‘रुग्ण नारायण’ का बसेरा सेवाधाम आश्रम

 

शहर की चहल-पहल से दूर, अपने जीवन के समस्त सुखों व विलासिता के भंवर से बाहर निकल कर एक व्यक्ति समाज के हर उस व्यक्ति को अपना बनाने हेतु उत्सुक है, जिसे तथाकथित सभ्य समाज तिरस्कार की भावना से देखता है। वह व्यक्ति है भाईजी अर्थात सुधीर गोयल और वह स्थान है उज्जैन के निकट स्थित उनका सेवाधाम आश्रम, जहां प्रत्यक्ष ‘रुग्ण नारायण’ के आप दर्शन कर सकते हैं।
गे हूं के हरेभरे खेतों को पार करते ही माथे पर एकाएक उभर आने वाले गुलम्मे की ही भांति ऊंची नीची पठारी पर अवस्थित आश्रम की चहारदीवारी दिख पड़ी। पठार के ठीक नीचे छोटे से ‘ गंभीर बांध ’ और आसपास फैले ऊसर को देखते – देखते कब हमारी कार गेट के अंदर घुस गई, पता ही न चला। सामने एक व्यक्ति खादी बंडी पहने दिखाई दिए। सारथी महोदय धीरे से फुसफुसाए, यही भाई जी हैं। भाई जी का नौ बजे तक मौन व्रत था। अर्थात् अगले सवा घंटे मेरे अपने थे। मन का पत्रकार वाला हिस्सा सजग हो उठा। समय का भरपूर इस्तेमाल करने के लिए खुद ही घूमना शुरू कर दिया। कुछ ही समय में अपने आपको तरह – तरह के अपंग ( दिव्यांग ) जनों व मनोरोगी जनों से घिरा पाया। मन के किसी कोने में डर की एक पतली सी रेखा फड़फड़ाने लगी कि, कहीं कोई हमला न कर दे। अगल – बगल कोई कर्मचारी भी नहीं दिख रहा था। सहसा मुझे लगा कि कोई मेरा कुर्ता खींच रहा है। व्हीलचेयर पर अधलेटा सा पैर विहीन दिव्यांग था तथा उसके बगल में खड़ी एक मूक बधिर महिला खिलखिलाकर हंस रही थी। नहीं, शायद मेरे पीले पड़ गए चेहरे का मजाक उड़ा रही थी। मैं धीरे से उसके सामने बैठ गया। इतने में ही लगभग बीस पच्चीस जन मेरे चारों ओर घेरा बना कर खड़े हो गए। चारों तरफ से उठ रहे उनके अस्फुटित शब्द भले ही मेरे कानों को कोई शब्द न दे पा रहे थे पर हृदय के अंतःस्थल को एक अनूठी सी सिहरन व आनंद दे रहे थे। कुछ ही देर बाद मैं उनके साथ गेंद खेल रहा था। यह ‘ अंकित ग्राम सेवाधाम आश्रम ’ का पहला उपहार था मेरे लिए।

कृष्ण – सुदामा की शिक्षा स्थली महाकाल की पावन नगरी उज्जैन से लगभग १२ किलोमीटर दूर स्थित गंतव्य मानसिक तौर पर मेरे लिए काफी दुष्कर प्रतीत हो रहा था। पत्रकारिता में एक ठीकठाक अरसा बिता लेने के बाद ‘ आश्रम ’ शब्द के प्रति वितृष्णा भले ही न पैदा हो पर एक संशय का भाव अवश्य आ जाता है। इसलिए तमाम आध्यात्मिक उपभावों के बावजूद इनसे संबंधित व्यक्तियों के सहवास से बचता ही रहा। उसमें भी यदि ‘ अनाथ ’ उपसर्ग के तौर पर जुड़ जाए तो ये भावनाएं और प्रबल हो जाती हैं। कुछ साल पूर्व ही संवासिनी कांड ने हम बनारसियों की अंतर्आत्मा को झकझोर कर रख दिया था। दुनिया भर के अखबारों में हजारों पेज काले हो गए। मामला संसद में भी उठा। सीबीआई जांच हुई। डॉ . नीरजा माधव ने एक बेहतरीन उपन्यास लिख मारा। पर मेरे लिए यह नौकरी का प्रश् ‍ न था। इसलिए जाना मजबूरी थी। कोढ़ में खाज यह कि शेड्यूल इतना कसा हुआ कि, मंदिर के सामने से गुजरा पर ‘ महाकाल ’ के दर्शनों का लाभ मिलने की संभावना बिलकुल नहीं थी।

