टेक्नोट्रॉनिक युद्ध के लिए तैयार भारतीय सेना

युद्ध क्षेत्र की बदलती स्थितियों के अनुरूप भारत ने विशेषज्ञता के तीन क्षेत्रों में अपने कदम बढ़ाए हैं। ये तीन क्षेत्र हैं स्पेस, सायबर और स्पेशल फोर्सेस। अगले दस वर्षों में भारतीय सेनाएं स्पेस और सायबर क्षेत्र में पूरी तरह से महारत हासिल कर चुकी होगीं। रक्षा क्षेत्र में नए भारत की यह एक झलक है।

युद्ध की अनुपस्थिति का अर्थ है शांति। कहना मुश्किल है कि युद्ध कब शुरू हुए, पर इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अनंत काल से मनुष्य युद्ध कर रहा है। उसे अपनी खुशहाली के लिए भी युद्ध करना पड़ता है, शांति के लिए भी। एक शांतिप्रिय देश को भी सेना रखनी पड़ती है, क्योंकि सेना की भूमिका केवल युद्ध तक सीमित नहीं होती। उसकी तमाम अदृश्य भूमिकाएं हैं, जिन्हें हम देख नहीं पाते हैं। युद्ध के भी तमाम रूप हैं, जो बदलते जा रहे हैं। हमें इसीलिए अपनी रक्षा नीतियों को समयानुकूल बनाना होता है और यह बात सामने रखनी होती है कि आज से दस-बीस और तीस साल बाद की स्थितियां क्या होंगी?

इस साल 25 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक का उद्घाटन करके देश की एक बहुत पुरानी मांग को पूरा कर किया। एक अर्थ में यह असाधारण स्मारक है। अभी तक देश में कोई राष्ट्रीय युद्ध-स्मारक नहीं था। इंडिया गेट में जो स्मारक है, वह अंग्रेजों ने पहले विश्व-युद्ध (1914-1918) के शहीदों के सम्मान में बनाया था। भारतीय सैनिकों की कहानी हजारों साल पुरानी है, पर आधुनिक भारत का जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही हमें अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए युद्ध लड़ने पड़े हैं। हमें राष्ट्रीय स्वाभिमान के प्रतीकों को भी स्थापित करना होगा। साथ ही यह विचार भी करना होगा कि हमारी भविष्य की सेना कैसी होगी? इस तथ्य को भी रेखांकित करने की जरूरत है कि वैश्विक परिप्रेक्ष्य में हमारी भूमिका बढ़ती जा रही है। भविष्य की रक्षा-प्रणाली पर विचार करने के लिए हमें कम से कम तीन अलग-अलग दिशाओं में विचार करना होगा:-

  1. युद्धों का बदलता स्वरूप

  2. भविष्य की सेना का आकार, संरचना और रणनीति

  3. तकनीकी विकास

हम नए सिरे से देश का निर्माण कर रहे हैं, इसलिए हमें एक व्यवस्था की जरूरत है। उसकी रक्षा भी करनी है। दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुरक्षित रखना हमारी सेना की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। आने वाले समय के युद्ध छोटे होंगे, जरूरी नहीं कि वे देशों के बीच हों। छोटे आतंकवादी गिरोह, कट्टरपंथी समूह और समुद्री डाकुओं के खिलाफ भी युद्ध लड़े जा सकते हैं। व्यापारिक और आर्थिक हितों के लिए परोक्ष या छायायुद्ध भी हो सकते हैं। वैज्ञानिक और तकनीकी जानकारियों की सुरक्षा व्यवस्था भी हमें करनी पड़ेगी।

यह व्यवस्था हथियारों के बल पर न होकर तकनीकी उपकरणों की मदद से होगी। इन दिनों कई बार सायबर अटैक और सायबर वॉर शब्द हमें सुनाई पड़ते हैं। हम उसके निहितार्थ से परिचित नहीं हैं। बैंक-प्रणाली पर हमले किसी देश की अर्थ-व्यवस्था को तबाह कर सकते हैं। बैंक प्रणाली ही नहीं रेलवे, मेट्रो, विमानन यानी हर तरह के परिवहन की प्रणालियां कम्प्यूटर से जुड़ी हैं। सरकारी योजनाएं, नागरिक प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य यानी कौन सी सेवा ऐसी है, जो सूचना प्रौद्योगिकी के दायरे से बाहर है।

