टूटे जाति और धर्म के समीकरण

2019 के आए चुनाव परिणाम बेहद महत्वपूर्ण हैं। इस चुनाव में खासतौर से उत्तर प्रदेश एवं बिहार में जहां जातीय समीकरणों का गठजोड़ टूटा है, वहीं बिहार में राजद को बड़ा झटका लगा है। सपा-बसपा-रालोद एवं राजद के मुस्लिम  ध्रुवीकरण के प्रयास भी ध्वस्त हो गए हैं। इस चुनाव में जहां कांग्रेस और क्षेत्रवाद का पतन हुआ, वहीं पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के मुस्लिम तुष्टिकरण को भी धक्का लगा है। मायावती इस भ्रम में थीं कि जाति व धर्म के बेमेल गठबंधन के चलते वे 50-60 सीटें हासिल करके दिल्ली की गद्दी पर सिंघासनारूढ़ हो जाएंगी। लेकिन देश के भविष्य की राजनीति को पलीता लगाने वाले इन मंसूबों पर नरेंद्र मोदी के प्रबल राष्ट्रीय ज्वार ने पानी फेर दिया। तीन दशक बाद बेमेल गठबंधन की राजनीति को नकारकर भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ एक बार फिर केंद्र की सत्ता पर काबिज हो गई है। भाजपा ने 61 सीटें हासिल करके महागठबंधन की हवा निकाल दी। राहुल गांधी अपनी परंपरागत सीट अमेठी से स्वयं चुनाव हार गए। जाहिर है, एक बार फिर देश के मतदाताओं ने मोदी के नेतृत्व को तहेदिल से स्वीकार कर लिया है। राजग को मिली 348 सीटें इसका प्रमाण हैं।

सवर्ण नेतृत्व को दरकिनार कर दलित और पिछड़ा नेतृत्व तीन दशक पहले इसलिए उभरा था, जिससे लंबे समय तक केंद्र व उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों की सत्ता पर काबिज रही कांग्रेस शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय के जो लक्ष्य पूरे नहीं कर पाई थीं वे पूरे हों। सामंती, बाहूबली और जातिवादी कुच्रक टूटें। किंतु ये लक्ष्य तो पूरे हुए नहीं, उल्टे सामाजिक शैक्षिक और आर्थिक विषमता उत्तोत्तर बढ़ती चली गई। सामाजिक न्याय के पैरोकारों का मकसद धन लेकर टिकट बेचने और आपराधिक पृष्ठभूमि के बाहुबलियों के हित सरंक्षण तक सीमित रह गई। नतीजतन लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा 2014 के चुनाव बाद किए गए सर्वे के मुताबिक सवर्ण और निम्न जातीय वर्ग के बीच की जो पिछड़ी जातियां हैं, उनमें भाजपा को जो 14 प्रतिशत वोट मिलता रहा था, वह बढ़कर 37 प्रतिशत हो गया था। यह वोट भाजपा को 2019 में भी मिला है। इसी कारण वह 61 सीटें जीतने में सफल हो पाई है। बीते कुछ सालों में भाजपा और संघ ने मिलकर उन दलितों को भी साधने का काम किया है, जो डॉ. आंबेडकर और बौद्ध धर्म के प्रभाव के चलते हिंदुत्व से किनारा कर रहे थे। संघ के बौद्धिक वर्ग ने आंबेडकर के उन विचारों को नए ढंग से परिभाषित किया, जो दलितों को हिंदुत्व के करीब लाते हैं।

आदिवासी और दलित वनवासियों के लिए संघ ने वनवासी विद्यालय और छात्रावास बड़ी संख्या में खोलकर इन्हें नि:शुल्क शिक्षा देने का अभूतपूर्व काम किया है। इन संस्थानों से निकले युवा हिंदुत्व को महत्व देते हुए उसकी गरिमा एवं उदारता को स्वीकार रहे है। हिंदु राष्ट्रवाद के देशव्यापी उभार ने भी उन जातीय व सामाजिक प्रतीकों की चमक धुंधली की है, जो अब तक अपने को हिंदुओं द्वारा शोषित मानकर चल रहे थे। फलत: बहुसंख्यक समुदाय के जो लोग हिंदु से पहले स्वयं को एक जाति समूह के रूप में देखते थे, वे पारंपरिक हिंदुओं के रूप में स्वयं को देखने लगे हैं।