आश्रम के कर्ता – धर्ता ‘ भाईजी ’ सुधीर गोयल एक विशुद्ध वणिक परिवार से ताल्लुक रखते हैं। साथ ही, उनकी पत्नी मध्यप्रदेश के मशहूर ‘ पोद्दार परिवार ’ की संतान हैं। यह समाज देशभर में अपने सामाजिक कार्यों तथा दान पुण्य के लिए विख्यात है पर ‘ भाईजी ’ इन सीमाओं से काफी आगे निकल गए। ३२ वर्ष पूर्व आर्थिक मदद की सीमा से आगे जाकर नारायण नामक एक व्यक्ति को अपने कार्यालय उठा लाए। मल – मूत्र से सने मंदबुद्धि व कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति को देख कर सबने नाक भौं सिकोड़ी तो ले जाकर गैरेज में रख दिया और सेवा सुश्रुषा करने लगे। धीरे – धीरे उनके नए कुनबे की जनसंख्या बढ़ने लगी तो समाज के तानों तथा परिवार के बढ़ते दबाव ने कुछ अलग करने के लिए विवश ( वास्तविक अर्थों में प्रेरणा ) कर दिया। तब तक वे देश के तमाम समाज सुधारकों व सेवा क्षेत्र में कार्य कर रहे महापुरुषों के संसर्ग का भरपूर लाभ ले चुके थे। उन्हें यह भान भी हो चुका था कि भविष्य की राह कैसी बनाए रखनी है। पर अभी भी लोगों को उनका सेवाक्षेत्र में इतना डूब कर कार्य करना थोड़ा अटपटा सा लगता था। प्रख्यात् समाजसेवी बाबा आमटे तो बहुधा परिहास करते थे कि, ‘‘ तुम एक वणिक पुत्र हो। तुम्हारा धर्म व्यापार करना है। उससे प्राप्त होने वाले आय का हिस्सा सेवाभावी संस्थाओं को दान दे दो। इस प्रकार तुम दोनों कर सकोगे।’’

पर नियति को कुछ और ही मंजूर था। हिंदी की एक मशहूर लोकोक्ति है –

लीक छांड़ि तीनों चलें, शायर – सिंह – सपूत॥

उन्होंने अपनी राह चुन ली थी। एकाएक समूचा व्यवसाय समेट, पूरी संपत्ति बेचकर उज्जैन से कुछ दूर अंबोदिया गांव की ऊबड़ – खाबड़, जंगली जानवरों, कटीली झाड़ियों से आच्छादित, जहां पीने का पानी भी दुर – दराज से लाना होता था, ऐसी भूमि पर अपनी कुटिया जमा ली। कुछेक सालों के भीतर ‘ गंभीर बांध ’ बन जाने के कारण हरियाली आ गई। पर उस समय वहां उस पथरीली जमीन पर आश्रम बनाना उनकी मजबूरी थी। गोयल जी के ही शब्दों में, ‘‘ उतने पैसों में ज्यादा अच्छी भूमि की कल्पना बेमानी थी।’’ धीरे – धीरे उस चहारदीवारी के भीतर एक स्वर्गिक गांव बसने लगा जहां देश भर के तमाम हिस्सों से आए बहिस्कृत – तिरस्कृत जनों का अपना हंसता – खेलता परिवार था।