सेना की संरचना

युद्ध क्षेत्र की बदलती स्थितियों के अनुरूप भारत ने विशेषज्ञता के तीन क्षेत्रों में अपने कदम बढ़ाए हैं। ये तीन क्षेत्र हैं स्पेस, सायबर और स्पेशल फोर्सेस। भारत सरकार ने दो विशेष डिवीजन-स्तर के संगठनों का गठन किया है और तीसरे की तैयारी है। इस साल मार्च में एंटी-सैटलाइट मिसाइल की सफल लॉन्चिंग की। इस परियोजना को मिशन शक्ति का नाम दिया गया है। एंटी सैटेलाइट क्षमता प्राप्त करने वाला विश्व का चौथा देश है भारत। अगले दस वर्षों में भारतीय सेनाएं स्पेस और सायबर क्षेत्र में पूरी तरह से महारत हासिल कर चुकी होगीं।

भारतीय सैनिक प्रतिष्ठान बड़े परिवर्तन के द्वार पर खड़ा है। एक परियोजना पनडुब्बियों की है। नई पीढ़ी की पनडुब्बियों के निर्माण की परियोजना विचाराधीन है। दूसरी तरफ तीनों सेनाओं को करीब 800 हेलिकॉप्टरों की जरूरत है। इस दिशा में पहला कदम रिक्वेस्ट फॉर इनफॉर्मेशन (आरएफआई) होता है। नौसेना के लिए 234 हेलिकॉप्टरों का आरएफआई जारी हो चुका है। वायुसेना और नौसेना के लिए भारत-रूस संयुक्त उपक्रम के रूप में 197 कामोव 2266-टी हेलिकॉप्टरों का उत्पादन शुरू होने वाला है। अगले दस साल में वायुसेना के लिए 400 फाइटर जेट विमानों की जरूरत है। रक्षा मंत्रालय ने विदेशी सहयोग से 114 सिंगल इंजन जेट विमानों के निर्माण को स्वीकार कर लिया है। इसी तरह 120 स्वदेशी फाइटर जेट तेजस के निर्माण पर करोड़ों रुपये खर्च हो चुके हैं।

सेना का फील्ड आर्टिलरी अभिनवीकरण प्लान सन 1999 में तैयार हुआ था। इसके तहत सन 2027 तक हमें 2,800 तोपें हासिल करनी हैं। इसके समानांतर सेना के पुनर्गठन का काम हो रहा है। अलग-अलग चरणों में हो रहे इन बदलावों का लक्ष्य है कि वह चुस्त-दुरुस्त बनने के साथ तेजी से कार्रवाई करने वाली 21वीं सदी की सेना के रूप में विकसित हो। सेना के भीतर बहुत से ऐसे काम जो अलग-अलग संगठन कर रहे हैं, उन्हें एक स्थान पर करने के लिए कुछ संगठनों का विलय किया जा रहा है। छोटे और त्वरित गति से होने वाले युद्धों को संचालित करने के लिए सेना का सही आकार रखने और युद्ध से जुड़ी यूनिटों के समन्वय का काम करने की व्यवस्था भी की जा रही है।

युवा नेतृत्व

सेना के भीतर अब कम उम्र को कमांडरों की नई अवधारणा को स्थापित किया जा रहा है। इससे सेना का वज़न कम होगा और आकार सही होगा। करीब 13 लाख सैनिकों की इस सेना ने अपनी रणनीतियों में बदलाव किया है, पर इसका आकार उस सीमित बजट से मेल नहीं खाता, जो शासन ने मुकर्रर किया है। चीन ने तीन साल पहले अपनी सेना के पुनर्गठन का काम कर लिया है। उसका आकार छोटा हुआ है, पर मारक क्षमता बढ़ी है। भारतीय सेना अब अपने ऑपरेशनल पहलुओं को बदल रही है। मसलन एक इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप के गठन का परीक्षण युद्धाभ्यास के दौरान किया जाएगा। छह बटालियनों पर एक इंटीग्रेटेड बैटल ग्रुप में इनफेंट्री, आर्मर्ड और आर्टिलरी की मिली-जुली भूमिका होगी। इसकी कमांड एक मेजर जनरल के पास होगी, जिसे सीधे कोर के अधीन रखा जाएगा। अगले दस साल में हम सेना के भीतर की संरचना में बड़े स्तर पर बदलाव देखेंगे।

