खूब लडी मर्दानी

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अटूट राष्ट्रनिष्ठा एव अंतिम क्षणों तक सतीत्व रक्षा के प्रति जागृत थी। यह बोध आज की पीढ़ी के लिए सचमुच प्रेरणादाई है। आज की युवा पीढ़ी को चाहिए कि वह रानी के बलिदान को व्यर्थ न जाने दे। २५ मई (शासकीय रुप से ) को बलिदान दिवस पर विशेष-

दरणीय सुभद्रा कुमारी चौहान जी की ये पक्तियां, हमारीनसों में आज भी जोश भरने के लिए पर्याप्त हैं। परन्तु ये पक्तियां उन तक पहुंचनी तो चाहिए जो प्रति वर्ष उनके बलिदान दिवस पर उनका स्मरण करते हैं और भूल जाते हैं सालभर। उनका वह ओजस्वी नेतृत्व युगानूकुल आज भी कितना प्रेरणादाई एवं सार्थक है यह हम विस्मृत कर देते हैं। रानी के गुणों को आत्मसात करना जिसके कारण वह मर्दानी बनी वर्तमान पीढ़ी की महती आवश्यकता है।
कहते हैं कि पूत के पांव पलने में ही दिखने लगते है। रानी बचपन में मनु नाम से जानी जाती थी। बचपन में बालिकाएं स्वभावत: गुडियां का खेल खेलना पसंद करती है। उस उम्र में मनु का नकली किले बना कर युद्ध करना और किले जितना प्रिय खेल था। नकली घोड़ा, नकली तलवार, रेत के टिले ये उसके खेल के साधन थे। दस ग्यारह की उम्र में तो नाना साहब एवं राव साहब के साथ तेज घुड़सवारी करना एवं उनसे भी आगे निकल जाना उसका शौक ही बन गया। अर्थात साहस, धैर्य, निर्भयता इन गुणों का समुच्चय बचपन से ही उसके स्वभाव में दिखने लगा था।
बचपन की ही एक घटना से ही उसमें विद्वेश का भाव जगा दिया। उसके मन में यह बात घर कर गई कि बाजीराव पेशवा को, जिन्हें वह पितृतुल्य मानती थी, उन्हें अंग्रेजों के कारण ही अपना राज्य छोड़ कर काशी में निवास करना पड़ रहा है। एक दूसरी घटना ने तो उसके बाल मन पर गहरी चोट पंहुचाई और विद्वेश की आग और भड़क उठी। हुआ यह कि छोटी सी मनु अपनी मां के साथ गंगा नहाने जा रही थी। अंग्रेज अफसर की तेज आती बग्गी ने उन्हें रास्ते से हटने का मौका ही नहीं दिया और धक्का मारकर गालियां देते निकल गई। मनु की माताजी उस जबरदस्त धक्के से घायल हो गई। मनु को अंग्रेजों का यह व्यवहार नागवार गुजरा। वह उस कच्ची उम्र में भी क्रोध से उबल पड़ी और उस बाल मन ने निश्चय किया कि मैं इसका बदला लेकर रहूंगी। इस घटना से ही उसके मन में राष्ट्र निष्ठा के भाव जागृत हुए। मुझे मेरे देश से इन दुष्ट अंग्रेजों को भगाना ही है। यह भावना बलवती हुई।
भाग्य से मनु झांसी के राजा गंगाधर पंत से विवाहबद्ध हो झांसी आई। यहां आते ही रानी पर राजघराने के अनेक बंधन आए परन्तु रानी ने हार नहीं मानी। उसने महल के अन्दर रह कर ही अपनी दासियों को अपने मृदु स्वभाव से सखियों में बदला। अपने संगठन कौशल्य से उन्हें एकत्रित कर धीरे-धीरे महल के अन्दर के मैदान में ही घुड़सवारी करना, तलवार चलाना तथा युद्ध कला के अनेक गुर सिखाने शुरू किए तथा एक सशक्त स्त्री सेना तैयार कर ली। अर्थात उनकी नेतृत्व क्षमता की शुरुआत यहीं से दिखने लगी थी।
विपरीत परिस्थितियों में भी रानी के संगठन कौशल्य एवं नेतृत्व क्षमता ने झांसी की महिलाओं के अन्दर साहस, धैर्य, निर्भयता एवं राष्ट्र के प्रति दृढ निष्ठा एवं समर्पण का भाव जगा दिया। सुन्दर सुन्दर एवं झलकारी जैसी सखियां तो मानो रानी का प्रति रूप ही बन गई थीं।