यह परिवार भी कुछ – कुछ संयुक्त भारतीय परिवारों सा ही था। बुजुर्गों से लेकर नवजात शिशुओं तक का जमघट। देश – दुनिया से बेखबर गोयलजी अपने पांच वर्षीय बेटे अंकित के साथ अपने इस कुनबे को बढ़ाने तथा इनके चेहरों पर हास्य की रेखा लाने में अपने को झोंक रहे थे। पर शायद प्रकृति ने अभी एक बड़ा इम्तहान लेकर आगे आने वाले संघर्षों की रूपरेखा तय करनी शुरू कर दी थी। दो साल बाद ही अंकित ने अल्प बीमारी के बाद आंखें मूंद लीं। पर सबसे बड़ी बिडंबना यह कि बाकी के कुनबे की देखभाल के चक्कर में वे अपने इकलौते बेटे की आवश्यक चिकित्सा न करवा सके। वह बेटा, जो उनका सब से भरोसेमंद सहायक भी था। आज भी उस आश्रम में अंकित के लगाए तमाम वृक्ष सीना ताने खड़े दिख जाएंगे, आरोही जड़ वाला दुर्लभ पीपल वृक्ष भी। इसी बीच लगातार क्रम में बाबा आमटे, मदर टेरेसा जैसी विभूतियां भी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष आशीर्वाद तथा मानसिक संबल देती रहीं। बाबा रणछोड़दास की अनिर्वचनीय कृपा अभी भी आश्रम की हवा में घुली रहती है। सु
धीर गोयलजी के ही शब्दों में,

’‘ मानव तन खासकर रुग्ण, वंचित, बहिष्कृत, संक्रामक रोगों से ग्रसित जन की सेवा ही सर्वोपरि कही जा सकती है ; क्योंकि सेवक और सेवित दोनों के संतुष्ट होने पर ही सेवा सार्थक मानी जा सकती है। ईश् ‍ वर भी आपसे तभी प्रसन्न होगा जबकि आप प्राणी सेवा के प्रति सजग हैं। अन्यथा आप द्वारा मंदिरों में दिया गया दान मायने नहीं रखता। सेवा द्वारा हम किसी पर उपकार नहीं कर रहे हैं। वहां आकर बाकी सारे धार्मिक क्रिया – कलाप गौण हो जाते हैं। जब तक मनुष्य के मन में संवेदनाएं जागृत नहीं होंगी तब तक सेवा भाव पैदा ही नहीं हो सकता। वर्तमान समय में संवेदनाओं व जीवन मूल्यों का लगातार ह्रास हो रहा है। ऐसे में आवश्यक हो जाता है कि नई पीढ़ी के मन में सेवा भाव के चिरंतन प्रवाह के बीज रोपे जाएं ताकि असमर्थ, रुग्ण, मानसिक रोगों से ग्रस्त परिवार जनों को लोग सड़कों तथा आश्रम पर न छोड़ जाएं। गरीब व आर्थिक रूप से असमर्थ लोगों का पीड़ित परिवार जनों को छोड़ देना तो कुछ समझ में आता है पर किसी रिटायर्ड वायुसेना अफसर का विक्षिप्तावस्था में किसी ‘ सेवाधाम ’ में पाया जाना काफी खतरनाक है। एक पिता – पुत्र की जोड़ी को तो घरवालों ने वर्षों से जंजीरों में जकड़ कर रखा था। ३० वर्षीय पुत्र के शरीर पर वस्त्र का नामोनिशान तक न था। घर वालों के अनुसार, पहनाते ही कुछ समय के अंदर कपड़े फाड़कर फेंक देता है। पर मेरे यहां लगभग पांच छः साल रहने के दौरान उसने एक बार भी कपड़े नहीं उतारे। कभी सीखचों में बांधने की नौबत भी नहीं आई। कारण साफ है। खुद के परिवार से उन्हें ‘ घर वाला प्रेम ’ नहीं मिला, जिसकी यहां पर कोई कमी न थी।’’

