क्या बच्चे अंक उगलनेवाली मशीन हैं?

आज समाज को यह निर्णय लेना अत्यंत आवश्यक है कि वे बच्चों को अंकों और कृत्रिम सुख सुविधाओं के पीछे भागने वाली मशीन बनाना चाहता है या भावनाओं से ओतप्रोत आत्मशांति से युक्त संवेदनशील और सफल इंसानबनाना चाहता है।

आज खाना बनाते वक्त अचानक से मेरी बेटी मुझसे लिपटकर खड़ी हो गई। हालांकि ये कोई नई बात नहीं है लेकिन आज उसके स्पर्श में कुछ अलग बात थी। उसकी पकड़ कुछ ज्यादा मजबूत थी। हम लोग एक दो दिन पहले ही नागपुर से लौटे थे, मुझे लगा वहां की गर्मी की वजह शायद उसकी तबियत ठीक नहीं। “क्या हुआ? तबियत ठीक नहीं?” मैंने पूछा।

“तबियत तो बिलकुल ठीक है, पर चार दिन नागपुर में मैं मासियों के छोटे बच्चों के साथ खेलने में इतनी व्यस्त थी कि तुमसे लाड़ ही नहीं करा सकी।” उसके इस जवाब ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि जाने अनजाने ही हम बच्चों की कितनी सारी बातों को नजरअंदाज कर जाते हैं। उसका रोज सुबह बिस्तर से उठकर मुझसे लिपटना मेरे लिए आम बात है, पर उसके लिए वो किसी बूस्टर की तरह होता है। थोडा सा लाड-दुलार बच्चों को दिन भर के लिए ताजा कर देता है। हमारे लिए ये बातें बहुत छोटी होती हैं परंतु बच्चों के लिए बहुत मायने रखती हैं। वे कई बार केवल हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए कुछ बातें करते हैं परंतु हम अपनी व्यस्तता के कारण उन पर झुंझला जाते हैं। कई बार तो छोटे बच्चे किसी ‘पंचिग बैग’ की तरह हो जाते हैं जिस पर घर का हर बड़ा व्यक्ति अपना गुस्सा उतारता रहता है। हालांकि छोटे बच्चे अपने साथ किए गए बर्ताव को जल्दी भूल जाते हैं और दुबारा हंसने खेलने लगते हैं परंतु अगर इस प्रकार का व्यवहार निरंतर होता रहा तो यह उनके मानसिक स्वास्थ्य और विकास के लिए बहुत हानिकारक होता है।

नकारात्मक आदेश

जिस घर में छोटा बच्चा होता है उस घर के बड़े लोगों के मुंह से कितनी बार ना, नहीं, मत, गलत अदि शब्दों का प्रयोग होता है, यह गिनना चाहिए। अक्सर बड़े लोग बच्चों को यह हिदायत देते हैं कि ये मत करो, वहां मत चढ़ो, उधर मत जाओ, ये मत खाओ आदि आदि। परंतु मनोविज्ञानकहता है कि बच्चों को जिस बात के लिए मना किया जाता वह उनको अधिक आकर्षित करती है, अधिक जिज्ञासा उत्पन्न करती है। और आज के बच्चे तो हर मनाही का तार्किक और संतोषजनक कारण चाहते हैं। अत: यह आवश्यक है कि जब भी उन्हें किसी बात के लिए मना किया जाए उसका कारण बताए और सकारात्मक विकल्प भी दें। हां! इसके लिए थोड़ा अतिरिक्त समय लगेगा और शायद बच्चा तुरंत न माने परंतु धीरे-धीरे उसे सकारात्मक बातें सुनने, देखने और समझने की आदत हो जाएगी।

कुछ घरों में ठीक इसके विपरीत व्यवहार भी दिखाई देता है। घर के बडे बच्चों को लेकर इतने पजेसिव दिखाई देते हैं कि उन्हें किसी भी बात के लिए मना नहीं करते। बच्चे की हर मांग उसके मुंह से निकलते ही पूरी कर दी जाती है। यह व्यवहार भी बच्चों के विकास के लिए सही नहीं है। ऐसे में बच्चों को किसी भी बात के लिए राह देखने की आदत नहीं लगती और बड़े होने पर उनमें संयम की कमी दिखाई देने लगती है। वो अपनी हर इच्छा को हर परिस्थिति में पूरा करने की कोशिश करते-करते कई बार रास्ते से भी भटक जाते हैं।

प्रतियोगिता

यह बात सच है कि आज प्रतियोगिता का जमाना है। हर किसी को एक दूसरे से आगे निकलने की, अव्वल आने की चाह है। इस वातावरण का परिणाम बच्चों पर भी पड़ रहा है। वे भी इस भेड़चाल में या तो शामिल हो रहे हैं या फिर बड़ों द्वारा कराए जा रहे हैं।

