जड़ से उखाड़ो माओवाद!

त्रिपुरा में राजनीतिक विजय मनाते समय कम्युनिस्ट विचारधारा के मूल विध्वंसक प्रवाह को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ये उनके हार के दिन हैं, इसलिए परदे के पीछे चले गए; परंतु पूरे देश को हिंसक लाल रंग में रंग देने की उनकी व्यूहरचना को ठीक से जान लेना चाहिए और समय पर ही रोकना चाहिए। बेहतर है इस राष्ट्रविघातक विचारधारा को ही जड़ से उखाड़ दिया जाए।
त्रि पुरा, नगालैण्ड और मेघालय में हाल में हुए विधान सभा चुनाव मार्क्सवादियों के ताबूत पर कील ठोंकने वाले साबित हुए। लोगों ने माओवादियों की गुंडागर्दी और दादागिरी को नकार दिया, डराने-धमकाने के खिलाफ सीना तान कर खड़े हुए। इसके साथ ही माओवादी आंदोलन के अस्तप्रायः होने की उल्टी गिनती शुरू हो गई, जिसकी देशभर में सर्वदूर चर्चा है। मार्क्सवादियों ने अपनी पराजय स्वीकार भी कर ली है। लेकिन इतने से ही संतुष्ट नहीं होना चाहिए। महाराष्ट्र में लाल टोपी लगाए और लाल झंडे हाथ में लिए किसान हों या दिल्ली में बाबरी मस्जिद ढहाने के साल पूरे होेने पर एकत्रित आए आंदोलनकारी हों दोनों ही देश में वामपंथ की जडों की गहराई को स्पष्ट करने वाले तथा उनकी ताकत को प्रदर्शित करने वाले थे। उनकी अगली रणनीति क्या है इसे जानना-समझना और उस पर नजर रखना अब ज्यादा जरूरी लगता है।

पिछले कुछ वर्षों में जंगलों में माओवादियों का हिंसाचार कुछ कम हुआ है, लेकिन इस दौरान उन्होंने अपने समर्थकों का देशभर में जाल बुनने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। इस आंदोलन का काम राजनीतिक दल, नक्सली लड़ाके और कानूनी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों के जरिए चलता है। ये नक्सली लड़ाके छापामार युद्ध में माहिर कार्यकर्ता हैं। यही नक्सली आंदोलन की असली ताकत है। उन पर जब चोट होती है तो उन्हें बचाने के लिए आगे आने वाले बुद्धिजीवियों की फौज मार्क्सवादियों ने खड़ी कर ली है। ये दोनों धड़े परस्पर पूरक हैं। सशस्त्र कार्यकर्ता और बौद्धिक समर्थक एक दूसरे के पक्ष में खड़े होते हैं। जंगलों में सशस्त्र सहयोगियों पर जब दबाव बढ़ता है तब उसे घटाने और अन्यत्र ध्यान बंटाने के लिए वे शहरों में बौद्धिक आंदोलन तो चलाते ही हैं, कानून और व्यवस्था की समस्या भी पैदा कर देते हैं। सरकार का दबाव बढ़ने पर नक्सलियों द्वारा पीछे हटना और कुछ समय बाद नए सिरे से भीषण छापामार हमला करना उनकी व्यूहनीति का हिस्सा है। माओवादियों की यह रणनीति नई नहीं, पुरानी ही है। वर्तमान में भले उनके पराजय के दिन हो, परंतु उनकी रीति-नीति पर गंभीरता से नजर रखनी चाहिए।

माओवाद सामान्य मसला नहीं है। आतंकवाद का ही वह एक हिस्सा है। विश्व में वह पांचवें नम्बर का संगठन है। ये लोग वर्तमान राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था ध्वस्त कर नई माओवादी व्यवस्था लाना चाहते हैं। देश में सत्ता काबिज करने का ये लोग सपना देख रहे हैं। उन्हें भारतीय संविधान, लोकतंत्र, चुनाव मान्य नहीं है, विकास के काम वे स्वीकार नहीं करते। वे अपने विरोधियों की हत्याओं और समाज को विखंडित करने के लिए सशस्त्र संघर्ष को जायज मानते हैं। इसीलिए खेती या आदिवासियों की समस्याएं हल करने को वे तवज्जो नहीं देते, न उनके पास ऐसा कोई कार्यक्रम है। 1960 के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी ग्राम में यह आंदोलन अंकुरित हुआ और यही नाम उसे आगे मिलता गया। आरंभ में आदिवासियों को न्याय दिलाने का वे स्वांग भरते थे इसलिए जनता की सहानुभूति उन्हें मिलती गई, लेकिन बाद में 1980 के दशक में उन्होंने विध्वंसक रूप ले लिया। कल के माओवादी आज के नक्सली बन गए। हर समस्या का जवाब उन्हें बंदूक की गोली में ही दिखाई देता है।