भाईजी के साथ आश्रम भ्रमण के दौरान भुज के राजू पागजी मिले। वहां २००१ में आए भूकम्प के बाद के पुनर्वास में सेवाधाम की टीम ने लगभग १३ महीनों तक कार्य किया था। उसी दौरान एक पांच मंजिला मलबे के नीचे मिले थे, राजू पागजी। पूरा परिवार खत्म हो चुका था। दोनों पैर काटे गए फिर भी बचने की संभावना नगण्य थी। भाईजी उन्हें अपने साथ लेकर आए। उनकी सुनने की क्षमता वापस न लौट सकी पर उन्होंने आश्रम के लोगों के कपड़ों की मरम्मत का जिम्मा ले लिया है। राजू भाई ने मुझे भी अपने हाथों से बनाया हुआ भूदानी झोला दिया। उस समय उनकी आंखों की चमक बहुत कुछ कह रही थी। मानसिक तथा टी . बी . के रोगियों का वार्ड सतगुरु प्रेमाश्रय पार करते ही हम गौशाला के सामने पहुंच गए थे। अचानक गोयलजी चहक उठे, यही है हमारा अर्जुन ! यह था गोशाले का सर्वेसर्वा, जिसकी आहट पाते ही सभी गाएं एकसाथ रंभाने लगती थीं। वह भी लगभग दस सालों तक जंजीरों में बंधा रहा था। उसके घर वालों को लगता था कि क्षेत्र के सारे भूत, चुड़ैलें, जिन्न वगैरह उस एक अकेले शरीर के अंदर समा गए हैं। थोड़ा आगे चलने पर १९५९ – ६० के आल इंडिया कुश्ती चैम्पियन मधुकर दशरथ कदम भी मिले। ९५ साल की उम्र में भी उनकी याददाश्त, फुर्ती देखने लायक थी। उन्होंने मुझे एक स्वरचित कविता भी सुनाई। पर भंडार गृह की पारो मां आज नाराज थीं। आश्रम से नहीं, उस घर के नए मालिकों से जिसे कभी उन्होंने बड़े लाड़ से संवारा था। आगे अभी महिला वार्ड, बच्चों का वार्ड सहित कई अन्य भवन भी थे।

आखिर में हम ‘ अवेदना केंद्र ’ पहुंचे, जहां वर्षों से बिस्तर पर पड़े बच्चे, बूढ़ी महिलाएं तथा उनकी सेवा में जुटी आश्रम की अन्य महिलाएं थीं। डिडवानिया रतनलाल चैरेटीबल ट्रस्ट मुम्बई के सहयोग से बन रही इस इमारत के पूर्ण होने की भी एक कथा है। कश्मीर के बिजनेसमैन त्रिलोकीनाथ वली, जो कि आश्रम को बीच – बीच में आर्थिक मदद करते रहते थे, अपने बेटे के साथ तीन दिन ठहर गए। इस दौरान उन्हें यहां का का ताना – बाना तथा दिक्कतें समझ में आईं। यहां से जाने के कुछ ही दिनों के अंदर अपनी गाजियाबाद की संपत्ति बेच कर पूरा पैसा इस ‘ अवेदना केंद्र ’ को बनवाने के लिए दे दिया। यहां पर बहुत सारे ऐसे मरीज दिखे जो सालों से बिस्तर पर पड़े हैं। पर किसी के शरीर पर एक भी घाव नहीं है। एक बच्ची के नाना पांच बार सांसद रह चुके हैं। इसी भवन में चार दिनों की प्यारी सी बच्ची का भाईजी ने खड़े – खड़े नामकरण किया – ‘ सर्वेश् ‍ वरी ’ अर्थात् जगत माता। सर्वेश् ‍ वरी की मां एक विक्षिप्त आदिवासी महिला है। १५ दिन पहले पुलिस के माध्यम से आश्रम आई इस महिला ने १ फरवरी को समय से पूर्व इस कमजोर बच्ची को जन्म दिया था। सर्वेश् ‍ वरी जैसे पचासों शिशुओं के लिए मां के सारे कर्तव्य कांता भाभी के निर्देशन में जमुना के जिम्मे आते हैं जो आश्रम के पूर्व पीआरओ शत्रुघ्न वर्मा की पत्नी है। हमारे सीईओ अमोल पेडणेकर बताते हैं कि उनके पिछले प्रवास के समय उनकी उस मात्र ३० इंच लम्बे विलक्षण प्रतिभाओं के स्वामी से भेंट हुई थी। वह कई विषयों का ज्ञाता तथा बेहतरीन आशु कवि भी था। गोयलजी के लिए उसका जाना दाहिना हाथ बेकार हो जाने के मानिंद था। इसी केंद्र में हेमा ( डबल एम . ए . गोल्ड मेडलिस्ट ) सहित कई पढ़ी – लिखी महिलाएं भी हैं।

