धारा ६६ अ- अभिव्यक्ति कीस्वतंत्रता तथा न्याय संगत प्रतिबंध

मार्च १९१५ में सर्वोच्च न्यायालय ने कुछ महत्वपूर्णनिर्णय दिए हैं। इसमें से एक निर्णय के अनुसार सूचना तकनीकी कानून २००० के २००८ में हुए संशोधन की धारा ६६ अ को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। इसके कारण भारत की सोशल मीडिया में अपना समय बिताने वाले नेटप्रेमी अवश्य खुश हो गए होंगे। २००८ के संशोधन की धारा ६६ अ के कारण सोशल मीडिया की दिक्कतें बढ़ गई थीं।
इस धारा के कारण बहुत छोटे छोटे कारणों से सोशल मीडिया पर पोस्ट करने वालों को पुलिस के हत्थे चढ़ जाना पड़ता था। सन २०१२ में शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के निधन के बाद आहूत बंद के संदर्भ में किए गए पोस्ट के कारण औरंगाबाद की दो लड़कियों को गिरफ्तार कर लिया गया था। तब से ही यह धारा विवाद के घेरे में आ गई। अभी अभी की एक घटना में ११ वीं कक्षा मे पढने वाले एक छात्र के द्वारा उत्तर प्रदेश के दबंग मंत्री आजम खान के विरुद्ध एक पोस्ट किए जाने के कारण उसे गिरफ्तार कर लिया गया। इन्हीं सब घटनाओं के कारण नेट प्रेमियों के बीच एक तनाव बना हुआ था, जो अब दूर हो गया है।
आधुनिक विज्ञान के कारण एक ओर तो सुख सुविधाओं में बेहताशा वृद्धि हुई, तो दूसरी ओर उसकी जिम्मेदारियां भी बढ़ी हैं। इसका सीधा कारण है कि जो वैज्ञानिक खोज मानव को सुख प्रदान करती है, वही खोज किसी अयोग्य व्यक्ति के हाथों में पहुंच जाती है तो उसका गलत उपयोग होकर अन्य लोगों को तकलीफ भी दे सकती है। आजकल तो सूचना प्रौद्योगिकी का बहुत बोलबाला है। पिछले पच्चीस वर्षों में इस विधा में दुनिया मे जो प्रगति हुई है उसके हमारे जीवन पर दूरगामी परिणाम हुए हैं। मोबाइल फोन, एस्. एम्. एस्. आदि सोशल मीडिया के कारण भौगोलिक दूरी की अवधारणा में भारी परिवर्तन आया है। इस मोबाइल फोन के कारण अब हम न्यूयॉर्क में बैठे अपने किसी मित्र से आसानी से बात कर सकते हैं, या किसी मित्र या रिश्तेदार को मोबाइल फोन के द्वारा परिवार में सम्पन्न किसी कार्यक्रम के चित्र भेज सकते हैं। इस तकनीकी के कारण शुरू शुरू में तो लोग बड़े खुश थे, परंतु बाद में उससे होने वाली हानियां व अपराध सामने आने लगे।
सूचना तकनीक का फैलाव केवल भारत में ही हुआ ऐसा नहीं है, वरन् यह एक वैश्विक घटनाक्रम का परिणाम है। परिणामस्वरूप, संयुक्त राष्ट्रसंघ ने १९९७ में एक नीति बनाई व सभी सदस्य राष्ट्र इसके अनुसार अपने अपने देश मे कानून बनाए, यह भी घोषणा की। हमारे देश में भी सन २००० में एक सूचना तकनीकी कानून बना। इसी को सायबर कानून भी कहते हैं। सूचना तकनीकी की दुनिया इतनी तेजी से आगे बढ़ रही है कि इसके लिए आज बनाया गया कानून कल कालातीत हो जाता है। यह बात भारत के साथ भी हुई। इसीलिए सन २००८ में सूचना तकनीक कानून २००० में कुछ सुधार किए गए। इसी तारतम्य में धारा ६६ अ भी लागू हुई।
व्यावहारिक धरातल पर पुलिस को इस धारा का अपनी इच्छा से अर्थ निकालने की असीम शक्ति प्राप्त हो गई थी। इसके कारण इस धारा का दुरुपयोग होने की सम्भावनाएं बढ़ गईं। और इस प्रकार के दुरुपयोग किए जाने की शिकायतें भी आने लगीं। इसके अलावा इस धारा का उपयोग कर अपने राजनीतिक विरोधियों को तंग करने की घटनाएं भी बढ़ने लगीं। इतना ही नहीं तो राजनेताओं या किसी सार्वजनिक घटना पर अपना विचार व्यक्त करने वालों को भी इसका शिकार होना पड़ा। अभी इसी कानून को सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश चेलमेवर तथा माननीय न्यायाधीश रोहिंगटन नरीमन की खण्ड पीठ द्वारा रद्द कर दिया गया।