त्रिपुरा से आंध्र तक फैला यह आंदोलन देश के 22 राज्यों के लगभग 220 जिलों में अपने पैर पसार चुका है। सन 2050 तक दिल्ली की सत्ता काबिज करने का उनका इरादा है। इस दृष्टि से माओवादी राजनीतिक, बौद्धिक और नागरी क्षेत्रों में अपना जाल और आतंक फैला रहे हैं। तभी तो वे अपनी छापामारी शैली के कारण सुरक्षा बलों पर भारी पड़ते नजर आ रहे थे। अंतिम इरादा उनका देश काबिज करना है। नक्सली आंदोलन के एक सह-संस्थापक कानू सान्याल ने स्पष्ट लिखा है कि, “उनका सशस्त्र संघर्ष जमीन के लिए नहीं है, बल्कि देश की सत्ता पाने के लिए है!” सान्याल के इस लक्ष्य का माओवादी बुद्धिजीवी जानबूझकर जिक्र ही नहीं करते और उलजलूल तर्क देकर नक्सली आंदोलन के समर्थन में खड़े हो जाते हैं। कथित बुद्धिजीवियों के इस बौद्धिक छल से माओवादियों का लाभ ही होता है, उन्हें सहयोग और प्रोत्साहन भी मिलता है। कहीं कहीं नक्सली गरीबी मजदूरों, पानी आदि समस्याओं पर आंदोलन करते दिखाई देते हैं, परंतु यह तो उनका दिखावटी रूप है। उनकी रणनीति वाकई गरीब मजदूरों, आदिवासियों के विकास की होती तो वे गरीबों के लिए शैक्षणिक या तत्सम सेवा अथवा विकास प्रकल्प खड़े करते। लेकिन वे तो भारत के दुश्मनों के दोस्त हैं। वस्तुतः भारत को खंडित करना और नक्सली प्रभावित क्षेत्र निर्माण कर वहां माओवादी विचारधारा की सत्ता स्थापित करना उनका मुख्य लक्ष्य है। पूर्वोत्तर में त्रिपुरा, नगालैण्ड, मेघालय जैसे राज्यों में अलगाववाद के लिए वहां के लोगों का आत्मनिर्णय लेने के पक्ष में मार्क्सवादियों ने वकालत करने के पीछे यही कारण है। यही लक्ष्य मिशनरियों और जिहादियों का भी है। इन बुद्धिजीवियों ने विश्वविद्यालयों, सरकारी आयोगों, प्रचार तंत्र का दुरुपयोग करते हुए वैचारिक भ्रम बड़े पैमाने पर फैलाया। इसका मुख्य उद्देश्य था नक्सलवादियों और उनके आंदोलन के प्रति समाज में सहानुभूति उत्पन्न करना। इसी कारण महाश्वेता देवी, अरुंधती राय जैसे लोगों की भूमिकाएं भ्रम पैदा करने वाली होती हैं। छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ जवानों की हत्याओं के बाद नक्सलियों के खिलाफ आरंभ सरकारी अभियान को रोकने के लिए यह बुद्धिजीवी वर्ग गला फाड़ कर चिल्ला रहा था। ये लोग कहते फिर रहे थे कि सुरक्षा बल नक्सलियों पर जुल्म ढा रहे हैं। जब सारा देश नक्सलियों द्वारा छत्तीसगढ़ में किए गए नरसंहार से स्तब्ध था, उस समय ये बुद्धिजीवी नक्सलियों के समर्थन में भोंपू बजा रहे थे।