लगभग १३ साल की उम्र में उज्जैन के ही अजनोटी गांव में विवेकानंद विद्यालय स्थापित करने वाले सुधीर गोयल ने १९८६ में वरिष्ठ नागरिकों की क्षमता के सामाजिक उपयोग हेतु ‘ उज्जयनी वरिष्ठ नागरिक संगठन ’ भी स्थापित किया। १९७७ में आचार्य विनोबा भावे से भी मिल चुके थे। इसी बीच हामूखेड़ी के कुष्ठ रोगियों के बीच जाने का मौका मिला। वहां मरीजों के अंगों को चूहे कुतर रहे थे। वहीं उन्हें पूरी तरह सड़ चुका मरीज नारायण मिला। उसे लेकर कई जगहों पर भटकने के पश् ‍ चात अपने आफिस के गैराज में लाकर रखा। आगे की कहानी इतिहास है।

अग्रसेन महाराज की साम्यवादी विचारधारा, महावीर स्वामी तथा स्वामी विवेकानंद की दीन दुखियों के प्रति संवेदना के भाव ने उन्हें काफी प्रभावित किया था। १३ मार्च १९८७ को मदर टेरेसा के उज्जैन प्रवास के दौरान मिले तथा मदर उनके कार्य से काफी प्रभावित हईं। बाबा आमटे का शुभाशीष उन्हें हमेशा ही मिलता रहा। यहां तक कि उन्हें बाबा के अंतिम दर्शनों का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वर्तमान समय में वे प्रख्यात गांधीवादी विचारक डॉ . एस . एन . सुब्बाराव से काफी प्रभावित हैं तथा सेवाधाम में उनके नेतृत्व में २५ राज्यों के लगभग ३०० युवाओं का शिविर लगने वाला है। आश्रम को पद्मश्री जनक पलटा ( वरली आदिवासी महिला की संस्थापिका तथा सोलर सिस्टम के प्रति जागरुकता लाने की दिशा में कार्य करने वाली ), शालिनी मोघे ( बाल निकेतन स्पर्धा संघ, उज्जैन ), पद्मश्री कुट्टी मेनन इत्यादि स्नेहीजनों का सान्निध्य लगातार मिलता रहा है। आश्रम द्वारा लगभग ३०० लोगों से नेत्रदान करवा कर ६०० लोगों के नेत्रों को ज्योति दी गई है। लगभग १५० लोगों को देहदान के लिए प्रेरित कर देहदान करवाया।

पर सारा कुछ शुभ शुचि ही नहीं है। इतना बड़ा आश्रम चलाने के लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। पर आध्यात्मिक स्थापनाओं वाले देश में होने के बावजूद ऐसी संस्थाओं को धार्मिक स्थलों के बनिस्बत काफी कम सहयोग मिल पाता है। ‘ सेवाधाम आश्रम ’ भी इससे अछूता नहीं है। अचल निधि के नाम पर कुछ नहीं है। वर्तमान स्थितियों में संचालन के लिए लगभग १ लाख रुपए प्रति दिन की आवश्यकता है जो बड़ी मुश्किल से ७० हजार प्रति दिन तक पहुंच पाता है। वह भी, ‘ रोज कुआं खोदो, रोज पानी पियो ’ वाली स्थिति के साथ। सुधीर गोयलजी ने अपनी पीड़ा कुछ यूं व्यक्त की, ‘‘ मैं देशभर की बहुत सारी संस्थाओं, प्रभावशाली व्यक्तियों तथा उद्योगपतियों के पास गया कि, कोई सामने आए और यहां के वित्त संयोजन का भार ले लें ताकि हम बिना किसी परेशानी एवं दुश् ‍ चिंता के यहां के कार्यों को समुचित विस्तार दे सकें। पर बहुधा निराशा ही हाथ लगी। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री साहिबसिंह वर्माजी ने अपनी मृत्यु से पूर्व आश् ‍ वस्त किया था कि उनके ‘ राष्ट्रीय स्वाभिमान ट्रस्ट ’ द्वारा वित्तीय प्रबंधन एवं विस्तार किया जाएगा परंतु उसके कुछ ही दिनों बाद उनकी मृत्यु हो जाने के कारण यह ध्येय निष्फल हो गया। तब से किसी भामाशाह का इंतजार है। वैसे प्रबलसिंह सुराणा, सुधीरभाई कुमट, समरथ मलजी संघवी, सुमतिलाल जेनावत, बी . सी . एम . पविार के मेहता ब्रदर्स जैसे महानुभावों ने उस समय सहायता हेतु हाथ फैलाए जबकि आश्रम में एक समय के लिए खाना जुटाना भी मुश्किल था। मुंबई से अरविंदभाई मफतलाल, अनाम प्रेम संस्था, महामंडलेश् ‍ वर स्वामी प्रखरजी महाराज, मुम्बई के भामाशाह सेठ रतनलाल डिडवानिया ने आश्रम को नवजीवन दिया। आज उनके पुत्र विमल, कैलाश, प्रकाश सहित पौत्र – पौत्री और बहुएं भी आश्रम से जुड़ी हैं। वहीं समस्त महाजन के मैनेजिंग ट्रस्टी गिरीश भाई शहा ने आश्रम के विकास विस्तार को जयेश भाई जरीवाला के साथ नईं उंचाइयां प्रदान की। सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक पद्मविभूषण डा . विन्देश् ‍ वर पाठक भी इसके विकास हेतु सतत प्रयत्नशील हैं। बाबा रामदेव, कम्पानी परिवार आदि द्वारा भी समय – समय पर आर्थिक सम्बल मिलता रहा है।

