संघ व गोड्से के सम्बन्ध की अंतर्कथा  

गांधी जी की हत्या के पश्चात के प्रत्येक दशक में दस पांच बार गोएबल्स थियरी के ठेकेदारों ने ये प्रयास सतत किये हैं कि गांधीजी की हत्या को संघ के मत्थे मढ़ दिया जाए जिसमें वे हर बार असफल रहें हैं। अब देश भर में गांधी व गोड़से को लेकर नया विमर्श प्रारम्भ है, इस क्रम में ऐतिहासिक साक्ष्यों को पढ़ना आवश्यक हो जाता है। सच यह है कि नाथूराम गोड़से संघ की विचारधारा के साथ संतुलन नहीं बैठा सका। गोड़से संघ को कट्टर हिन्दूवादी संगठन समझकर उससे जुड़ा था, किन्तु बाद के वर्षों में संघ के विषय में गोड़से की सोच बदलनें लगी और तब गोड़से न केवल संघ से अलग हुआ बल्कि एक हद तक संघ का मुखर विरोधी भी बना। हिंदूवादी विषयों में नाथूराम गोड़से अतिवादी था जबकि संघ व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखकर हिंदूवादी विषयों को धैर्यता पूर्वक आगे बढ़ाने में विश्वास रखता था। यही कारण था कि गोड़से के समाचार पत्र ‘हिन्दू राष्ट्र’ में संघ विरोधी आलेख प्रकाशित होते रहते थे। गोडसे ने संघ की आलोचना करते हुए सावरकर जी को पत्र भी लिखा था जिसमें उसनें संघ को हिन्दू युवाओं की शक्ति को बर्बाद करनें वाला संगठन बताया था। एतिहासिक तथ्यों से स्थापित सत्य है कि प्रारंभ में संघ से प्रभावित रहा गोड़से बाद के वर्षों में संघ का घोर और मुखर विरोधी बन गया था। गांधी जी की हत्या के समय केन्द्रीय गृह सचिव रहे आर.एन. बबैनर्जी भी गोड़से के संदर्भ में यही राय रखते थे। गांधीजी की हत्या की जाँच के लिए गठित कपूर आयोग के समक्ष दी गई गवाही में आर. एन. बनर्जी ने कई सारे तथ्यों के साथ इस बात को सशक्त रूप से व्यक्त किया था। बनर्जी ने यह भी कहा था कि गांधी जी के हत्यारे संघ की गतिविधियों से असंतुष्ट रहनें वाले लोग थे। आरएसएस प्रारंभ से ही खेलकूद, शारीरिक व्यायाम के साथ राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाता रहा है जबकि नाथूराम गोड़से इसे व्यर्थ बताता था और वह अधिक उग्र और हिंसक गतिविधियों में विश्वास रखता था, (कपूर आयोग रिपोर्ट खंड 1 पृष्ठ 164) ।
यह अवश्य सत्य है कि नाथूराम गोड़से और उसके साथियों ने त्वरित आवेश व क्रोध में नहीं अपितु जान-बूझकर, षड्यंत्रपूर्वक और चित्तलीन होकर म. गांधीजी की हत्या की थी। म. गांधी जी की हत्या के प्रकरण में न्यायालय में दोषियों ने इसका व्यवस्थित जवाब भी दिया है जो कि एक अलग और व्यापक विमर्श का विषय है। महत्वपूर्ण तथ्य यही लगता है कि म. गांधी जी की हत्या के दोषियों के मन में इस बात का तात्कालिक क्रोध था कि मुसलमानों ने भारत का विभाजन करवाया, फिर भी मुसलमानों, उनके संगठन मुस्लिम लीग तथा पाकिस्तान के प्रति गांधीजी ने अतीव व अतर्कसंगत रूप से नरम रुख अपनाया था। गांधी जी के हत्यारे, गांधी जी के उस कार्य को राष्ट्रद्रोह मानते थे जिसमें गांधीजी ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रु. का मुआवजा व जनसँख्या के अनुपात से अधिक भूमि देनें की जिद की थी और नहीं देनें पर अनशन करनें की धमकी तक दे दी थी। उस समय के राजनैतिक हालातों में जिसमें पाकिस्तान हिन्दुओं की लाशों से भरी रेलगाड़ियां भारत भेज चुका था,पाक में रहनें वाले हिन्दुओं पर सतत दुर्दांत अत्याचार हो रहे थे, पाकिस्तान कश्मीर पर हमला कर रहा था तब पाकिस्तान को 55 करोड़ देनें की गांधीजी की जिद और न देनें पर अनशन की धमकी ये सब कुछ हत्यारों की उत्तेजना