हमें यह समझ लेना चाहिए कि जिस नैतिकता को हम मानते हैं उसे माओवादी नहीं मानते। लेकिन वे अपना मूल उद्देश्य छिपा कर हमारे मानवतावादी दृष्टिकोण का अपने स्वार्थ के लिए उपयोग कर लेते हैं। हम उन्हें श्रेष्ठ लेखक, पत्रकार, गरीबों के हमदर्द मान कर सम्मान देते हैं, और इस तरह उनकी छल-कपट की व्यूहनीति में फंस जाते हैं। लेनिन-माओ के बारे में हम कम जानते हैं इसलिए ये बुद्धिजीवी उनके बारे में बहुत ज्ञान बघारते हैं और नक्सली आंदोलन का समर्थन कर हमें भ्रमित करते हैं। ऐसे लेखक, पत्रकार, प्रोफेसर, बुद्धिजीवी मानवतावाद का मुखौटा चढ़ा कर देश विघातक कार्रवाइयों में लगे हुए हैं। इस बात को हम समय पर भारतीय जनता के सामने नहीं ला पाए तो भविष्य में स्थिति और बिगड़ती जाएगी।

वर्तमान पर गौर करें तो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं के प्राध्यापक, वामपंथी पत्रकार, विदेशी संगठनों द्वारा संचालित एनजीओ की गतिविधियों पर नजर रखना जरूरी है। उनके पारंपारिक सहयोगी रूस के छितर जाने के बावजूद वे अपने पुस्तैनी विरोधी अमेरिका और मिशनरियों की सहायता लेने लगे हैं। दो-तीन दशकों पूर्व मार्क्सवादी बुद्धिजीवी हर बात के लिए अमेरिका को जिम्मेदार ठहराते थे, वही अब अमेरिकी संगठनों के सहारे वहां तफरीह के लिए पहुंच रहे हैं। विभिन्न प्रकार की मिशनरी संस्थाओं से निमंत्रण पाने का जुगाड़ कर लेते हैं और वहां पहुंच कर हिन्दू-विरोधी भाषण और प्रचार में जुट जाते हैं। गोधरा में हिन्दुओं को जलाए जाने के बाद 2002 में हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट की शबनम हाशमी दो माह तक अमेरिका का दौरा करती रही। वह पूरी अमेरिका में प्रचार करती रही कि “59 हिन्दू कार्यकर्ताओं को जलाने का काम हिन्दू उग्रवादियों ने ही किया है। यह हिन्दू उग्रवादी साजिश थी। इसके लिए मुस्लिमों को बेवजह जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।” भारत और विशेष रूप से हिन्दू समाज और हिन्दू जीवन शैली को अपमानित करना माओवादी बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, विचारकों का मुख्य मकसद रहा है। उन दिनों हिन्दुओं के बारे में भ्रमपूर्ण माहौल पैदा करने में वामपंथी बुद्धिजीवियों का बड़ा हाथ रहा है।

दुनिया में सर्वत्र माओवाद और वामपंथी विचारधारा की चूलें हिल रही हैं, लेकिन दुर्भाग्य है कि भारत में उन्हें विशिष्ट सम्मान मिल रहा है। यह भारतीय वैचारिक विश्व का माहौल है। पिछले कुछ दशकों से विविध विध्वंसक, देश विरोधी कार्रवाइयों में संलग्न होने के बावजूद कम्युनिस्ट विचारधारा के तथाकथित विद्धानों को संगोष्ठियों, सम्मेलनों में सम्मानपूर्वक बुलाया जाता है। इसी कारण देश के वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक प्रवाह में मार्क्सवादियों का प्रभाव अनुभव होता है। यह हमारे वर्तमान समय का बड़ा शाप है। इस पर ध्यान देने की आवश्यकता है।

माओवादियों के समर्थक देश के बड़े-बड़े शहरों में विभिन्न क्षेत्रों के विद्धानों के रूप में विचरण करते हैं। वे शहरों में विचारक और मानवाधिकार का मुखौटा चढ़ा लेते हैं और माओवादियों की सहायता करते हैं। ऐसे अनेक सफेदपोश माओवादी समाज में खुले आम घूम रहे हैं। ये सफेदपोश जंगल में संघर्ष के लिए पैसा, कार्यकर्ता और विचारधारा की रसद पहुंचाते रहते हैं। उनका यह दोगलापन देश विघातक है। एक ओर लोकतंत्र की आड़ में नक्सलियों के खिलाफ बलप्रयोग न करने की प्रशासन से मांग करना, जैसे कि कानून हाथ में लेने वाले नक्सलियों के विरोध में की गई कार्रवाई जुल्म ही है, और दूसरी ओर नक्सलियों द्वारा किए गए सामूहिक हत्याकाण्ड, हिंसा, अपहरण, हफ्ता वसूली, फिरौती की रणनीति के रूप में निरंतर समर्थन करते रहना- यह सीधे-सीधे शासन और जनता की आंख में धूल झोंकना ही है। इसमें अरुंधती राय जैसे बुद्धिजीवी भयंकर भ्रम निर्माण करते हैं। बिजली, सड़क, रेलवे स्टेशन, स्कूल, पंचायत भवन बम से उड़ा देने से क्या गरीब आदिवासियों की सेवा होती है? किसी भी पहलू से देखें तो नक्सलियों ने अपने प्रभाव क्षेत्र में लोगों का जीना दूभर कर रखा है। नक्सली समर्थक बुद्धिजीवियों का इस यथार्थ से कुछ लेनादेना नहीं है। नक्सलियों के प्रभाव के पूर्व और नक्सलियों के प्रभाव के बाद क्षेत्र के जीवन का आकलन करने के लिए अनुसंधान करने में उनकी कोई रुचि नहीं है। क्योंकि, उनकी रुचि जनता की खुशहाली में नहीं है, उनकी विकृत मानसिकता की टेक पकड़ने वाली विशिष्ट राजनीति में है।

