बाबासाहब के तीन गुरू बुद्ध, कबीर और फुले


डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का जीवन धूलि से शिखर तक की यात्रा है। जिस परिवार में उनका जन्म हुआ था उसकी सौ से अधिक पीढ़ियों से जानवरों से भी बदतर व्यवहार इस देश में किया गया था। उनकी छाया का स्पर्श भी अमंगल माना जाता था। मगर जब डॉ. बाबासाहब ने इस दुनिया से विदा ली तब उनके बारे में कहा गया कि, हमने देश का एक महान सपूत खो दिया है। तब देश के राष्ट्रपति ने भी कहा कि हमारे देश के संविधान का निर्माता आज चल बसा है। हमारे प्रधान मंत्री ने भी कहा था कि, ‘हिंदू समाज की सारी अनिष्ट कुप्रथाओं के विरोध में विद्रोह करनेवाले व्यक्ति के रूप उनकी पहचान बनी रहेगी और जिन चीजों के विरोध में उन्होंने विद्रोह किया था उन चीजों के विरोध में हरेक व्यक्ति को विद्रोह करना चाहिए।

ऐसी धूलि से शिखर तक यात्रा डॉ. बाबासाहब ने कैसे तय की। उनके जीवन का दीपस्तंभ क्या रहा होगा? सागर में दीपस्तंभ देख कर नौका अपनी दिशा तय करती है, मगर डॉ. बाबासाहब के जीवन की विशेषता यह रही है कि, उन्होंने अपने जीवन की दिशा तय की और उसके अनुरूप अपने दीपस्तंभ बनाए। उन्होंने कहा है कि, भगवान गौतम बुद्ध, कबीर और महात्मा फुले मेरे गुरू हैं। स्वतंत्रता, समता एवं बंधुत्व का तत्वज्ञान मैंने उनसे सीखा है। एक प्रश्न स्वाभाविक रूप से खड़ा हो जाता है कि, तथागत गौतम बुद्ध, संत कबीर और महात्मा ज्योतिबा फुले को डॉ. बाबासाहब ने अपने गुरू क्यों माना? इन तीनों में ऐसी क्या विशेषता रही कि डॉ. बाबासाहब ने उन्हें अपने गुरू के रूप में चुन लिया। जैसा कि, प्रधान मंत्री नेहरू जी ने कहा था कि, डॉ. बाबासाहब का एक महान विद्रोही के रूप में स्मरण रहेगा। हमें यह बात ध्यान में लेनी होगी कि, तथागत गौतम बुद्ध, संत कबीर और महात्मा फुले तीनों अपने- अपने काल में महान विद्रोही थे। मगर उनकी सोच कभी नकारात्मक नहीं रही, गलत चीजों की जगह पर सही क्या होना चाहिए इसका दर्शन उन्होंने हमेशा जनसाधारण के सामने रखा। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व को अपने त्रि-तत्व बताते हैं और गौरतलब बात यह है कि यही अवधारणाएं अपने दर्शन और चिंतन में इन तीनों महापुरुषों ने रखी है।

हम जानते हैं कि, धर्म भारत की आत्मा है। डॉ. बाबासाहब के ये तीनों गुरू धर्मपुरुष थे और डॉ. बाबासाहब की पहचान भी धर्मपुरुष बन गई है। धर्मपुरुष बाबासाहब की धर्म की परिभाषा कैसी थी? उन्होंने दादर में महार जाति की एक परिषद बुलाई थी जिसमें अपने भाषण में उन्होंने कहा था कि, ‘जो धर्म आपको मनुष्य के नाते से नहीं पहचानता है, जो आपको पानी भी नहीं देना चाहता है, वह धर्म इस संज्ञा के लिए अपात्र है। जो धर्म आपको शिक्षा नहीं देना चाहता है, आपकी भौतिक उन्नति नहीं होने देता है, वह धर्म इस संज्ञा के लिए अपात्र है। जो धर्म अपने अनुयायियों को अपने धर्मबंधुओं के साथ इन्सानियत का व्यवहार करना नहीं सिखाता वह धर्म नहीं रोग है।… जो धर्म अज्ञानी को अज्ञानी, निर्धन को निर्धन रहने को कहता है वह धर्म नहीं बल्कि सजा है। भगवान बुद्ध के उद्धरण से अपने भाषण का समापन करते हुए डॉ. बाबासाहब ने कहा था कि, ‘आप अपनी बुद्धि की शरण लीजिए।’ मगर इस समय उन्होंने बुद्ध धर्म का स्वीकार करना तय नहीं किया था।

