श्री हनुमंत लीला-स्थली-किष्किंधा

जीवन के मधु से भर दो मन गंधविधुर कर दो नश्वर तनमोह मदिर चितवन को चेतन आत्मा को प्रकाश से पावनआ धुनिक हिंदी साहित्य केशिरोमणि कवि महाप्राण निराला केगीत की उक्त पंक्तियां उस समय मन में घर करने लगीं, जब बेंगलुरु के कुछ रामभक्त मित्रों के आमंत्रण पर हमने किष्किंधा के उन पावन पुनीत स्थलों के दर्शन करने का निश्चय किया, जहां भगवान् श्री राम का श्री हनुमानजी से प्रथम मिलन हुआ था। रामायण में यही वह स्थान है, जहां से श्री हनुमंत लीला का प्रारंभ माना गया है। बेंगलुरु में श्री हनुमान के भक्तों का एक मंडल है, जो साप्ताहिक सुंदरकांड के सामुहिक पारायण माध्यम से समाज में श्रीराम भक्ति का प्रचार-प्रसार तथा अन्य सेवा कार्यो में सदैव संलग्न रहते हैं। उनके द्वारा किष्किंधा में जिसे अब हंपी के रूप जाना जाता है, वहां श्री हनुमंत जन्मस्थली अंजना पर्वत पर स्थित श्री अंजनादेवी और श्री हनुमंत मंदिर में अनेक वर्षों से अखंड श्रीरामचरितमानस के पाठ का अनुष्ठान कराया जा रहा है। उसी अनुष्ठान के दो वर्ष पूर्ण होने पर एक भव्य आयोजन किया गया था।

निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार बेंगलुरु के लगभग ५० भक्तों के दल के साथ हम सभी बेंगलुरु से होसपेट पहुंचे, जो कि हंपी, रामायण काल की किष्किंधा का निकटतम रेलवे स्टेशन है। रेलवे स्टेशन के निकट ही हंपी इंटरनेशनल होटल में सभी लोगों के ठहरने की व्यवस्था की गई थी। वहां से किष्किंधा के लिए बसों की व्यवस्था थी, जिसमें बैठकर हम सभी यात्रियों को तीन दिनों तक प्रति दिन किष्किंधा के विविध दर्शनीय पवित्र स्थलों का दर्शन करना था।
भक्तों के इस दल का नेतृत्व नरेंद्र रुस्तगी तथा विजय बंसलजी के हाथों में था। उन्हीं के साथ बसों में बैठकर हम सबने भगवान् श्री हनुमानजी की जन्मस्थली किष्किंधा में अवस्थित अंजना पर्वत की ओर प्रस्थान किया। होसपेट शहर से यह दूरी लगभग ४० कि. मी. हैं। बसें जैसे ही शहर से बाहर निकलीं और किष्किंधा की ओर आगे बढ़ी, प्रकृति के नयनाभिराम दृश्य प्रकट होने लगे; पर्वतों की श्रृंखला नजर आने लगी। किष्किंधा के पर्वत अन्य पर्वतों से बिल्कुल अलग नजर आते हैं, चारों तरफ पर्वतों से घिरी किष्किंधा की तलहटी अत्यंत हरी भरी और उपजाऊ है। सभी पर्वत बड़े-बड़े पत्थरों से आच्छादित हैं। यहीं तुंगभद्रा नदी के चारों ओर ये सभी पर्वत अवस्थित हैं। हम सब लोग करीब एक घंटे की यात्रा के बाद अंजना पर्वत पहुंचे, जिसकी चोटी पर अंजना माई और हनुमान का मंदिर अवस्थित है। यही पिछले कई वर्षों से अखंड श्रीरामचरितमानस का पाठ चल रहा है और प्रति वर्ष उस अनुष्ठान का वार्षिकोत्सव मनाया जाता है। इस वर्ष की एक विशेषता यह भी थी कि इस अनुष्ठान के उपलक्ष्य में अंजना पर्वत की तलहटी में एक संस्कृत पाठशाला का उद्घाटन परम पूज्य कांचीकामकोटि पीठ के श्रीमद् शंकराचार्य श्री जयेंद्र सरस्वतीजी महाराज द्वारा किया जाना था। इस पाठशाला का निर्माण इन्हीं भक्त मंडल के सदस्य गोविंद सेठ तथा बेंगलुरु की एक सेवा भावी संस्था ‘हॉरमनी’ द्वारा किया गया था इस पाठशाला में वहां के स्थानीय विद्यार्थियों को नि:शुल्क संस्कृत, वेद-वेदांग के साथ-साथ कंप्यूटर, गणित तथा हिंदी, अंग्रेजी भाषाओं का भी ज्ञान कराया जाएगा।