फिलहाल केरल की भूमि हिंसक कम्युनिस्ट विचारधारा की प्रयोगशाला बन चुकी है। केरल में जिस तरीके से वैचारिक विरोध करने वाले संघ स्वयंसेवकों की हत्याएं की जा रही हैं, उससे वामपंथी विचारधारा की वास्तविकता प्रकट हो रही है। राष्ट्रीय विचारधारा रखने वाले संघ स्वयंसेवकों की केरल में हत्याओं से तो लगता है कि वहां जंगल राज अवतीर्ण हुआ है। लाल आतंक शिखर पर है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय की जानकारी के अनुसार देश के 22 राज्यों में नक्सली आंदोलन प्रभावी है। देश के लगभग 220 जिलों में यह फैला हुआ है। देश का करीब 30 प्रतिशत इलाका नक्सली प्रभाव क्षेत्र में आता है। 1967 में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव में आरंभ हुए इस आंदोलन ने राज्यों के साथ केंद्र की चिंता भी बढ़ा दी है। आज देश में आंतरिक सुरक्षा की सब से बड़ी समस्या मार्क्सवादी हिंसा अर्थात नक्सलवाद ही है। आखिर नक्सलियों का शक्ति-स्रोत क्या है? किस आधार पर ये नक्सली सब से बड़े लोकतांत्रिक देश भारत को चुनौती देते हैं? ऐसे कौनसे स्रोत उनके पास हैं? जवाब यह है कि छापामार युद्ध की मानसिकता, पूरी तरह समर्पित नेतृत्व, संगठित और सुनियोजित रूप से बुद्धिभ्रम करने वाला प्रचार तंत्र और कार्यशैली उनके संघर्ष-बल की आत्मा है।

जेएनयू में एफएसआई को मात्र छात्र संगठन समझना सब से बड़ी भूल होगी। कम्युनिस्टों में हमेशा मजाक में कहा जाता है कि, केरल, त्रिपुरा के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की तीसरी इस्टेट यह विश्वविद्यालय है, जहां समर्पित कम्युनिस्ट कार्यकर्ता निर्माण होते हैं।

माओवादी विचारधारा पर सोचते समय केवल राजनीतिक स्तर पर ही विचार करने से नहीं चलेगा। राजनीतिक मंच अथवा कम्युनिस्ट विचारधारा की राज्य सरकारें उनके प्रवाह का अगला चरण है। इसके पूर्व उनकी विचारधारा को बल देने वाली जेएनयू जैसी संस्थाओं, विचारकों, पत्रकारों की राष्ट्रविरोधी विचारधारा को भी रोकने की अत्यंत आवश्यकता है। त्रिपुरा में राजनीतिक विजय मनाते समय कम्युनिस्ट विचारधारा के मूल विध्वंसक प्रवाह को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह प्रवाह सरकार बदलने के कारण सरकारी तंत्र से भले ही दूर हो जाए परंतु प्रशानिक तंत्र, पुलिस विभाग, अधिकारी वर्ग तथा कमोबेश जनता के मन कम्युनिस्ट प्रवाह का निकलना अत्यधिक आवश्यक है। जिस तरह से बंगाल, त्रिपुरा कम्युनिस्टों से छीन लिया, उसी तरह उनकी राष्ट्रविघातक विचारधारा को भी संवैधानिक प्रयास से जड़ से उखाड़ देना चाहिए, ताकि उनसे प्रभावित क्षेत्र देश की मुख्य धारा में आए और वहां विकास व अमनचैन की गंगा फिर से बहती चले।

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