फागुन में
बाबा देवर लागे
बाबा मत कहो अभी शेष है जवानी मेरी,
पकी हुई दाढ़ी पर जाओ ना प्रियंवदा।
मानता हूँ तन सिकुड़ा हुआ दिखाई देता,
पर दिखता है जो वो सत्य ना प्रियंवदा।
रूप की अपार राशि विधि ने दिया तुम्हे,
याचक को देना कर्तव्य है प्रियंवदा।
पकी हुई दाढ़ी समझो कि दाँत देखने के,
खाने वाले दाँत भरपूर हैं प्रियंवदा।
थोड़ी देर मान गई मन है जवान तेरा,
तन थहरानी लटकानी भहरानी है।
धार इस नदिया का तेज है न सम्हलेगा,
फागुन के बसंत की चढ़ानी है।
मन की उड़ान से ना काम चलेगा यहाँ पे,
रण में तो पौरुष औ शस्त्र टकरानी है।
चलो मैं मान गई दिव्य पुरुषार्थ तेरा,
किन्तु सोलहो कला से पूर्ण ये जवानी है।
सोलहो कला से पूर्ण यौवन निखार देगे,
एक बार नेह बरसाओ तो प्रियंवदा।
सागर समान तुझे अंक में समेट लेंगे,
तप से तपा हूँ घबड़ाओ ना प्रियंवदा।
विश्वामित्र मेनका की कथा जानती ही होगी,
वही प्यास लगी है बुझाओ ना प्रियंवदा।
काशी का सुबह मिलने को व्यग्र कब से है,
अवध की शाम बन जाओ ना प्रियंवदा।
शाम और सुबह की दूरी अब खत्म हुई,
शीत औ बसंत का मिलाप चलने लगा।
कभी छाँव धूप तले कभी धूप छाँव तले,
धूप पर छाँव का रे रंग चढ़ने लगा।
एक ओर तेज धार दूजे हिम का करार,
हिम हिमवान का स्वयं गलने लगा।
नदी भी ठहर गई सागर भी थम गया,
राज पाठ जैसे रहा वैसे चलने लगा।