नया भारत और सामाजिक समरसता

नव भारत की समरसता केवल जातिभेद, अस्पृश्यता का विचार करने वाली नहीं हो सकती। …सब हमारे आत्मीय हैं, कोई पराया नहीं है। मुसलमान, ईसाई भी पराये नहीं हैं। हमारे भारतीय वंश के हैं, भारत माता की संतान हैं। …नव भारत का यही धर्म है और यही सनातन धर्म है। यही सनातन धर्म इस राष्ट्र का राष्ट्रवाद है।

नया भारत इस शब्द में छिपा एक दूसरा शब्द है पुराना भारत। पुराने भारत को समझे बिना नया भारत क्या है, यह समझ में नहीं आता। यदि दूसरे अर्थ से देखा जाए तो भारत नया भी नहीं है और पुराना भी नहीं है। भारत ‘भारत’ है, सनातन है और प्राचीन है। इसका कोई निर्माता नहीं है, न ही कोई राष्ट्र का पिता है। ऐसा भारत हजारों वर्षों के इतिहास में काल के अनुरूप बदलता रहा है। इसकी समाज रचना बदल गई, पोशाक बदलता गया, खाने की आदतें बदलती गईं, भाषा में बदलाव होता गया, रीतीरिवाजों में बदलाव होता गया, इतना ही नहीं देवताओं की संकल्पना में भी बदलाव होते गए।

ऐसे बदलाव भारत नामक एक ही संकल्पना में हुए हैं। परंतु ऊपरी बदलाव चाहे जितना भी हुआ हो, भारत बदलता नहीं है। भारत ‘भारत’ ही रहता है। अनादि काल से भारत निरंतर सत्य की अनुभूति की खोज में है। “सत्य की अनुभूति की खोज” की यात्रा को धर्म मार्ग कहा गया है। यह धर्म सनातन है और वह भारत की आत्मा है। वह कभी बदलता नहीं। कारण वह शाश्वत सत्य पर आधारित है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता।  एक कहानी के माध्यम से यह बात अच्छी तरह समझी जा सकती है। तीन राजपुत्र थे। उन्हें बताया गया कि घने जंगल में एक अप्रतिम वृक्ष है। उसके जैसा कोई दूसरा वृक्ष नहीं है। वह अतिशय सुंदर है। उसमें सुंदर फूल और फल लगते हैं। उस वृक्ष को देखने के लिए बड़ा राजपुत्र जंगल में जाता है। वह वृक्ष तो खोज लेता है परंतु गर्मी का मौसम होने के कारण वृक्ष पर न पत्ते होते हैं, न ही फूल। वह कहता है यह कैसा सुंदर वृक्ष? दूसरा राजपुत्र वृक्ष की खोज में जाता है। उस समय वसंत ऋतु होती है, वृक्ष में सुंदर लाल फूल लगे होते हैं, वह कहता है वाह कितना सुंदर वृक्ष है! जब तीसरा राजपुत्र जाता है तब वृक्ष के फूल मुरझाकर गिर गए होते हैं, उस पर केवल हरे पत्ते होते हैं। जब तीनों आपस में मिलते हैं तब वे अपने द्वारा देखे वृक्ष का वर्णन करते हैं। पहला कहता है- वृक्ष केवल सूखी लकड़ियां हैं, दूसरा कहता है- नहीं, वह तो अच्छे फूलों वाला वृक्ष है। तीसरा कहता है कि वह तो हरे पत्तों का वृक्ष है। तीनों में विवाद होने लगता है। वे राजा के पास जाकर अपनी-अपनी बात कहते हैं। राजा उनका कहना सुन लेता है और उनसे कहता है, ‘तुम तीनों ने वृक्ष के तीन रूप देखे हैं, यह सत्य है। एक ही वृक्ष की ये तीन अवस्थाएं हैं। गर्मी में पत्ते गिर जाते हैं इसलिए वृक्ष की केवल सूखीे टहनियां दिखती हैं। वसंत ऋतु में उसमें फूल खिलते हैं और बाद में पत्ते आते हैं। तुम तीनों का कहना तुम्हारे देखे अनुसार सही है।