आगे डॉ. बाबासाहब का ‘बुद्ध और उसके धर्म का भवितव्य’ यह महत्वपूर्ण लेख महाबोधी संस्था की मासिक पत्रिका में मई, १९५० में प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने कहा था कि, ‘अगर धर्म चलते रहना है तो वह बुद्धिप्रामाण्यवादी होना चाहिए और विज्ञान यह बुद्धिप्रामाण्यवाद का दूसरा नाम है। धर्म ने केवलनीति की संहिता बनना यह उसका सर्वस्व नहीं है। धर्म की नैतिक संहिता ने स्वतंत्रता, समता और बंधुता इन मूलभूत तत्वों को मान्यता देना आवश्यक है।’ डॉ. बाबासाहब ने धर्म के बारे में जो अपेक्षाएं व्यक्त की थीं उन सारी अपेक्षाओं की पूर्ति बौद्ध धर्म करता है, ऐसा उनका मानना था। उन्होंने यह भी कहा था कि, बौद्ध धर्म के तत्व चिरकालिक और समानता पर आधारित है। डॉ. बाबासाहब कहते थे कि, ‘हिंदू धर्म वैदिक धर्म, ब्राह्मण धर्म और हिंदू धर्म ऐसी तीन अवस्थाओं से गुजरा है। हिंदू धर्म की जब दूसरी अवस्था चल रही थी तभी बौद्ध धर्म का उदय हुआ था। शंकराचार्य के उदय के बाद भी बौद्ध धर्म भारत से नष्ट नहीं हुआ था।’

आज डॉ. बाबासाहब को हिंदू धर्म के विध्वंसक के रूप में प्रस्तुत करने के भरसक प्रयास होते रहते हैं, मगर उनके धर्म परिशीलन से हमें ऐसा बिलकुल नहीं लगता है। भारत का धार्मिक प्रवास उन्होंने देखा था और जब हिंदू धर्म छोडकर उन्होंने भगवान बुद्ध का अनुनय किया तब उनके मन में कतई ऐसा भाव नहीं था कि उन्होेंने इस भूमि की धार्मिक अवधारणा से अपना नाता तोड़ लिया है। डॉ. बाबासाहब सदा ही धर्म से जुड़े रहे और धर्मपुरुष बन गए। २९ सितंबर १९५० में वरली में भाषण करते समय उन्होंने यह भी कहा था कि, एक हजार साल पहले प्रचलित हिंदू धर्म बौद्ध धर्म की तरह ही था। मगर मुसलमानी आक्रमण और अन्य कारणों से उसकी पवित्रता नष्ट हो गई। इसलिए बौद्ध धर्म का पुनरुत्थान करने हेतु और उसका प्रसार करने हेतु मैं अपना जीवन समर्पित कर दूंगा।’