अक्टूबर 2014 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नौसेना, वायुसेना और थलसेना के कमांडरों को सम्बोधित करते हुए कहा कि अब अंतरिक्ष पर नियंत्रण बनाए रखने की जरूरत है। जिस तरह जमीन, हवा और सागर पर नियंत्रण जरूरी है, उसी तरह अब अंतरिक्ष पर नियंत्रण भी अनिवार्य है। इन दिनों तीनों सेनाओं के बीच सबसे ज्यादा प्रचलित शब्द है नेटवर्क-सेंट्रिसिटी। युद्धपोत हों या पनडुब्बियां, टैंक या फाइटर जेट विमान या पैदल सैनिक सब किसी न किसी नेटवर्क से जुड़े हैं या जुड़ रहे हैं। वे सभी संचार और नेवीगेशन उपग्रहों से जुड़े होते हैं। नेटवर्क्ड युद्ध क्षेत्र में फैसले तुरंत होने चाहिए, इसलिए ऐसे सिस्टम्स जरूरी हैं। सन 2017 के तीनों सेनाओं के संयुक्त डॉक्ट्रिन में भारतीय सेना के विभिन्न निदेशक सिद्धांतों का विवरण दिया गया है। इसमें बदलते युद्ध क्षेत्र और एकीकृत सामरिक संरचना की आवश्यकता को साफ तौर पर बताया गया है।

नेटवर्क सेंट्रिक युद्ध

भविष्य के युद्ध नेटवर्क सेंट्रिक होंगे। यानी सैनिक पूरी तरह सायबर स्पेस से जुड़े होंगे। विशेष किस्म के सूट और ‘कॉम्बैट गॉगल’ सैनिक पहनेंगे। सैनिक के सामने जो कुछ भी आएगा उसे ये चश्मे रिकॉर्ड करते जाएंगे। इनकी मदद के मार्फत दिशाज्ञान होगा, शत्रु पक्ष की खुफिया जानकारी होगी और लोकल भाषा का तुरंत अनुवाद भी होता जाएगा। अभी वे ज्यादा से ज्यादा भारी बुलेटप्रूफ जैकेट पहनते हैं। अगली पीढ़ी के जैकेट हल्की परत के होंगे, जैसे मछली की खाल होती है।

पिछले दसेक साल में भारतीय वायुसेना ने नेटवर्क-सेंट्रिक युद्ध-क्षमता हासिल करने में लम्बी छलांग लगाई है। उसके पास अपना उपग्रह है, विशेष ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क है, जिसके कारण अब वह जमीन पर तैनात सैनिकों, विमानों और हेलिकॉप्टरों के पायलटों, समुद्र में विचरण कर रहे युद्धपोतों और पनडुब्बियों के कैप्टनों को रियल टाइम वीडियो और तस्वीरें उपलब्ध कराने में समर्थ है।

नेटवर्क-सेंट्रिक वॉरफेयर सेना को कम्प्यूटरों की प्रोसेसिंग क्षमता और नेटवर्किंग संचार तकनीक की मदद से जानकारियां शेयर करने का जरिया है। इस जानकारी से कमांड, कंट्रोल का साझा अनुभव होत है, जिससे निर्णय करने, रणनीतियां बनाने, समन्वय करने और सुदूर सम्पर्क रखने और जटिल सैनिक ऑपरेशंस को अंजाम देने में मदद मिलती है। तीनों सेनाओं को इसकी जरूरत है।

सैनिक उपग्रह

खासतौर से वायुसेना और नौसेना को नेटवर्क-सेंट्रिसिटी की बहुत ज्यादा जरूरत है। थलसेना को युद्ध क्षेत्र के हाल जानने की जरूरत होती है। उसके यूएवी लाइव तस्वीरें प्रेषित करने में समर्थ हैं। वे खासतौर से तोपखाने को अचूक गोलाबारी के लिए भौगोलिक स्थिति का पता बताते हैं। इतना ही नहीं ब्रह्मोस जैसे मिसाइलों को दागने के लिए इस प्रकार की सूचनाओं की जरूरत होती है। यूएवी यह जानकारी देते हैं।