अंजना पर्वत पर स्थित अंजना मंदिर के लिए लगभग ७०० सीढ़ियां चढ़नी थीं, जो कि भरी दुपहरी में एक दुष्कर कार्य लग रहा था। लेकिन इसे हनुमानजी की कृपा कहें या कुछ और कि लगभग सभी लोग उक्त सीढ़ियों से अंजना देवी के मंदिर पहुंचने में सफल रहे। यहां तक कि मेरी पत्नी श्रीमती गीता, जो कि घुटनों के दर्द और साइटिका से परेशान रहती हैं, वे भी पर्वत की चोटी पर पहुंचने में सफल रहीं। उक्त पर्वत की चोटी पर पहुंचते ही सारी थकान एकदम दूर हो गई। वहां से किष्किंधा का भव्य और विहंगम दृश्य देखते ही बनता था। अंजना पर्वत की चोटी पर ही मंदिर में अंजना माई और श्री हनुमानजी की मूर्तियां स्थापित हैं। जहां उनकी प्रति दिन पूजा अर्चना चलती रहती है। यहीं मानस का अखंड पाठ पिछले चार वर्षों से अनवरत चल रहा हैं।
सभी भक्तों ने भगवान् श्री हनुमानजी के दर्शन किए और फिर वहीं बैठकर देश के सुप्रसिद्ध सुंदरकांड गायक अजय याज्ञिक के साथ सुंदरकांड का सस्वर पाठ किया। तदुपरांत नीचे आकर भोजन आदि करके फिर वहीं पास में ही मधुबन के दर्शन किए। यह वही स्थल है, जहां लंका से श्री सीताजी का पता लगा श्री हनुमान सभी बंदर-भालुओं के साथ लौटे थे। यहां पर भी श्री हनुमानजी का दिव्य मंदिर है। तुलसी ने सुदंरकांड में लिखा है-
तब मधुबन भीतर सब आए, अंगद समत मधु फल खाए।
तब सभी बंदर-भालू श्री हनुमानजी के नेतृत्व में मधुबन में पधारे, जहां उन्होंने अंगद की सम्मति से मीठे-मीठे फलों को खाया था। अब भी उक्त मधुबन में केले के विशाल बाग हैं। वहां के लोगों का कहना है कि उक्त वन में अभी भी बड़ी संख्या में बंदर तथा भालू रहते हैं। सायंकाल उसी संस्कृत पाठशाला के प्रांगण के पंडाल में पुन: श्री अजय के सुमधुर स्वर के साथ सभी ने श्रीमद् सुंदरकांड का सामूहिक गायन किया और श्री हनुमानजी को प्रणाम किया।
दूसरे दिन की यात्रा का कार्यक्रम था- स्फटिक शिला के दर्शन, जिसका वर्णन श्री रामचरितमानस के सुंदरकांड में आता है-
स्फटिक शिला बैठे दो भाई, परे सकल कपि चरनन जाई।
यह प्रस्रवण पर्वत है, जहां पर स्फटिक शिला का उल्लेख है। जब कपि सुग्रीव ने श्री हनुमान आदि बंदरों के आगमन का भगवान श्रीराम को समाचार दिया था, तब इसी शिला पर बैठकर श्रीराम-लक्ष्मण ने जांबवान, अंगद, हनुमान से संवाद किया था और श्री सीताजी के कुशलक्षेम के समाचार प्राप्त किए थे। इस प्रस्रवर्ण पर्वत पर स्थित स्फटिक शिला मंदिर बहुत ही भव्य एवं दर्शनीय है। इसी में भगवान् श्रीराम- लक्ष्मण और श्री हनुमानजी के विग्रह एक गुफा में स्थापित है। यहां कि श्रीराम के विग्रह की विशेषता यह है में श्रीराम ने अपना दाहिना हाथ अपने हृदय पर रखा है और श्री हनुमानजी दोनों हाथों की अंजलि बनाकर भगवान् के सामने खड़े हैं, जो यह दर्शाता है कि वे श्री सीताजी से प्राप्त चूड़ामणि भगवान् को प्रदान कर रहे हैं। स्फटिक शिला मंदिर में स्थापित भगवान् श्रीराम, लक्ष्मण और श्रीहनुमान के विग्रह अत्यंत आकर्षक एवं भव्य हैं। एक चट्टान के अंदर बनी गुफा में बना यह मंदिर प्रकृति की अनुपम कृति है जो देखते ही बनती है।
इसी पर्वत के पास अनेक और दर्शनीय स्थल हैं। पास में ही एक गुफा में भगवान् शंकर का मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि श्री हनुमानजी को जब अपने पिता केसरी के लिए तर्पण के लिए जल की आवश्यकता पड़ी। तो उन्हें वहां जल नहीं मिला तब लक्ष्मणजी ने पहले भगवान शंकर की आराधना की और फिर पत्थर में अपने धनुष से बाण मारकर जल धारा प्रकट की जिससे श्रीहनुमान ने पितृ-तर्पण किया था।