भारत की व्यवस्था भी ऐसी ही है। कभी वह वैभव के शिखर पर होती है तो कभी घोर दरिद्रता के गर्त में पड़ी होती है। कभी उसकी समाज व्यवस्था अत्यंत आदर्श होती है तो कभी अत्यंत दयनीय होती है। कभी वह अत्यंत सद्विचारी होती है तो कभी रु़ढ़ी, अंधश्रद्धा, कुविचार का ग्रास बन जाती है। यह दूसरी अवस्था मुसलमानी आक्रमण के बाद शुरू होती है। अंग्रेजों के राज में उसका परमोत्कर्ष था और  इसी राज में भारत का चरम अध:पतन हुआ। टॉलस्टॉय का लेटर ‘टू ए हिंदू‘ बहुत प्रसिद्ध हुआ। महात्मा गांधी जी के जीवन पर उसका प्रभाव पड़ा। इस पत्र में एक जगह टॉलस्टॉय लिखते हैं, ‘करो़ड़ों हिंदू, हजारों अंग्रेजों की गुलामी में कैसे रहते हैं? उसका कारण एक ही है, उन्होंने गुलामी में ही रहना है तय किया है। जिस दिन वे ठान लेंगे कि उन्हें गुलामी में नहीं रहना है, उसी दिन वे मुक्त हो जाएंगे। पतन की अवस्था में समाज का, धर्म का, अर्थनीति, राजनीति, समाजनीति, सबका पतन होता है। ये सब विषय आपस में जुड़े हुए हैं। परस्परावलंबी हैं। धर्म के उत्थान से अर्थनीति, राजनीति, समाजनीति का उत्थान होता है। योगी अरविंद ने उन्तरपारा के भाषण में कहा था कि “सनातन धर्म और राष्ट्रवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।“ धर्म के उत्थान में राष्ट्र का उत्थान एवं पतन में राष्ट्र का पतन निहित है।

धर्म के पतन के कारण ही हमारे समाज की रचना में बहुत बिगड़ाव आ गए। उसमें पुराना भारत तैयार हो गया। इस पुराने भारत में जाति का पैमाना तैयार हुआ। जाति की श्रेणीबद्ध रचना तैयार हो गई। समाज में उनका स्थान उनकी श्रेणी के अनुसार तय हुआ। कुछ जातियों ने अपने पास सभी अधिकार और सुविधाएं रख लीं। अन्य जातियों को अलग-अलग प्रकार से अपनी गुलामी में रखा। समाज के एक बड़े वर्ग को “अछूत” बना दिया गया। उसका स्पर्श भी अपवित्र माना गया। पवित्रता एवं अपवित्रता जन्म से ठहराई जाने लगी। धर्म याने जातिभेद, पंक्तिभेद, स्पर्शभेद हो गया। धर्म का तत्वज्ञान धर्म ग्रंथ में सिमटकर रह गया। इस तत्वज्ञान के विरुद्ध व्यवहार होने लगे। यह जोर देकर बताया जाने लगा कि इस व्यवहार को धर्म की मान्यता है। इसके लिए बनावटी धर्मग्रंथों की रचना की गई। वे ग्रंथ लोगों पर जबरदन थोपे गए। अज्ञानी लोगों को वही सच्चे लगे और उन्होंने गुलामी स्वीकार की। गुलामी में रहने लगे।

गुलामी में रहने की यदि आदत पड़ जाए तो मालिक कौन, इसका कोई बहुत विचार नहीं करता है। गुलामी में रहने वाला सोचता है कि मुझे तो गुलामी मेें ही रहना है तब मालिक चाहे मुहम्मद हो, महादेव हो, या मायकल हो, मुझे क्या फर्क पड़ता है?