वायुसेना, नौसेना और थलसेना की सामर्थ्य को बढ़ाने के लिए सैनिक उपग्रहों की जरूरत भी है। पिछले वर्ष दिसम्बर में भारत ने अपने दूसरे सैनिक उपग्रह जीसैट-7ए का प्रक्षेपण किया। पहला उपग्रह रुक्मिणी-जीसैट-7-सितम्बर 2013 में प्रक्षेपित किया गया था। इन दो के अलावा एक दर्जन के आसपास ऐसे उपग्रह और हैं, जो सर्विलांस का काम कर रहे हैं और अंतरिक्ष से तस्वीरें भेज रहे हैं।

भारत का अपना ग्लोबल पोज़ीशनिंग सिस्टम (जीपीएस) देश के सामरिक हितों से जुड़े क्षेत्र को कवर करता है। यानी कि पश्चिम में होर्मुज की खाड़ी से लेकर मलक्का की खाड़ी के पूर्व तक। आईआरएनएसएस नाम से सात उपग्रहों का समुच्चय अंतरिक्ष में काम कर रहा है और एस-बैंड पर इसके सिग्नल अचूक नेवीगेशन की सुविधा प्रदान कर रहे हैं।

रोबोट का इस्तेमाल

अगले एक दशक में भारतीय सेनाओं को करीब 3,000 अनमैंड एरियल प्लेटफॉर्म्स की जरूरत होगी। इनमें सशस्त्र और निःशस्त्र दोनों प्रकार के यूएवी होंगे। जैसे-जैसे इनकी नई भूमिकाएं तय होती जाएंगी और भारतीय सेनाओं की भूमिका बढ़ेगी, यूएवी के काम का दायरा भी बढ़ता जाएगा। ये यूएवी सटीक इंटेलिजेंस और अचूक प्रहार की क्षमता प्रदान करेंगे।

भविष्य के युद्धों में फौजियों की जगह ज्यादा से ज्यादा रोबोटों का इस्तेमाल होगा। ड्रोन विमानों ने आसमान में जैसे जगह बनाई है वैसे ही सिपाहियों की जगह कल ये रोबोट लेंगे। खासतौर से जोखिम भरे काम करने के लिए रोबोटों का इस्तेमाल होगा। भारत के रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) ने मानव रहित, रिमोट से संचालित टैंक विकसित किया है। ये टैंक निगरानी करने, सुरंग का पता लगाने और परमाणु व जैविक खतरों का सर्वेक्षण करने में सक्षम है। इस टैंक को मंत्रा नाम दिया गया है। इऩका निर्माण जमीन पर मानवरहित निगरानी मिशन, सुरंगों का पता लगाने और ऐसे इलाकों का पता लगाने के लिए है, जहां परमाणु या जैविक हथियारों का जोखिम हो।

अमेरिकी लेखक पीटर सिंगर और ऑगस्ट के एक उपन्यास ‘द गोस्ट फ्लीट’ का विषय तीसरा विश्व-युद्ध है, जिसमें अमेरिका, चीन और रूस की हिस्सेदारी होगी। उपन्यास के कथाक्रम से ज्यादा रोचक है उस तकनीक का वर्णन जो इस युद्ध में काम आई। यह उपन्यास भविष्य के युद्ध की झलक दिखाता है। आने वाले वक्त की लड़ाई में शामिल सारे योद्धा परम्परागत फौजियों जैसे वर्दीधारी नहीं होंगे। काफी लोग कम्प्यूटर कंसोल के पीछे बैठ कर काम करेंगे। काफी लोग नागरिकों के भेस में होंगे, पर छापामार सैनिकों की तरह महत्वपूर्ण ठिकानों पर हमला करके नागरिकों के बीच मिल जाएंगे। काफी लोग ऐसे होंगे जो अराजकता का फायदा उठा कर अपने हितों को पूरा करेंगे।

                                                                                                                                                                लेखक वरिष्ठ रक्षा विशेषज्ञ है।

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