्ञतापूर्वक अभिवादन और सभी को दीपावली व नूतन वर्ष की शुभकामनाएं!

Leave a Reply