इसाप एक कहानी बताता है। एक गांव में विदेशी आक्रमणकारी आते हैं। सब लोग भागने लगते हैं। गांव का धोबी भी भागने लगता है। वह अपने गधे को कहता है, “तू भी भाग, आक्रामक लोग आ रहे हैं, वे तुझे भी पकड़ लेंगे।” गधा धोबी से कहता है, “मालिक, मैं क्यों भागूं? नया आने वाला मालिक मेरी पीठ पर उतना ही बोझा लादेगा, जितना आप लादते हैं। मुझे क्या फर्क प़ड़ने वाला है? मालिक चाहें आप रहें या आने वाला आक्रामक, मेरी परिस्थिति में कुछ भी अंतर आने वाला नहीं है।“ सब समाज के बहुसंख्यक वर्ग की जब ऐसी मानसिकता हो जाती है तब देश गुलाम हो जाता है।

नव भारत का स्वप्न जिन-जिन लोगों ने देखा उन-उन लोगों ने इस पुराने भारत को अपने-अपने तरीके से सुधारने का प्रयत्न किया। राजा राममोहन रॉय से यह पुराना भारत सुधारने की प्रक्रिया शुरू होती है। पति की मृत्यु के बाद जबरदस्ती स्त्री को चिता पर बिठाने (सती होने) की जो रूढ़ि थी उसके विरुद्ध राजा राममोहन रॉय ने जनजागृति की। धर्म सुधार का प्रयत्न उन्होंने किया। उन्होंने जो सुधार की प्रक्रिया प्रारंभ की थी वह बाद में कम नहीं हुई वरन बढ़ती ही गई। वह प्रवाह बाद में नदी में रूपांतरित हो गया। इस प्रवाह को और बड़ा करने का काम स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, स्वामी रामतीर्थ, नारायण गुरु, रमण महर्षि, योगी अरविंद इत्यादी महान आत्माओं ने धर्म के क्षेत्र में किया। प्रत्येक ने अपने-अपने तौर पर सत्य का जो दर्शन किया उसे लोगों के सामने रखा। स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा, वेद सर्वश्रेष्ठ है, मूर्तिपूजा ढकोसला है, अस्पृश्यता वेद सम्मत नहीं है। स्वामी विवेकानंद ने अद्वैत तत्वज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। जो आत्मतत्व तुझ में है एवं मुझ में भी है वह हीन कैसे हो सकता है? हम सब एक ही परमात्मा के रूप हैं। उस परमात्मा के पास अनंत कोटि ब्रह्मांड निर्माण करने की ताकत है। उसका अंश मैं और मुझ में भी यह प्रचंड़ शक्ति है। मैं दुर्बल नहीं, मैं अस्पृश्य नहीं, मैं दीनहीन पतित नहीं। मैं आत्मतत्व हूं। ऐसा एक जबरदस्त विचार विवेकानंद ने रखा।

इसके बाद के काल में सामाजिक क्षेत्र में महात्मा ज्योतिबा फुले, डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, गाडगे बाबा, महात्मा गांधी, स्वातंत्र्यवीर सावरकर ने जातिभेद, अस्पृश्यता के विरुद्ध लड़ाई छेड़ी। इन सब महापुरुषों के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि, प्रत्येक ने जो ज्ञान प्राप्त किया और जो सत्य की अनुभूति महसूस की, उस सत्य के प्रकाश में उन्होंने अपना विषय समाज के सम्मुख रखा। डॉ. बाबासाहब आंबेडकर को असपृश्यता का दंश बहुत सहना पड़ा। रूढ़ियों एवं धर्ममार्तड़ों के प्रहार झेलने पड़े। इसके लिए उन्होंने इन सब प्रथाओं के लिए हिंदू एवं हिंदू धर्मशास्त्रों को जवाबदेह ठहराया। महात्मा गांधी ने बताया कि अस्पृश्यता और धर्म का कोई संबंध नहीं है, वह एक रूढ़ी है। धर्मतत्व बहुत उदात्त व महान है। वह व्यक्ति-व्यक्ति में भेद करना नहीं सिखाता। सावरकर ने बुद्धिवाद के आधार पर जातिप्रथा, जातिभेद   किस प्रकार निरर्थक हैं इसका प्रतिपादन किया।

आंबेडकरजी ने आंदोलन का मार्ग स्वीकार किया। महात्मा गांधी ने सेवा का मार्ग स्वीकार किया और सावरकरजी ने बुद्धिवाद के मार्ग से विचार परिवर्तन का प्रयास किया। हमारे तथाकथित प्रगतिशील लोग अपने को प्रगतिशील दर्शाने के लिए इन महापुरुषों को एक दूसरे के विरुद्ध खड़ा करते हैं। इसमें उनका राजनीतिक स्वार्थ होता है, समाज में कलह निर्माण हो ऐसी उनकी मनोवृत्ति होती है। परंतु जिस सनातन भारत के हम अंग हैं, उस सनातन भारत की विचार करने की यह पद्धति नहीं है। सनातन भारत की विचार करने की पद्धति सबका ऋणी होने की एवं सबमें जो अच्छा है उसे ग्रहण कर आगे बढ़ने की है।

