अनचाहे मेहमान

एक गांव में एक किसान अपनी पत्नी के साथ रहता था। वह बहुत सीधा सादा और भला आदमी था।

डसकी पत्नी भी उसी की तरह भोली और नेक औरत थी।

छोनों पति पत्नी घर आए मेहमानों की खूब खातिरादारी करते थे, पर उन्हें ऐसे मेहमान पंसद नहीं थे जो आने के बाद जाने का नाम ही न लें।

वे चाहते थे कि मेहमान आएं, मगर एक दो दिन रूककर वापस चले जाएं। मेहमान अगर ज्यादा दिन रूक जाते थे तो उन्हें ज्यादा खर्च और परेशानी उठानी पड़ती थी।

एक बार की बात है। किसान के यहां उसका साला अपनी पत्नी तथा बच्चों के साथ घूमने आया।

किसान और उसकी पत्नी बहुत खुश हुए। दोनों ने उन लोगों की अच्छी खातिरदारी की।

दो तीन दिनों के बाद उन लोगों को वापस लौट जाना था, लेकिन यहां की खातिरदारी देखकर उन लोगों ने कुछ दिन और रूकने का मन बना लिया।

अब तो किसान और उसकी पत्नी सोच में पेड़ गए, क्योंकि उनके रूकने से किसान को परेशानी होने लगी। बच्चों ने भी धमा चौकड़ी मचाकर नाक में दम कर दिया था।

किसान और उसकी पत्नी ने सोचा, पता नहीं, ये कब यहां से जाएंगे।

एक सप्ताह के बाद भी जब उन लोगों ने लौटने का नाम नहीं लिया तो किसान ने एक उपाय सोचा।

अगले दिन खेत जाते समय किसान ने अपने साले को एक कुदाल और टोकरी पकड़ाते हुए कहा, ”साले साहब, आज मजदूर नहीं आया है। मेरे खेत के पास एक गड्डा है। उसे मिटृी से भरना है। जरा आप मेरे साथ खेत पर चलिए। मैं मिटृी काट काटकर दूंगा और आप टोकरी में डालकर गड्डे में भरते जाइएगा।“

यह सुनकर किसान का साला थोड़ा सकपकाया। चाहकर भी वह इनकार नहीं कर पाया। उसे किसान के साथ जाना पड़ा।

किसान के खेत के पास एक गड्डा था, हालांकि किसान को उस गड्डे से कोई लेना देना न था। परंतु साले को सबक सिखाने के लिए उसने मिटृी काटकर भरना शुरू कर दिया।

मिटृी ढो ढोकर कुछ ही देर में साले साहब का अंग अंग दुखने लगा। मारे भूख के पेट में चूहे कूदने लगे। रो धोकर उसे शाम तक मिटृी उठानी पड़ी।

लौटते ही उसने फैसला कर लिया कि अब वह यहां एक पल भी नहीं रूकेगा। उसने अपनी पत्नी को वापस चलने की तैयारी करने को कहा तो वह बोली, ”अभी क्या जल्दी है। अभी और चार पांच दिन रूको न, कितनी खातिरदारी हो रही है, हमारी यहां।“

उसने मुंह बिगाड़कर कहा, ”खातिरदारी हो रही है। मुझे नहीं रूकना यहां, तुम्हें रूकना है तो महीने भर रूको। मैं तो कल सुबह ही यहां से चला जाऊंगा।“

सुबह हुई तो साला बिना कुछ खाए पिए ही वहां से चल दिया। साले की पत्नी बच्चों के साथ अभी भी जमी हुई थी। उससे भी पिंड छुड़ाना जरूरी था।

अगले दिन किसान की पत्नी झूठ मूठ कराहती हुई बोली, ”भाभी! मुझे आज बुखार चढ़ आया है। मैं आज कोई काम न कर सकूंगी, खाना भी नहीं बना सकूंगी।“

साले की पत्नी बोली, ”कोई बात नहीं। तुम आरा करो। मैं खाना बना लेती हूं।“ यह कहकर वह उठी और रसोई में जाने लगी।

”रूको भाभी,“ किसान की पत्नी ने उसे रोकते हुए कहा, ”खाना बाद में बनाना पहले घर द्वार की झाड़ू से सफाई कर लो, कुछ गंदे कपड़े पड़े हैं, उन्हें भी धो डालना। चालीस किलो गेहूं भी चक्की में पीसना है।“

साले की पत्नी काम में जुट गई। काम निपटाते निपटाते शाम हो गई। इस बीच वह भूखी प्यासी ही रही। भूख के मारे उसका बुरा हाल हो रहा था। किसी तरह रोते झींकते उसने सारा काम पूरा किया। उसे किसान की पत्नी का यह व्यवहार बेहद अखरा। उसने समझ लिया कि अब यहां से जाने में ही भलाई है।

अगली सुबह वह बच्चों के साथ जाने लगी तो किसान की पत्नी बोली, ”भाभी! मेरी तबीयत खराब है अभी दो चार दिन और रूक जाती तो अच्छा रहता।“

”नहीं, अब मैं यहां नहीं रूकूंगी। मेरा घर जाना बहुत जरूरी है।“ यह कहकर वह बच्चों के साथ चल दी।

किसान और उसकी पत्नी ने चैन की सांस ली।

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