इस निर्णय का महत्व समझने के लिए हमें सूचना तकनीक कानून २००० का ज्ञान होना आवश्यक है। इस कानून में कम्प्यूटर युग की मौलिक अवधारणाओं को स्पष्ट किया गया है। इसमें कम्प्यूटर में संचित सूचनाओं की चोरी न हो तथा इसकी कैसी सुरक्षा की जाए इसका प्रावधान रखा गया है। इसके अलावा कम्प्यूटराइज्ड हस्ताक्षर व इस संदर्भ में ली जाने वाली सावधानियों का भी इस कानून में समावेश किया गया है। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस कानून के कारण भारतीय सरक्ष्य अधिनियम में भी परिवर्तन हुआ है। इस संदर्भ में ध्यान देने वाली बात है कि, इस मूल कानून में कम्प्यूटर तकनीक का उपयोग कर किसी की भावनाओं को आहत करने वाली बातें पोस्ट करना अपराध नहीं था। यह परिवर्तन २००८ में हुआ। इस परिपेक्ष्य में सब से अधिक गंभीर बात तो यह थी कि जब यह कानून संसद में स्वीकृति हेतु रखा गया तब इस पर संसद में कोई गंभीर चर्चा भी नहीं हुई, यहां तक कि धारा ६६ अ को सभी राजनीतिक दलों का समर्थन भी प्राप्त हो गया।
दरअसल, उसी समय, जब यह संशोधन लाया गया, तब संसद में गंभीर चर्चा हुई होती तो संभव था कि बात उतनी आगे नहीं बढ़ती। २००८ में हुए इस संशोधन में किसी दूसरे व्यक्ति के संदर्भ में कोई गलत सूचना फैलाना, भावनाओं को आहत करना और अन्य कृत्यों के लिए धारा ६६ अ के अनुसार तीन साल की सजा का प्रावधान रखा गया। इस धारा के अनुसार सूचना तकनीक के द्वारा इस प्रकार का संदेश भेजने वाले पर तो अपराध कायम किया ही जा सकता है, परन्तु प्रतिकिया देने वाले व्यक्ति पर भी अपराध कायम हो सकता था।
सर्वोच्च न्यायालय के इस ताजे निर्णय के द्वारा सूचना तकनीक कानून की धारा ६६ अ रद्द कर दी गई। यह निर्णय देते समय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि यह धारा सींंविधान के विपरीत है तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को संकुचित करने वाली है। न्यायालय के इस ताजे निर्णय के कारण अब सोशल मीडिया के किसी भी व्यक्ति को सीधे गिरफ्तार नहीं किया जा सकेगा। न्यायालय द्वारा इस धारा को रद्द करते समय जो विचार व्यक्त किए गए उसे समझ लेने पर संसद के द्वारा सर्व सम्मति से स्वीकृत इस कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने क्यों रद्द किया यह स्पष्ट हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी विवादित विषय पर टिप्पणी करना और उस पर अपने विचार रखना यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मूल है। संविधान के द्वारा भारत के नागरिकों को यह अधिकार दिया गया है। धारा ६६ अ के प्रावधान इन अधिकारों को आहत करने वाले हैं। दूसरी बात, धारा ६६ अ में अपराध को परिभाषित करने वाली शब्दावली संदिग्ध है, तथा क्लिष्ट है। इन अपराधों की स्पष्ट व्याख्या भी नहीं की गई। फलस्वरूप इस धारा को लागू करते समय कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। तीसरी बात, धारा ६६ अ के अंतर्गत सिद्ध हुए अपराधों के स्वरूप