संस्थाध्यक्ष अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चिंतक व पत्रकार डा . वेदप्रताप वैदिक भाईजी को ‘ फादर टेरेसा ‘ के नाम से संबोधित करते हैं। उनके शब्दों में यह आश्रम देवस्थानों के समान ही पवित्र है। उनकी पत्नी कांता भाभी, बेटियां मोनिका और गौरी भी आश्रम कार्यों में हाथ बंटाती हैं। गोयलजी का कहना है कि, ‘‘ किसी पीड़ित की सेवा से उसके चेहरे पर आने वाले प्रसन्नता के भाव में उन्हें प्रभु के दर्शन होते हैं।‘‘ सरकार द्वारा शुरू की गई तमाम योजनाओं के बनिस्बत बात करने पर गोयलजी का दुख छलक उठा, ‘‘ सरकारें आती हैं, जाती हैं। वे समाज के अंतिम व्यक्ति के लिए काफी अच्छी योजनाएं भी बनाती हैं पर उन योजनाओं का कार्यरूप में लाभ प्राप्त करना काफी दुष्कर है। सरकारी प्रक्रियाएं काफी जटिल हैं तथा नौकरशाही के बीच की फैली ‘ गिव एंड टेक ‘ की पॉलिसी सारी तमन्नाओं पर पानी फेर देती है।’’ शहर की चहल – पहल से दूर, अपने जीवन के समस्त सुखों व विलासिता के भंवर से बाहर निकल कर एक व्यक्ति समाज के हर उस व्यक्ति को अपना बनाने हेतु उत्सुक है, जिसे तथाकथित सभ्य समाज तिरस्कार की भावना से देखता है। देशभर में हर धर्म के स्वघोषित धर्मगुरुओं के चरणों में अरबों – खरबों की विलासिता पसरी पड़ी है, एक आवाहन किए जाने की आवश्यकता है कि समाज का हर वर्ग इस तरह के आश्रमों में जाकर सहयोग करे ताकि समाज के तिरस्कृत जनों के जीवन की लौ जगमगाती रहे।

ऐसे ही तमाम विचारों को मन में लिए आश्रम के मुख्य द्वार ‘ स्वामी दयानंद सरस्वती द्वार ’ को पार कर इंदौर की ओर निकल पड़ा ताकि वापसी के लिए बस पकड़ सकूं। महाकाल के दर्शन नहीं कर पाया था पर ‘ गूंगे के मीठे फल ‘ की ही भांति ऐसा लग रहा था, मानो उनके साक्षात् दर्शनों का लाभ प्राप्त हो गया हो।

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