बसपा को वजूद में लाने से पहले काशीराम ने लंबे समय तक दलितों के हितों की मुहिम डीएस-4 के जरिए लड़ी थी। इसीलिए तब बसपा के कार्यकर्ता इस नारे की हुंकार भरा करते थे, ‘ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर चोर, बाकी सारे डीएस-फोर।‘ इसी डीएस-4 का सांगठनिक ढांचा खड़ा करने के वक्त बसपा की बुनियाद पड़ी और पूरे हिंदी क्षेत्र में बसपा की सरंचना तैयार किए जाने की कोशिशें ईमानदारी से शुरू हुईं। काशीराम के वैचारिक दर्शन में डॉ भीमराव से आगे जाने की सोच तो थी ही दलित और वंचितों को करिश्माई अंदाज में लुभाने की प्रभावशाली शक्ति भी थी। यही वजह थी कि बसपा दलित संगठन के रूप में मजबूती से स्थापित हुई, लेकिन कालांतर में मायावती की पद व धनलोलुपता ने बसपा के बुनियादी ढांचे में विभिन्न जाति व धर्मवादी बेमेल प्रयोगों का तड़का लगाकर उसके मूल सिद्धांतों के साथ खिलवाड़ कर डाला। इसी फॉर्मूले को अंजाम देने के लिए मायावती ने 2007 के विधानसभा चुनाव में दलित और ब्राह्मणों का गठजोड़ करके उत्तरप्रदेश का सिंहासन जीत लिया था। लेकिन 2012 आते-आते ब्राह्मण व अन्य सवर्ण जातियों के साथ मुसलमानों का भी मायावती की कार्य-संस्कृति से मोहभंग हों गया। नतीजतन सपा ने सत्ता की बाजी जीती और फिर 2017 में मोदी ने योगी को राज्य की कमान का हकदार बना दिया।

2019 में एक बार फिर मायावती ने अखिलेश यादव को साथ लेकर सोशल इंजीनियरिंग की रणनीति चली थी। दरअसल प्रदेश में दलित 22, मुस्लिम 19 और यादव 18 प्रतिशत मतदाता हैं। लिहाजा यह गठबंधन राज्य की अधिकतम सीटें जीत लेगा और नतीजतन उनके लिए दिल्ली का रास्ता खुल जाएगा। वैसे भी देश में यह कहावत फलीभूत होती रही है कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता उप्र से होकर गुजरता है। इसी रास्ते से मोदी एक बार फिर बनारस से जीतकर दिल्ली की गद्दी पर आसीन बने रहेंगे। अमित शाह की ठोस रणनीति और मोदी के राष्ट्रवाद के चलते भाजपा ने उन तमाम अटकलों को झुठला दिया, जो उसकी जमीन खिसकती दिखा रहे थे। इस बार 2014 की तुलना में भाजपा की सीटें कम जरूर हैं, बावजूद सपा-बसपा गठबंधन अथवा कांग्रेस को दिल्ली की ओर जाने का रास्ता पूरी तरह बंद हो गया है। पिछले चुनाव में पांच सीटें जीतने वाली सपा महज पांच सीटों पर ही सिमट गई, जबकि 2014 में एक भी सीट नहीं जीतने वाली बसपा सपा के सहयोग से 11 सीटों पर विजयी रही। इस स्थिति को देखते हुए तय है कि सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन भविष्य में बना रहने वाला नही है। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश, डिंपल यादव, भाई धर्मेंद यादव एवं अजय यादव को भी हार का सामना करना पड़ा है। अपना दल जरूर पिछला परिणाम दोहराने में सफल रहा है। गोया, नतीजों का लब्बोलुआब यही है कि जाति और धर्मवाद के नाम पर गठजोड़ की राजनीति को नकारकर मतदाता ने जता दिया है कि उसके लिए जाति व धर्म से पहले देश की एकता, अखंडता व संप्रभुता जरूरी है।

यही वजह रही कि उप्र व बिहार में राजनीति के क्षेत्रीय क्षत्रपों का खेल लगभग खत्म हो गया है। क्योंकि इनकी राजनीति का मुख्य आधार जाति, धर्म और क्षेत्रवाद रहा है। इन क्षत्रपों ने अपनी जीत के लिए सपा, बसपा, कांग्रेस, भाजपा एवं राजद से गठबंधन किए। कुछ क्षत्रप अपने बूते भी चुनाव लड़े। ऐसे आधा दर्जन से भी ज्यादा सूरमा मोदी लहर में परास्त होकर हार का शोक मना रहे है। केवल अपना दल की अनुप्रिय पटेल ही क्षेत्रीय क्षत्रप के रूप में जीत का सेहरा अपने सिर बांधने में सफल हुई है। सपा से अलग हुए मुलायम के भाई और अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी, बाबूसिंह कुशवाहा का जनअधिकार मंच, विधायक रघुराज प्रताप सिंह की जनसत्ता लोकतांत्रिक पार्टी और महान दल तथा कृष्ण पटेल के दल के उम्मीदवार इतने मत भी हासिल नहीं कर पाए हैं कि अपनी जमानत बचा लेते। राज्य में सबसे ज्यादा दुर्गति सुहेल देव भारतीय समाज पार्टी की हुई है। इसके अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर को न केवल योगी आदित्यनाथ सरकार में मिला मंत्री पद गवांना पड़ा, बल्कि उनके सभी प्रत्याशियों की जमानतें भी जब्त हो गईं। इन परिणामों के बाद ऐसा लग रहा है कि जो क्षेत्रीय दल केवल जाति और धर्म की राजनीति करते रहे हैं, उनका भविष्य मोदी के रहते राजनीति में उज्जवल बना रहने वाला नहीं है। वैसे भी इस चुनाव में मिली राजग को बड़ी जीत ने तय कर दिया है कि जाति और धर्म की राजनीति भविष्य में चलने वाली नहीं है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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