हाल ही में दसवीं-बारहवीं के परीक्षा परिणाम घोषित हुए हैं। हर साल परीक्षा परिणामों के बाद छात्रों की आत्महत्या या मानसिक संतुलन खोने जैसी खबरें आने लगती हैं। ये खबरें केवल उन्हीं से सम्बंधित नहीं होती जिनके अंक अच्छे नहीं होते, बल्की 98% से ऊपर के बच्चों का नाम भी इसमें शामिल है। दूसरों को अपने से एक-दो अंक अधिक मिलना भी ये बच्चे सहन नहीं कर पाते। जिनके अंक अच्छे नहीं उनका मानसिक संतुलन खोना तो समझ में आता है परंतु जिनके अंक बहुत अच्छे हैं उनके साथ ऐसा होना एक ही बात दर्शाता है कि वे अत्यंत दबाव में हैं। बच्चे अपने अंदर के गुणों को निखारने की बजाय केवल परीक्षा में अच्छे अंक लाने के पीछे भाग रहे हैं। इन बच्चों को देखते वक्त थ्री इडियट्स फिल्म का डायलॉग याद आता है कि “कामयाब नहीं काबिल बनो, कामयाबी साली झक मार के पीछे आएगी”। इस ‘नम्बर गेम’ ने बच्चों को रेस का घोड़ा बना दिया है। अच्छे अंक, मल्टीनेशनल कम्पनी में नौकरी, अच्छी सैलेरी, अच्छी कार, घर आदि अच्छे-अच्छे सपनों के पीछे भागते हुए मन:शांति, कलात्मकता, दोस्त, परिवार, रिश्ते-नाते आदि बातें नगण्य होती जा रही हैं।

इन सबके लिए बच्चे की परवरिश का माहौल जिम्मेदार होता है। इस माहौल को तैयार करने का काम केवल उस बच्चे के माता-पिता या परिवार के लोग ही नहीं हैं बल्कि रिश्तेदार, आसपड़ोस के लोग भी करते हैं। बच्चे के जन्म से ही उसकी तुलना दूसरे बच्चे से होनी शुरू हो जाती है। बचपन में ये पैमाने रंग, ऊंचाई, क्रियाएं, शैतानियां आदि होते हैं। जैसे-जैसे बच्चे की उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे पैमाने बदलते हैं परंतु तुलना वैसी ही रहती है और ये तुलना कब प्रतियोगिता में बदल जाती है यह न तो बच्चा समझ पाता है और न ही बड़े। अत: इस प्रतियोगिता की मर्यादा को समझना बहुत जरूरी है। प्रतियोगिता खुद से हो तो सबसे अच्छा। बच्चा हर बार पिछली बार से कुछ अच्छा करें और धीरे-धीरे प्रगति करें। घर परिवार में इस प्रकार का माहौल हो कि बच्चों को अंकों का नहीं वरन शिक्षा का महत्व के समझा सकें। शिष्टाचार, आदर, संस्कार इत्यादि से विरहित अंक बच्चों को केवल अंक लाने वाली मशीन बना देंगे, परिपूर्ण इंसान नहीं।

संवाद

आजकल परिवारों में संवाद न होने का दोष परिवारों के छोटे होते जा रहे आकारों को दिया जा रहा है। लेकिन क्या बड़े परिवारों में एक दूसरे से संवाद होने की कोई गारंटी ले सकता है? जिस प्रकार की भागदौड़ भरी जिंदगी हम जी रहे हैं उसमें संवाद के लिए परिवार का आकार नहीं सभी का एक समय पर उपलब्ध होना अधिक आवश्यक है। परिवार में भले ही माता पिता और बच्चे ही क्यों न हों परंतु वे सभी अगर किसी एक निश्चित समय पर साथ बैठकर बातें करें, अलग-अलग विषयों पर चर्चा करें तो भी बच्चों के मन की बातें समझीं जा सकती हैं। सुबह की चाय या रात का खाना एक साथ मिलकर खाएं। दिन भर में अपने साथ घटी घटनाएं, उसका प्रभाव, दूसरे दिन का कार्यक्रम आदि जैसी छोटी-छोटी बातें भी इस समय निर्धारित की जा सकती हैं।

मुझे एक परिवार की आदत बहुत अच्छी लगी। परिवार में माता-पिता और दो बेटियां हैं। उन्होंने हफ्ते में दो दिन तय कर रखे हैं, जब वे लोग रात को अपने स्कूल और ऑफिस से आने के बाद टीवी या अपने-अपने कामों में व्यस्त न होकर एक दिन खेल खेलते हैं और एक दिन पुस्तक पढ़ते हैं या किसी घटना की चर्चा करते हैं। परिवार के माता-पिता का कहना है कि “बढ़ती उम्र की बेटियों को हर प्रकार से सुरक्षित और समझदार बनाने में ये खेल और पठन-पाठन बहुत काम आता है। हम अपने अनुभव उन्हें बताते हैं, इसलिए वे भी खुलकर हमसे चर्चा करती हैं।”