डॉ. बाबासाहब ने अपने विद्रोह के लिए भगवान गौतम बुद्ध का ही आदर्श रखा था और उनको ही गुरू मान लिया था। डॉ. बाबासाहब के दूसरे गुरू थे संत कबीर। वैसे डॉ. बाबासाहब जी का घराना तो नाथपंथी था और उनके पिता रामजी ने कबीर पंथ की दीक्षा ली थी। इन भक्ति पंथीय लोगों की भावना ऐसी ही होती थी कि, ‘हम सब मनुष्य एक ही परमपिता परमेश्वर की संतान हैं। परमेश्वर के दरबार में ऊँच-नीच या किसी भेदभाव को कोई स्थान नहीं है। भगवान तो केवल भाव के भूखे होते हैं। ‘कबीरपंथीय भक्तों पर भूतदया की भावना के गहरे संस्कार थे। कारण इस पंथ के गुरुदेव कबीर जी ने जातिभेद की हमेशा कड़ी आलोचना की थी। उनका तो यही अमर संदेश था कि, ‘जात पंथ ना पूछे कोई, हरि का भजे सो हरि का होई।’ अपने पिता द्वारा किए गए इन्हीं संस्कारों को डॉ. बाबासाहब ने आगे अपने जीवन में उतारा था। इसीलिए वे कबीर जी को अपना भी गुरू मानते थे। डॉ. बाबासाहब को कबीर जी के दोहे कंठस्थ थे और वे समय समय पर गुणगुणाते भी थे। अपने देश के इतिहास में कबीर जी का एक अनन्य साधारण स्थान है। कबीर जी का कालखंड था १३९८ से १४४८ तक। इस कालखंड में सम्पूर्ण हिंदू समाज जातिभेद से छिन्नभिन्न हो चुका था और अस्पृश्यता, अंधविश्वास, निरर्थक कर्मकांड की जंजीरों में पूरी तरह से जकड़ गया था। समाज बंट जाने के कारण प्रतिकार करने की शक्ति गंवा बैठा था। फलस्वरूफ दिल्ली में विदेशी मुसलमानों का शासन स्थिर हो गया था। संत कबीर तो स्वयं जुलाहा थे और ऊँची जातियों द्वारा नीच समझी जानेवाली जातियों का अपमान उन्होंने स्वयं अनुभव किया था। जातिभेद की दाहकता के दंश उन्होंने झेले थे।

उन्होंने स्पष्ट रूप से घोषित कर दिया था –

एक रुधिर एकै मल मूतर एक चाम एक गूदा।

एक बूँद तै सृष्टि रची है, कौन ब्राह्मण कौन सूदा॥

सभी स्त्रीपुरुषों में एक ही खून होता है, एक ही मलमूत्र, एक ही चमड़ी और एक ही मांस होता है। एक ही बिंदु से सृष्टि की निर्मिति हुई है। इसलिए ब्राह्मण और शूद्र इस भेदभाव का कोई मतलब नहीं है।

ब्राह्मण्यता से ग्रस्त ब्राह्मणों और अस्पृश्यता पालन करनेवाले कर्मठों को कबीर जी का सवाल है कि,

हमारे कैसे लोहू तुम्हारे कैसे दूध।

तुम्ह कैसे ब्राह्मण हम कैसे सूद॥

छोति-छोति करता तुम्हही जाय।

तौं ग्रभबास कांहे कौ आए॥

कबीर जी ने ब्राह्मणों से पूछा है कि, ‘हे ब्राह्मणों, आपका और हमारा रक्त तो एक ही है। हमारी उत्पत्ति एक जैसे ही हुई है तो आप ब्राह्मण और हम शूद्र भेदभाव कहां से आया है? आप स्वयं को पवित्र मानते हैं तो गर्भवास के अपवित्र मार्ग से आप इस दुनिया में क्यों आते हो?’

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी के तीसरे गुरू थे महात्मा ज्योतिराव फुले। आधुनिक भारत में अस्पृश्यता को तिलांजलि देकर अस्पृश्यता का समूल उच्चाटन कर सामाजिक समता की प्रस्थापना करने का कार्य महात्मा ज्योतिराव फुले ने किया। भारतीय नारी को शिक्षित कर उसकी आत्मोन्नति का द्वार खोलना और शूद्रातिशूद्र जनता को शिक्षा देकर सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक विषमता नष्ट करने हेतु उनको खड़ा करने का महान कार्य महात्मा फुले ने किया है। महात्मा फुले भारत के महान समाज सुधारकों में से एक थे ऐसा डॉ. बाबासाहब मानते थे इसलिए जब उन्होंने ‘शूद्र पहले कौन थे?’ यह ग्रंथ लिखा था तब वह महात्मा फुले को ही समर्पित किया था। उनका कालखंड १८२७ से १८९० तक का है। उनका जन्म माली (बागबान) परिवार में हुआ था। वह बचपन से ही बुद्धिमान थे। महात्मा फुले का विद्रोह जातिभेद के विरुद्ध था,

