जैसे को तैसा

दो दोस्त थे। लंगोटिया यार, दांत काटी रोटी। संग उठते, संग बैठते। जहां जाते संग संग जाते।

एक का नाम था, फंसाता सिंह।

दूसरे का नाम था छुटाता सिंह। लेकिन फंसाता सिंह के जिम्मे कमाना था और छुटाता सिंह के जिम्मे खाना। एक बाद दोनों साथ साथ व्यापार करने चले।

जाते जाते दोनों चतुरपुर पहुंचे। चतुरपुर की सीमा के निकट, सराय में दोनों ने डेरा डाला। छुटाता सिंह बोला, ”दोस्त, फंसाता सिंह मैं तो यहीं पड़ा रहूंगा। मौज की छानूंगा, चैन की बंसी बजाऊंगा, तुम अपना व्यापार संभालो।“

फंसाता सिंह अपने घोड़े पर सवार हो, चतुरपुर नगर में व्यापार की खोज में चला। एक थैली में उसने एक हजार अशर्फियां डालीं और थैली घोड़े के जीन के साथ बांध दी। नगर में घूम रहा था कि एक ने पूछा, ”क्यों भाई! घोड़ा बिकाऊ है।“

फंसाता सिंह बोला, ”बिकाऊ तो है, पर कीमत ज्यादा है, तुम चुका नहीं पाओगे। कौन सा धंधा रोजगार करते हो?“

वह बोला, ”मेरा नाम कल्लन कसाई है। बकरियां काटता हूं, गोश्त बेचता हूं। पर आपको इससे क्या? घोड़े की कीमत बताइए। मेरे वश का होगा, ले लूंगा, नहीं तो आपका घोड़ा आपके पास। ट-ट-ट कीजिए, आगे बढ़ जाइए।“

फंसाता सिंह बोला, ”मेरे घोड़े की कीमत है पांच सौ अशर्फियां।“

कल्लन बोला, ”यूं तो अच्छे से अच्छा अरबी घोड़ा भी सौ अशर्फियों में आ जाता है, पर आपके घोड़े के लिए पांच सौ अशर्फियां गिन दी।“

फंसाता सिंह घोड़े से उतर गया। लेकिन जब जीन से अशर्फियों की थैली खोलने लगा, तो कल्लन बोला, ”यह जीन से क्या खोल रहे हो भाई?“

”अपनी अशर्फियों की थैली निकाल रहा हूं।“

”बस, बस, चमड़े के हाथ, दमड़ी की बात जरा परे ही रखना। मियां घोड़ा बिक चुका है और बिकते समय यह शर्त तय नहीं हुई थी कि घोड़े पर से सामान उतार लिया जाएगा।“ और कल्लन ने घोड़े की लगाम खींच ली। घोड़ा लेकर वह चला गया।

फंसाता सिंह चिल्लाया, ”लानत है इस नगर को। व्यापार में भी जबरदस्ती और धोखेबाजी चलती है।“

कल्लन चिल्लाया, ”मियां यह चतुरपुर है? चतुरपुर। चतुरपुर की हर चीज में चतुराई चलती है।“

फंसाता सिंह अपना सा मुंह ले सराय लौटा, तो छुटाता सिंह ने पूछा, ”माता पिता को श्री खंड साल, लाल दुशाला लगे तो बरसों हो गए, अब किसका मातम मना रहे हो?“

फंसाता सिंह ने सारी कहानी बताई और कहा, ”भाई छुटाता सिंह, गांठ की जमा पूंजी गंवा बैठा हूं। अब भला क्या व्यापार करूंगा इस चतुरपुर में? चल, भैया किसी और नगर में चलें।“

”सियार के भौंकने से गांव नहीं छोड़ा जाता।“ छुटाता सिंह बोला, ”खैर, तुमने व्यापार करके वर्षां तक मुझे चुपड़ी खिलाई है, अब मुझे पच्चीस अशर्फियां दे दो, मैं व्यापार करूंगा।“

फंसाता सिंह बोला, ”जब तुम्हें व्यापार करना ही है तो ये पांच सौ अशर्फियाँ ले जाओ, पच्चीस अशर्फियों से क्या व्यापार करोगे?“

”पांच सौ अशर्फियों से व्यापार फंसाता सिंह ही कर सकते हैं छुटाता सिंह के लिए तो पच्चीस ही अशर्फियां बहुत हैं।“

पच्चीस अशर्फियां पल्ले बांध छुटाता सिंह चतुरपुर नगर की ओर चला।

नगर में पहुंच, छुटाता सिंह सीधा कल्लन कसाई के पास पहुंचा। कल्लन दुकान पर बैठा कीमा बना रहा था। दुकान में बकरियों के चार पांच सिर टंगे हुए थे। दुकान की ऊपरी मंजिल में, कल्लन के बाल बच्चे बरामदे में बैठे हुए थे।

छुटाता सिंह ने पूछा, ”कल्लन मियां, सिर क्या भाव दिए?“

”भाव क्या बस, अशर्फी सिर है।“ कल्लन बोला।

”हर सिर अशर्फी का है।“

”हां।“

”हर सिर अशर्फी में दोगे?“

”हां।“ कल्लन ने कहा।

”तो पच्चीस सिर देना।“ छुटाता सिंह अशर्फियां गिनते हुए बोला।

”बकरी के सिर तो चार पांच ही हैं- मैं पच्चीस कहां से लाऊं? ये पांच हैं, पांच अशर्फियां गिनिए, पांच सिर ले जाइए।“ कल्लन बोला।

”लेकिन मुझे तो पूरे पच्चीस सिर चाहिए।“ बकरी के ही सिर हों, यह कोई जरूरी नहीं। सौदा तो हरेक सिर का तय हुआ है। ऊपर बरामदे में कितने ही बैठे हुए हैं, पहले उनके सिर उतारकर लाओ, मुझे तो पच्चीस सिर चाहिए।

अब कल्लन मियां घबराए। हाथ जोड़ने लगे। माफी मांगने लगे कि गलती हो गई, माफ कर दीजिए। भविष्य में ऐसी मूर्खता कभी नहीं होगी।

”चतुरपुर में तो मूर्खता का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए। यहां की तो हर चीज में चतुराई होती है। खैर, मैं क्या जानूं कि तुम मूर्ख भी हो या नहीं। मुझे तो बस पच्चीस सिर चाहिए। पच्चीस सिर पूरे करके दे दो, तो मैं परदेसी आदमी अपनी मंजिल तय करूं।“ छुटाता सिंह हंसकर बोला।

अब तो कल्लन छुटाता सिंह के पांवों में गिर गया, ”बस, बस! अब मैं समझ गया। कल जिससे मैंने घोड़ा लिया था, आप उन्हीं के दोस्त हैं। आप अपना घोड़ा भी ले जाइए और अपनी अशर्फियां भी। मेरी, मेरे बच्चों की जान बख्श दीजिए।“

छुटाता सिंह घोड़ा और हजार अशर्फियां लेकर वापस सराय में लौट गया।

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