का कारण बना था। एक सुविचारित षड्यंत्र, विद्वेष व राजनैतिक विरोध के चलते आरएसएस का नाम गांधी जी की हत्या के मामले में समय समय पर लिया जानें लगा। यद्दपि देश की जनता ने इस झूठ पर कभी भी विश्वास नहीं किया व संघ के हिन्दू राष्ट्रवाद को इसीलिए समय से साथ भारतीय जनता का प्रतिसाद सतत निरंतर बढ़ता गया। गांधी जी की हत्या के पश्चात जो प्राथमिकी दर्ज कराई गई वह भी संघ के इस कांड से कोई सम्बंध न होने को प्रमाणित करती है। यद्दपि इस एफआईआर क्र. 68, 30.01. 48 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का कहीं कोई जिक्र नहीं है तथापि प्रधानमंत्री नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी व अब राहुल गांधी तक परंपरागत रूप से गांधी हत्या में आरएसएस का नाम लेते रहे हैं। इंदिरा गांधी ने भी वर्ष 1965 में गांधी जी की हत्या में संघ की भूमिका साफ़ होती देखकर पुनः षड्यंत्र पूर्वक जीवनलाल कपूर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया। इस आयोग के गठन के पीछे संघ के प्रति दुर्भावना ही काम कर रही थी। संघ के लोगों को इन कांग्रेसी और वामपंथी नेताओं द्वारा समय समय पर अनर्गल भाषणों से सामाजिक प्रताड़ना भी सतत दी जाती रही। गांधी जी की हत्या के तुरंत बाद देश भर में संघ के लोगों पर छापे पड़े, गिरफ्तारियां भी हुई। तत्कालीन गृह मंत्री वल्लभभाई पटेल इनके संदर्भ में निरंतर चैतन्य बने रहे और संघ के लोगो पर पड़ने वाले छापो गिरफ्तारियों और उसके परिणामों व संघ के लोगों की गांधीजी की हत्या में संलिप्तता का गहन अध्ययन करते रहे। व्यापक छानबीन व जांच के बाद वल्लभभाई पटेल को यह
तथ्य तरह से स्पष्ट होने लगा कि गांधीजी की हत्या में संघ की कोई भूमिका नहीं है। सरदार पटेल के इस निर्णय पर पहुचने व इस संघ के नितांत असंलिप्त रहने के तथ्य को मंचो से बोलने से नेहरू वल्लभ भाई से नाराज हुए और उनको इस संदर्भ में एक पत्र भी लिखा। नेहरू ने अपने पत्र में आरोप भी लगाया कि दिल्ली पुलिस और उसके अधिकारी संघ से सहानुभूति का भाव रखते हैं अतः संघ के लोग गिरफ्तार नहीं हो पा रहे हैं। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के इस पत्र के उत्तर में सरदार पटेल ने 27.02.48 को प्रधानमंत्री नेहरू को जो पत्र लिखा वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। पत्र में सरदार पटेल ने नेहरू को लिखा कि गांधीजी की हत्या के सम्बन्ध में चल रही कार्यवाही से मैं पूरी तरह अवगत रहता हूं, सभी अभियुक्त पकड़े गए हैं तथा बयान हो गए हैं, उनके बयानों से स्पष्ट है कि यह षड्यंत्र दिल्ली में नहीं रचा गया; दिल्ली का कोई भी व्यक्ति षड्यंत्र में शामिल नहीं है। षड्यंत्र के केन्द्र बम्बई, पूना, अहमदनगर तथा ग्वालियर रहे हैं। यह बात भी असंदिग्ध रूप से उभरकर सामने आई है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इससे कतई सम्बद्ध नहीं है। यह षड्यंत्र हिन्दू सभा के एक कट्टरपंथी समूह ने रचा था। यह भी स्पष्ट हो गया है कि मात्र 10 लोगों द्वारा रचा गया यह षड्यंत्र था और उन्होंने ही इसे पूरा किया, इनमें से दो को छोड़ सब पकड़े जा चुके हैं। इस महत्वपूर्ण पत्राचार से पता चलता है कि सब कुछ स्पष्ट होने के बाद भी कांग्रेसी और कुछ पिछलग्गू वामपंथी किस प्रकार दुर्भावना से ग्रस्त होकर संघ को गांधी हत्या के मामले में अनावश्यक घसीटते रहे हैं।

 

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