छुआछूत की प्रथा के विरुद्ध था तथा जातिभेद और छुआछूत का समर्थन करनेवाले धर्मशास्त्रों के विरुद्ध था। धर्मशास्त्रों का मनमाफिक अर्थ लगानेवाली ब्राह्मणशाही के खिलाफ उनका विद्रोह था। इस कारणवश उनको इसी समाज में से कड़ा विरोध हुआ था। महात्मा फुले जी का सामाजिक विद्रोह का स्वरूप हम उनके ‘ब्राह्मणांचे कसब’ (ब्राह्मणों के गुर), गुलामगिरी (गुलामी) और ‘शेतकर्याचा असूड’ (किसान का सॉंटा) मराठी ग्रंथों में पढ़ सकते हैं। ब्राह्मण जोशी शूद्रों को अलग अलग विधियॉं बताकर उनसे कैसे धन ऐंठता हैं, यह ‘ब्राह्मणांचे कसब’ में बताया गया है। इस लूट के कारण किसान कर्ज में डूब जाता है। फुले जी ने अपना ‘गुलामगिरी’ यह ग्रंथ अमेरिकी निग्रो लोगों को गुलामी से मुक्त करनेवाले अमेरिकी गोरों को समर्पित किया है और इस ग्रंथ के आरंभ में ही होमर का विख्यात वचन दिया है – ‘जिस दिन मनुष्य दास बनता है, उस दिन से उसके आधे सद्गुण समाप्त हो जाते हैं।’ इस ग्रंथ का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए महात्मा फुले लिखते हैं – ‘इस ग्रंथ का उद्देश्य यह है कि, आज सैंकडों वर्षों से शूद्रातिशूद्र लोग ब्राह्मणों का राज आने से सतत दुख सह रहे हैं और तरह तरह की यातनाएँ भुगत रहे हैं तथा संकट में दिन काट रहे हैं, इस बात की ओर सब का ध्यान आकर्षित कर उस पर ठीक से विचार करना और आगे से भट-ब्राह्मण लोगों के अन्याय व जुल्म से अपने को किस तरह मुक्त करना है, यह सोचना है। इस देश में भट लोगों का राज आकर कोई तीन हजार वर्ष से अधिक समय हो चुका होगा यह अनुमान है। ये लोग विदेश से आए, इस देश के मूल निवासियों को परास्त किया और उन्हें अपना दास बनाया एवं उन्हें क्रूर तरीके से दंड दिया।’

महात्मा फुले की ऐतिहासिक व धार्मिक मीमांसा डॉ. बाबासाहब ने जस के तस स्वीकार नहीं की, यह सत्य बात है। मगर हिंदू समाज का बहुसंख्य वर्ग विभिन्न बेडियों में जकड़ा हुआ और गुलाम बन गया है इस सत्य को बाबासाहब ने स्वीकार किया और उसे भिन्न तरीके से पेश किया है।

महात्मा फुले जी का ‘शेतकर्याचा असूड’ यह ग्रंथ उनमें समाविष्ट निम्न पंक्तियों के कारण विख्यात हुआ है। वे कहते हैं-

‘विद्येविना मति गेली, मतिविना नीती गेली,

नीतिविना गति गेली, गतिविना वित्त गेले,

वित्ताविना शूद्र खचले,

इतके अनर्थ एका अविद्येने केले.’