इस मंदिर के विशाल प्रांगण में रंगमंडप है, जो स्थापत्य तथा शिल्प की दृष्टि से दर्शनीय है, साथ ही भारत की प्राचीन समृद्ध शिल्पकला का एक अनुपम उदाहरण भी है।
तीसरा दिन पूरी तरह से हंपी दर्शन के लिए समर्पित था। हंपी का इतिहास भारत की भव्य संस्कृति, स्थापत्य, शिल्प और समृद्ध सामाजिक जीवन का इतिवृत है। यह इतिहास विजय नगर साम्राज्य का है, जिसका काल ई. स. १३३६ से ई. स. १५६५ तक माना गया है। हंपी पूर्व में (किष्किंधा) विजयनगर साम्राज्य की राजधानी थी। यहां भारत का वैभव प्रकट रूप में दिखाई देता है। इस प्रदेश में अनेक किले, मंदिर तथा मूर्तिया हैं, जो देखते ही बनते हैं। यह देखकर बड़ा अजीब सा अनुभव हुआ है कि पर्यटन की दृष्टि से यहां भारत के यात्रियों से अधिक विदेशी पर्यटक और यात्री आते हैं और भारत के अतीत के वैभव का दर्शन करके स्वयं को धन्य तो समझते ही हैं और उससे भी बड़ी बात कि उनकी भारत के प्रति धारणा बदलती है। आज यह पूरा किष्किंधा विश्व के पर्यटन मानचित्र पर है।
यहां विश्व प्रसिद्ध विरुपास (भगवान शिव) का मंदिर है और उसके दाहिने ओर दर्शनीय कनकगिरि गोपुर है। इस गोपुर में रत्नगर्भा गणपति तथा देवी की मूर्ति है। इस गोपुर के दक्षिण की ओर एक बड़ा तालाब है, जिसमें नौका विहार का आनंद लिया जा सकता है। इसके अलावा अनेक ऐसे भव्य मंदिर हैं, जिनकी सुंदरता देखते ही बनती है।
संपूर्ण हंपी क्षेत्र में भारत की प्राचीन सांस्कृतिक, आर्थिक तथा सामाजिक समृद्धि के दर्शन होते हैं। हंपी यानि किष्किंधा, यहां पर्वत हैं, तुंगभद्रा नदी का कल-कल बहता जल है, पर्वतों के बीच की तराई में हरियाली है और प्राचीन भारत की भव्यता और दिव्यता से दीप्त अतीत की खुशहाली है। यहीं मतंग पर्वत, प्रस्रवण पर्वत, गंधमादन पर्वत, ऋष्यमूक पर्वत तथा माल्यवंत पर्वत हैं, जिसकी प्रत्येक शिला पर रामायण की कथा अंकित है। यहां एक विशेष प्रकार की ऊर्जा और आनंद का अनुभव होता है। हम निश्चय के साथ कह सकते हैं कि इस क्षेत्र में साक्षात् श्री हनुमानजी के अस्तित्व की अनुभूति है यह कहना बिलकुल समीचीन है कि यहां आकर हर भारतीय स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करता है और उसके मन में एक अति समृद्ध विरासत का वारिस होने का स्वाभिमान जाग्रत हो जाता है। हम सभी हंपी में दिन भर घूमते रहे, घूमते-घूमते पांव थक रहे थे, लेकिन मन नहीं भर रहा था और न ही थक रहा था। तीसरे दिन की यात्रा के अंत में भगवान् विरुपाक्ष के दर्शन की लालसा जागी। पुन: भगवान शंकर को प्रणाम करने के लिए गर्भ गृह में पहुंचे, दर्शन किए। बाहर निकले तो देखा शाम ढल रही थी। भगवान भास्कर अस्ताचल की ओर जा रहे थे, चारों तरफ सूरज की अस्ताचलगामी लालिमा छिटक रही थी, विरुपाक्ष मंदिर का स्वर्णिम कलश उस लालिमा से और भी अधिक दमकने लगा था। हम सभी पुन: बस में हासपेट वापस जाने के लिए बैठे थे। बस चल पड़ी थी पुन: हंपी इंटरनेशनल होटल की ओर, भारत का प्राचीन विराट वैभव सूरज के प्रकाश में और अधिक स्वर्णिम हो रहा था, तभी मां भारती की स्तुति में हमारे ऋषियों द्वारा गाया गया यह श्लोक सहसा होंठों पर आ गया।
गायन्ति देवा : किल गीतकानि, धन्यास्तु रु भारतभूमि भागे॥
स्वर्गापवर्गास्पदमार्ग भूते भवन्ति भूय: पुकषा: सुरत्वात्॥
मो.: ९८२०२१९१८१

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