इसी प्रकार बढ़ती उम्र के बच्चों को अगर माता-पिता घर के छोटे-छोटे निर्णयों में शामिल करते हैं तो बच्चे में भी जिम्मेदारी का भाव उत्पन्न होता है। खुशी, प्रसन्नता, अवसाद, गुस्सा, नकारात्मक भाव आदि सभी मनोभावों को अभिव्यक्त करने का एक मात्र माध्यम है संवाद। कई बार बच्चों को किसी सलाह मशविरे की या निर्णय की आवश्यकता नहीं होती। वे केवल अपने मन में चल रहे विचारों को व्यक्त करना चाहते हैं। ये पारिवारिक संवाद उनकी इस अपेक्षा को पूरा कर देते हैं।

ब्लू व्हेल जैसे मोबाइल गेम का शिकार हुए बच्चों के परिवार में संवाद की कमी प्रखरता से महसूस की जा सकती है। जरा सोचिए इतने दिनों तक बच्चा ऐसा खतरनाक खेल खेल रहा है इसकी भनक भी माता-पिता को नहीं लगी, ऐसा कैसे हो सकता है? इस प्रकार के खेल मानसिक रूप से अस्वस्थ बच्चों को ही अपना शिकार बनाते हैं, क्योंकि इनके मस्तिष्क पर नियंत्रण करना अधिक आसान होता है। अगर पालक नियमित रूप से संवाद करें, बच्चों के दिन भर के क्रियाकलापों की चर्चा करें तो निश्चित रूप वे समझ सकते हैं कि बच्चे कौन से खेल खेल रहे हैं और साथ ही वे किस मन:स्थिति से गुजर रहे हैं।

तकनीकी मनोरंजन का प्रभाव

मनोरंजन का मुख्य उद्देश्य दिनचर्या में से कुछ समय निकालकर उन कामों को करने से है, जो मन के लिए आल्हाददायी हों। गायन, नृत्य, संगीत, चित्रकला इत्यादि जैसी अपनी रुचियों को संजोकर मनोरंजन किया जा सकता है। परंतु आज लोगों के मनोरंजन का माध्यम टीवी और मोबाइल बन गया है। अपने और आस-पास के परिवारों पर गौर करें तो ध्यान में आता है कि बच्चे स्कूल से आने के बाद सबसे पहले टी.वी. का रिमोट या मोबाइल उठाते हैं। उन्हें न यूनिफार्म बदलने के जल्दी होती है न खाने-पीने की सुध। नशा करने वाला इंसान जिस तरह नशीले पदार्थों की खोज में रहता है वैसे ही ये बच्चे रिमोट और मोबाइल की खोज में रहते हैं।

आज सभी के लिए 24 बाय 7 मनोरंजन उपलब्ध है। इसी अति का परिणाम है कि बच्चे अपनी अन्य रुचियों की ओर भी ध्यान नहीं देते। या कहें वे यह जानते ही नहीं कि उनकी रुचि किसमें है। अकर्मण्यता और आलस दो ऐसी आदतें हैं जो इंसान को बहुत जल्दी अपनी गिरफ्त में ले लेती हैं।

पहले खेल गर्मी की छुट्टियों का सबसे पसंदीदा ‘टाइम पास’ होता था। न धूप की चिंता होती थी, न लू लगने की, न पांव जलने की। जब तक घर के बड़े डपटकर-खींचकर घर के अंदर न ले जाएं तब तक कोई बच्चा घर के अंदर नहीं जाता था। कई बार तो गली-मोहल्ले के सारे बच्चे एक ही घर में खेलते मिलते थे। मैदानी खेल खत्म होते ही कैरम, ताश, लूडो जैसे ’बोर्ड गेम’ शुरू हो जाते थे। छुट्टियों में अगर कहीं यात्रा करने का कार्यक्रम बनता तो एक बैग इन खिलौनों से भरी होती थी। परंतु आजकल बच्चे हर वक्त मोबाइल-टैब खेलते नजर आते हैं। यात्रा के समय भी मोबाइल रख लेने भर से इनका काम चल जाता है।