अर्थात, विद्या न होने से बुद्धि भ्रष्ट हो गई। बुद्धि भ्रष्ट हो जाने से नीतिमूल्य चले गए। नीतिमूल्यों के जाने से गतिहीनता आ गई और गतिहीनता के कारण वित्त चला गया। वित्त के अभाव से शूद्र टूट गए। केवल विद्या के अभाव के कारण यह सारा परिणाम हुआ है।

महात्मा फुले जी की सब से बड़ी विशेषता यह है कि वह क्रियाशून्य विचारक नहीं थे। क्रिया छोड़कर केवल बातें करते रहना निरर्थक है, यह बात वे जानते थे। शोषितों, पीड़ितों को न्याय दिलाने के लिए उन्होंने किसानों की हड़ताल, विधवाओं के केशवपन को रोकने हेतु नाइयों की हड़ताल जैसे कदम उठाकर आंदोलन जारी रखा। उन्होंने विचार रखे और विचारों के आधार पर संस्थाओं की स्थापना की और जनजागरण अभियान जारी रखा।

सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि, बाबासाहब के ये तीनों गुरुदेव धर्म अथवा ईश्वर का भंजन करनेवाले नहीं थे जैसा कि बहुत से लोगों की गलत धारणा है। भगवान बुद्ध ने शून्यवाद अपनाया था, मगर वह नास्तिकवाद से मेल नहीं खाता है कारण इस सृष्टि के मूल में कोई तत्व है और वह सत्य है ऐसा भगवान बुद्ध का मानना था। संत कबीर तो निर्गुणोपासक थे। महात्मा फुले तो इस सृष्टि का कोई निर्मिक है ऐसा मानकर चलते थे और उन्होंने अभंगों से मेल खाने वाले अखंड नामक पदों की रचना भी की थी।

आज इन सब तथ्यों का पुनरावलोकन करना आवश्यक बन गया है क्योंकि डॉ. बाबासाहब का नाम लेकर लोगों में गलत अवधारणाएं प्रचलित की जा रही हैं। समाज से धर्मभावना मिटाने का कार्य जोर-शोर से चल रहा है। मगर डॉ. बाबासाहब तो समाज के लिए धम्म का अधिष्ठान आवश्यक मानते थे। जब बौद्ध धर्म का स्वीकार करने का उन्होंने मानस बना लिया था तब उन्होंने इस धर्म का समग्र अध्ययन कर ‘गौतम बुद्ध और उनका धम्म’ शीर्षक ग्रंथ का प्रकाशन भी किया था। इस ग्रंथ में उन्होंने बौद्ध धर्म के बारे में अपनी अवधारणाएं स्पष्ट रूप से रखी है।

डॉ. बाबासाहब ने स्वयं को तथा अपने अस्पृश्य समाज को भी इस मिट्टी से सदा जोड़कर रखा था। इसीलिए धर्मांतर के समय भी उन्होंने इसी मिट्टी में जन्मा और फला-फूला बौद्ध धर्म चुना था। उनका संघर्ष केवल ‘स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व’ इन तत्वत्रयी की प्रस्थापना के लिए चल रहा था। जो तत्व मनुष्य को हर तरह की दासता ते स्वतंत्र बनाता है, और समता तथा बंधुभावना का अनुभव देता है उस उदात्त तत्व का समर्थन उन्होंने किया था। तथागत गौतम बुद्ध, महात्मा संत कबीर और महात्मा फुले इन महान पुरुषों ने सदा समाज को जोड़ने का प्रयास किया है। विद्वेष मिटाने का काम किया है। समाज में शांति और सद्भाव पैदा करने का कार्य किया। उनके विचारों में शायद ही कहीं कटुता झलकती है तो वह उस औषधि की तरह है जो सेवन में शायद कड़वी लगती है मगर उसका परिणाम अपने शारीरिक स्वास्थ्य के सुधार में होता है। इसी भॉंति इन तीनों महागुरुओं ने और उनके शिष्यवर पू. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर जी ने समाज सुधार का हेतु मन में रखकर कुछ कड़वे घूंट पिलाए थे। हमारा कर्तव्य यह है कि उस समाज सुधार की सोच पर अमल कर उनका सपना सत्य में साकार करें। आपस की खाई पाटकर सही अर्थ में स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की स्थापना करने के कार्य में अग्रसर हो जाए। यही कृति इन गुरुओं को तथा शिष्य को अपेक्षित है।

मो. : ९५९४९६१८६४

 

This Post Has One Comment

Leave a Reply