रानी के अद्भुत साहस एवं अद्भुत इच्छा शक्ति का परिचय तो सब को तब हुआ जब गंगाधर पंत की मृत्यु के पश्चात लार्ड डलहौसी ने दत्तक विधान नामंजूर कर झांसी को खालसा घोषित करने का पत्र रानी के पास भेजा। अंग्रेजों का पत्र देखते ही क्रोधित सिंहनी की भांति रानी गरज उठी, ‘मैं मेरी झांसी नहीं दूंगी। नहीं दूंगी।’ रानी की इस गर्जना से अंग्रेज दल कांप उठे। परन्तु सारा दरबार रानी की इस हुंकार से चैतन्यमय हो उठा; और इस हुंकार से ही रानी की अंग्रेजों से संघर्ष यात्रा प्रारंभ हुई।
ह्यूरोज के आक्रमण के समय रानी का नेतृत्व देख अंग्रेज भी चकित रह गए। उस युद्ध के पराजय में भी रानी ने अपना धैर्य नहीं खोया। बालक दामोदर को पीठ पर बांध कर अपने सफेद अश्व पर सवार हो पीछे से किले से छलांग लगाकर १०० मील प्रति घंटे की रफ्तार से अंग्रेजों को चकमा देकर कालपी पहुंची। रजस्वला अवस्था में भी रानी का यह दुर्दम्य साहस वर्तमान पीढ़ी के लिए प्रेरणा देने वाला प्रसंग है। बीच रास्ते में रुक कर एक गांव में दामोदर को दूधभात खिलाया। मर्दानगी एवं मातृत्व दोनों भाव रानी ने बखूबी निभाए। ग्वालियर पहुंच कर रानी ने रावसाहब के साथ सेना जुटाई। पीछा करते अंग्रेजों को हराया, परन्तु रावसाहब विजय राज्यारोहण का उत्सव मनाते रहे और अंग्रेजों ने पुन: पूरी शक्ति के साथ आक्रमण कर दिया। रानी ने केवल झांसी का नेतृत्व ही नहीं अपितु १८५७ की पूरे भारत में चल रही क्रांति का भी नेतृत्व किया। नानासाहब, तात्या टोपे एवं बहादुरशाह के साथ रानी का सहयोग अवर्णनीय एवं अकल्पनीय है। क्रांति की आग की लपटें निर्धारित समय से पूर्ण ही भड़क उठी थीं। परन्तु उस धधकती ज्वाला का नेतृत्व भी रानी ने उतने ही धैर्य से साहस के साथ किया। युद्ध के समय आकाशीय बिजली की चमक सी कड़कती रानी गिरती बिजली बन अंग्रेजों पर टूट पड़ी। अंग्रेज चकित हो देख रहे।
काल घटाओं से घिरी समरभूमि यामिनी
क्षण इधर क्षण उधर कड़क रही थी दामिनी॥
मृत्यु का तांडव चल रहा था। अंतिम क्षणों तक रानी लड़ती रही। परन्तु अंत में अपने आपको अकेले घिरते देख रानी ने युद्ध भूमि से दूर जाने का निश्चय किया। वह अपने नख का भी स्पर्श अंग्रेजों को नहीं होने देना चाहती थी।
रानी युद्धभूमि से किले के अन्दर से बाहर निकली परन्तु सामने आया नाला नया घोड़ा पार न कर सका। एक एक कर शत्रु पीछा करते आए। उस अवस्था में भी रानी ने उन्हें मृत्यु के घाट उतारा। परन्तु इस युद्ध में रानी के शरीर पर भी गहरे घाव लगे। बाई आंख, बाया कंधा चीरता एक वार तो एक रानी के। उदर तक पहुंचा। मृत्यु निकट देख रानी ने ग्लानि की अवस्था में निर्णय किया महामृत्यु के आलिंगन का। बाबा गंगाराव की कुटिया रानी के अंतिम संस्कार का साधन बनी। बेटे दामोदर को सुरक्षित स्थान पर भेजने की व्यवस्था की। और रानी ने इस संसार से विदा ली। अंग्रेजों के हाथ राख भी नहीं लगी। अटूट राष्ट्रनिष्ठा एव अंतिम क्षणों तक सतीत्व रक्षा का जागृत बोध आज की पीढ़ी के लिए सचमुच प्रेरणादाई है। आज की युवा पीढ़ी रानी के बलिदान को व्यर्थ न जाने दे यही अपेक्षा है।
मो. : ९८२७१९०६६५

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