इस पद्धति का विकास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने किया है। संघ की स्थापना डॉ. हेडगेवार जी ने की। संघ स्थापना के पीछे उनकी दूरदृष्टि थी। वह थी धर्म का पुनरुत्थान, समाज की पुनर्रचना, राजनीतिक सत्ता राष्ट्रीय लोगों के हाथों में हो, भारत का सार्वत्रिक विकास भारत के सनातन धर्म और तत्वज्ञान के मार्ग से हो। इसके लिए प्रारंभ से ही संघ ने कुछ बातों को खयाल रखा। हमें कोई बंदिस्त विचारों की न किताब तैयार करनी है, न ही कोई ग्रंथ लिखना है; वरन् व्यापक दृष्टि वाला सर्वसमावेशक विचार करने वाला और सबमें समरस होने वाला हिंदू खड़ा करना है।

यह कार्य सन 1925 में प्रारंभ हुआ। किसी भी महान कार्य का आकलन होने के लिए बहुत समय लगता है। समाज परंपरावादी होता है। परंपरा से जो बातें चलती आई हैं, उन्हें वह सहजता से छोड़ने को तैयार नहीं होता है। वह कहता है कि, मेरे कुंए का पानी खारा है। पीने लायक नहीं है; परंतु मेरे बाप-दादे उसे पीते आए हैं, उन्हें कुछ नहीं हुआ तो मुझे क्या होगा? मैं घर में नल नहीं लगवाऊंगा। मैं इसी कुंए का पानी पीऊंगा। इस सोच के कारण पहले तीस-चालीस वर्षों में तो यह कहकर समाज में संघकार्य की उपेक्षा हुई कि हाफ पैंट पहनकर, हाथ में लाठी लेकर, काली टोपी पहनने से क्या समाज परिवर्तन होगा?

परंतु बाद के कालखंड में राज्यसत्ता (शासनकर्ताओं) को यह लगने लगा कि आगे चलकर संघ हमारे सामने संकट पैदा कर सकता है इसलिए इसे समाप्त कर देना चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे देश में सनातन विचारों से शत्रुता रखने वाले लोग सत्ता पर आसीन हुए। “जे जे हिंदू ते ते निन्दू” अर्थात जो भी हिंदू हैं वह हमें अप्रिय है यह उनका घोषवाक्य बन गया। हिंदू विचार दबाने का, मारने का, उसे गाड़ने का प्रयत्न उन्होंने सत्ता के माध्यम से किया। कहते हैं,  बोधगया में जिस पीपल के वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई थी, उस बोधी वृक्ष को अंग्रेजों ने काटा। वह ब़ढ़े नहीं इसलिए जड़ों में सीसे का रस डाला। कुछ वर्षों में सीसा फोड़कर वृक्ष में कोंपलें फूटीं।  भारतीय आत्मा का भी यही प्रकार है। वह अमर है उसका यदि कोई नाश करने का प्रयत्न करता है तो उसे असफलता ही हाथ लगेगी। मारने वाले मर जाते हैं, परंतु भारत, भारत के रूप में ही खड़ा रहता है।

इस कालखंड में से संघकार्य अब समाज स्वीकृती के कालखंड में पहुंच गया है। अब उपेक्षा करने वाले उपेक्षित हो गए हैं, विरोध करने वाले धराशायी हो गए हैं। संघकार्य का भावनात्मक विचार करने की मानसिकता में अब समाज पहुंच चुका है। भारत का जो सनातन स्वभाव है उसे जीने वाले, चलते-बोलते लोग संघ ने समाज में खड़े किए हैं। वैसी संस्थाएं खड़ी की हैं, वैसे ही उनका काम खड़ा हुआ है। उनका काम अब समाज की मान्यता पर चल रहा है। प्रत्येक संस्था अपने-अपने कार्यक्षेत्र में अपने दम पर पांव जमाकर खड़ी है। उनके कामकाज का विस्तार भी बड़े पैमाने पर हो रहा है।