अति तो तब लगती है जब एक डेढ़ साल के बच्चे को बड़े लोग मोबाइल पर कार्टून दिखाते हुए खाना खिलाते हैं। इससे एक तो बच्चा एक जगह पर बैठा रहता है और दूसरा वह बिना नखरे किए जो खिलाओ सब खा लेता है। लेकिन इसका कितना विपरीत असर पड़ता है यह ध्यान में नहीं आता। हमारी परम्परा में भोजन को केवल शारीरिक अवश्यकताओं की पूर्ति का साधन नहीं माना जाता। यह किसी यज्ञ की तरह है जिसे शरीर के सभी अवयवों द्वारा ध्यान केंद्रित करकर किया जाना चाहिए। परंतु बचपन से ही अगर ध्यान कार्टून पर और भोजन मुंह में इस प्रकार की आदत डाली जाए तो इसके दुष्परिणाम भविष्य में होंगे ही। कई बार तो ‘स्वाद’ समझना भी मुश्किल हो जाता है। नमक-मिर्च कम अधिक है, कोई फर्क नहीं पडता। खाना ठंडा-गर्म है, कोई फर्क नहीं पड़ता। खाना बस इसलिए खाया जा रहा है क्योंकि पेट यह कह रहा है कि भूख लगी है। हमारे यहां ॠतुओं के समय के हिसाब से भोजन, नाश्ता, अल्पाहार आदि प्रकार के आहार होते हैं। खेलते-खेलते जब भूख लगती है तो नाश्ता करने का जो मजा आता है वह आज के बच्चे नहीं समझ रहे हैं क्योंकि मोबाइल देखते रहने के कारण या उस पर गेम खेलने के कारण उन्हें वास्तविक भूख नहीं लगती बस ‘टाइम पास’ के लिए कुछ खाना होता है।  इस प्रकार का खाना ही बीमारियों की निमंत्रित करता है।

तकनीकी मनोरंजन की इस अधिकता ने किन बीमारियों को निमंत्रित किया है यह तो एक अलग आलेख का विषय है परंतु यह भी सत्य है कि मनोरंजन की अधिकता इन बच्चों को शारीरिक और मानसिक रूप से निष्क्रिय बना रही है। मैदानी तो क्या आज के बच्चे घर के अंदर भी दोस्तों के साथ मोबाइल पर गेम खेलतेे दिखाई देते हैं, जो कि इनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव डाल रहे हैं।

क्या सब कुछ गलत है?

आलेख पढ़ने के बाद पाठकों के मन में अपने आस-पास के बच्चों की छवि उभरी होगी। यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या इन बच्चों के साथ सब कुछ गलत ही हो रहा है? क्या इनका भविष्य अंधकारमय है? नहीं। ऐसा बिलकुल नहीं है। लेकिन आज समाज को यह निर्णय लेना अत्यंत आवश्यक है कि वे बच्चों को अंकों और कृत्रिम सुख सुविधाओं के पीछे भागने वाली मशीन बनाना चाहता है या भावनाओं से ओतप्रोत आत्मशांति से युक्त संवेदनशील और सफल इंसानबनाना चाहता है। इंसान बनाने के लिए हमें बचपन से ही उनमें इंसानों के गुण डालने होंगे। जी हां! डालने होंगे इसलिए लिख रही हूं क्योंकि स्वभाव जन्मत: हो सकता है परंतु गुण-दोष समय और संगत के साथ बदलते हैं।

आजकल बच्चे यू-ट्यूब, गूगल जैसी चीजों को बड़ी आसानी से सीख समझ रहे हैं। कई बार तो बड़ों को जिस तकनीक को समझने में कई दिन लग जाते हैं बच्चे उन्हें कुछ घंटों में सीख जाते हैं और केवल सीख ही नहीं जाते उसमें निष्णात हो जाते हैं। 4-5 साल के बच्चे जिन्हें कार्टून ढ़ूंढ़ने के लिए यूट्यूब पर स्पेलिंग भी टाइप करना नहीं आता वे उस कार्टून को ढूंढ़ने के लिए भी बड़ों पर निर्भर नहीं हैं। वे सीधे स्पीकर पर कार्टून का नाम बोलते हैं, उसका आइकन पहचानते हैं, और अपना कार्टून देखने लगते हैं।

आज की पढ़ी अत्यधिक उन्नत है। सोचने, समझने की शक्ति में पिछली पीढ़ियों से कई गुना आगे हैं। अत: तकनीकी तौर पर उन्नति करना उनके खून में ही है। परंतु उनमें कमी दिखाई देती है संवेदनाओं की। इन संवेदनाओं को जागृत करने और रखने का निरंतर कार्य समाज को करना होगा। तभी भविष्य के स्वस्थ समाज का निर्माण हो सकेगा।

This Post Has 2 Comments

  1. वैशाली

    बहोत ही अभ्यासपूर्ण मांडणी और समयानुकूल चिंतन करने पर मजबूर करनेवाला लेख

  2. प्रोफेसर श्री राम अग्रवाल

    अत्यंत महत्वपूर्ण, अनुभवजन्य संवेदनाओं से परिपूर्ण अभिव्यक्ति।

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