भी दिशाहीन थे। वे संविधान के दायरे में नहीं बैठते थे। चौथी बात, कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए एक ओर नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करने का प्रयास हो रहा है तो दूसरी ओर देश की पहचान माने जाने वाले सहिष्णुता व एकात्मता जैसे तत्वों को अनदेखा किया जा रहा था। पांचवीं बात, धारा ६६ अ का कानून व्यवस्था से सीधा सम्बन्ध नहीं है। इन सभी विस्तारपूर्वक बताए गए कारणों से सर्वोच्च न्यायालय ने इस धारा को रद्द किया है।
आज का समाज कम्प्यूटर युग में जी रहा है। कोई पोस्ट किसी एक व्यक्ति को अपमानजनक लग सकती है तो किसी दूसरे व्यक्ति को वह अपमानजनक नहीं भी लग सकती है। इन परिस्थितियों में न्यायालय को यह भय था कि यदि धारा ६६ अ यथावत रखी गई तो एक प्रकार की परोक्ष सेंसरशिप इंटरनेट पर लादी जाएगी। अमेरिका, इंग्लैण्ड आदि प्रजातांत्रिक देशों की न्यायपालिकाओं के निर्णयों का उल्लेख करते हुए अपने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय सही है।
स्वतंत्रता के संदर्भ में अमेरिका के प्रसिद्ध न्यायाधीश राबर्ट जेक्सन ने जो कुछ कहा उस पर गौर करना चाहिए। जेक्सन ने कहा था कि”Thought control in a copyright of totalitanianism, and we have no claim to in it in not the funcation of an government to keep the citizen from failing in ever; it is the function of the citizen to keep the government from failing in to ever.”
इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे देश के नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई बंधन नहीं है। संविधान की धारा १९ (१) के अनुसार नागरिकों को स्वतंत्रता तो है पर इन अधिकारों पर न्यायसंगत बंधन भी है। देश की सार्वभौमिकता को आहत करने वाली बातों पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। इसके अलावा अन्य राष्ट्रों के साथ बनाए गए सम्बधों पर यदि आंच आती हो या सार्वजनिक व्यवस्था को खतरा हो तो भी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। पर ये सब अपवाद स्वरूप हैं।
धारा १९ (१) में दिए गए बंधनों के अलावा आइ. पी. सी. की धारा २६८ के अनुसार सार्वजनिक रूप से तंग करने या…. धारा २९४ के अनुसार अश्लील टिप्पणियां, या धारा ४९९/५०० के अनुसार बदनामी, के लिए कार्रवाई की जा सकती है। इतने पर्याप्त प्रावधानों के बाद धारा ६६ अ की कोई आवश्यकता नहीं है, इस बात को इस निर्णय में स्पष्ट गया है। इसके बावजूद केन्द्र सरकार को आदेश देकर किसी वेबसाइट या किसी व्यक्ति के इंटरनेट सम्पर्क पर प्रतिबंध लगाने की शक्ति देने वाली धारा ६९ ए को इसी निर्णय में उचित ठहराया गया है।
न्यायपूर्ण प्रतिबंधों के लिए कोई विवाद नहीं हो सकता परन्तु….अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आहत न हो इसकी चिंता अवश्य की जानी चाहिए। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं होगी तो प्रजातंत्र जिंदा नहीं रह सकता। सर्वोच्च न्यायालय ने सही निर्णय लेकर धारा ६६ ए को निरस्त कर दिया, इसके लिए धन्यवाद।
भविष्य में कोई कानून बनाते समय संविधान की मर्यादाओं को ध्यान में रखना राजनीतिज्ञों के लिए उचित होगा।

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