राजा राम मोहन रॉय के काल से जिन महापुरुषों ने नव- भारत की निर्मिति का विचार किया था उन विचारों का समन्वय याने आज का संघ है। उदाहरण के लिए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने अस्पृश्यता के विरुद्ध लड़ाई लड़ते समय कुछ विचार रखे थे। उनमें एक महान विचार था स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व के आधार पर समाज की पुनर्रचना होनी चाहिए। समाज में प्रत्येक व्यक्ति को स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। समता के आधार पर आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रचना होनी चाहिए, समाज में बंधुभाव निर्माण होना चाहिए।

महात्मा गांधी ने कहा कि, “कोई भी योजना बनाते समय आंखों के सामने अंतिम पंक्ति का अंतिम व्यक्ति होना चाहिए।“ यह विचार करना आवश्यक है कि मेरी इस योजना से उस अंतिम व्यक्ति को कुछ लाभ होने वाला है या नहीं? सावरकरजी ने कहा था, “जन्मत: जातिभेद, अस्पृश्यता इनमें से किसी को भी वंशवाद, आनुवंशिकता का आधार नहीं है। ये सब मानव निर्मित कल्पनाएं हैं। इनका त्याग करना चाहिए।”

इन सबका समन्वय कर संघ कहता है कि स्वतंत्रता, समता एवं बंधुता इन सबका यदि अनुभव लेना हो तो समाज में “समरसता” होनी चाहिए। समरसता का आधार भौतिक नहीं हो सकता। एक ही चैतन्य हम सब में विद्यमान है। जिस बात से मुझे आनंद होता है उस बात से दूसरे को भी आनंद होता है और जिस बात से मुझे कष्ट होता है उसके कारण दूसरे को भी कष्ट ही होता है, “जैसा मैं वैसा ही तू” इस भावना से परस्पर व्यवहार होना चाहिए। सिद्धांतों के स्तर पर मैं और तू का भेद नहीं रहता। हम सब एक ही हैं, एक ही चेतना के विविध रूपों में हमारा अस्तित्व है।

नव भारत की समरसता केवल जातिभेद, अस्पृश्यता का विचार करने वाली नहीं हो सकती। विचारों का समन्वय और वैचारिक समरसता यह उसके इस काल के अंग हैं। हमारा देश बड़ा है। जनसंख्या बहुत ज्यादा है। विविधता से भरपूर है। यदि नेल्सन मंडेला के शब्द का उपयोग करना हो तो हमारा राष्ट्र “इंद्रधनुषी राष्ट्र” है। इंद्रधनुष में जैसे विविध रंग होते हैं और जब वे आपस में मिल जाते हैं तो एक ही सफेद रंग तैयार हो जाता है। हमारे देश के विषय में भी ऐसा कहा जा सकता है। विविध जातियों, भाषाओं, उपासनाओं के रंग जब एक दूसरे में मिल जाते हैं तब जो रंग तैयार होता है, वह रंग होता है, ”भारतीयत्व” का।

नव भारत का यह समरसता मार्ग है। यह समरसता मार्ग किसी को मना नहीं करता, किसी का अस्वीकार नहीं करता। सबको साथ ले जाना, सब हमारे आत्मीय हैं, कोई पराया नहीं है। मुसलमान, ईसाई भी पराये नहीं। हमारे भारतीय वंश के हैं, भारत माता की संतान हैं। समरसता का मार्ग इतना व्यापक है। जातिभेद समाप्त करना तो मानो उसका एक ठहराव है। दूसरा ठहराव उपासना पंथों की दूरी करना है और अंतिम ठहराव है समरस समाज का निर्माण करना। ऐसा समाज जिसमें स्त्री-पुरूष सभी को कानून की मर्यादा में रहने वाली स्वतंत्रता रहे। सभी प्रकार की कृत्रिम विषमताओं के बंधन से मुक्ति मिले और सार्वत्रिक बंधुभाव के बंधन से सब बंधे रहे।

नव भारत का यही धर्म है और यही सनातन धर्म है। यही सनातन धर्म इस राष्ट्र का राष्ट्रवाद है।

                        लेखक वरिष्ठ संघ विचारक हैं

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