सरसंघचालक डॉ. श्री मोहन जी भागवत के श्री विजयदशमी उत्सव 2019 के उद्बोधन का सारांश

आदरणीय प्रमुख अतिथि महोदय, इस उत्सव को देखने के लिए विशेष रूप से यहां पर पधारे हुए निमंत्रित अतिथि गण, श्रद्धेय संत वृंद, मा. संघचालक गण, संघ के सभी माननीय अधिकारीगण, माता भगिनी, नागरिक सज्जन एवं आत्मीय स्वयंसेवक बंधु।

इस विजयादशमी के पहले बीता हुआ वर्षभर का कालखंड श्री गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाश वर्ष के रूप में तथा स्वर्गीय महात्मा गांधी के जन्म के डेढ़ सौ वे वर्ष के रूप में विशेष रहा। उस उपलक्ष्य में किए जाने वाले कार्यक्रम आगे और कुछ समय, उनकी अवधि समाप्त होने तक, चलने वाले हैं। इस बीच 10 नवंबर से स्वर्गीय दत्तोपंत जी ठेंगड़ी का भी शताब्दि वर्ष शुरू होना है। परंतु बीते हुए वर्ष में घटी हुई कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाओं ने, उसको हमारे लिए और स्मरणीय बना दिया है।

मई मास में लोकसभा चुनावों के परिणाम प्राप्त हुए। इन चुनावों की ओर संपूर्ण विश्व का ध्यान आकर्षित हुआ था। भारत जैसे विविधताओं से भरे विशाल देश में, चुनाव का यह कार्य समय से और व्यवस्थित कैसे संपन्न होता है, यह देखना दुनिया के लिए आकर्षण का पहला विषय था। वैसे ही 2014 में आया परिवर्तन केवल 2014 के पहले के सरकार के प्रति मोहभंग से उत्पन्न हुई एक नकारात्मक राजनीतिक लहर का परिणाम है, अथवा विशिष्ट दिशा में जाने के लिए जनता ने अपना मन बना लिया है, यह 2019 के चुनावों में दिखाई देना था। विश्व का ध्यान उस ओर भी था। जनता ने अपनी दृढ़ राय प्रकट की और भारत देश में प्रजातंत्र, विदेशों से आयातित नई अपरिचित बात नहीं है, बल्कि देश के जनमानस में सदियों से चलती आई परंपरा तथा स्वातंत्र्योत्तर काल में प्राप्त हुआ अनुभव व प्रबोधन, इनके परिणामस्वरूप प्रजातंत्र में रहना व प्रजातंत्र को सफलतापूर्वक चलाना यह समाज का मन बन गया है, यह बात सबके ध्यान में आई। नई सरकार को बढ़ी हुई संख्या में फिर से चुनकर लाकर समाज ने उनके पिछले कार्यों की सम्मति व आने वाले समय के लिए बहुत सारी अपेक्षाओं को व्यक्त किया था।

उन अपेक्षाओं को प्रत्यक्ष में साकार कर, जन भावनाओं का सम्मान करते हुए, देश के हित में उनकी इच्छाएँ पूर्ण करने का साहस इस दोबारा चुने हुए शासन में भी है, यह बात फिर एक बार सिद्ध हो गई, कलम 370 को अप्रभावी बनाने के सरकार के काम से। सत्तारूढ़ दल की विचारपरंपरा में यह कार्य तो पहले से ही स्वीकारा गया था। लेकिन इस बार कुशलतापूर्वक अन्य मतों के दलों का भी दोनों सदनों में समर्थन प्राप्त कर, सामान्य जनों के हृदय के भावों के अनुरूप तथा मजबूत तर्कों के साथ यह जो काम हुआ, उसके लिए देश के प्रधानमंत्री, गृहमंत्री सहित शासक दल तथा इस जन भावना का संसद में समर्थन करने वाले अन्य दल भी अभिनंदन के पात्र हैं। यह कदम अपनी पूर्णता तब प्राप्त कर लेगा, जब 370 के प्रभाव में न हो सके न्याय्य कार्य सम्पन्न होंगे तथा उसी प्रभाव के कारण चलते आये अन्यायों की समाप्ति होगी। वहां से अन्यायपूर्वक निकाल दिए गए हमारे कश्मीरी पंडितों का पुनर्वसन,  उनकी निर्भय, सुरक्षित तथा देशभक्त व हिंदू बने रहने की स्थिति में होगा। कश्मीर के रहिवासी जनों को अनेक अधिकार, जिनसे वे अब तक वंचित थे, प्राप्त होंगे और घाटी के बंधुओं के मन में यह जो गलत डर भरा गया है, कि 370 हटने से उनकी जमीनें, उनकी नौकरियां इन पर बड़ा संकट पैदा होने वाला है, वह दूर होकर आत्मीय भाव से शेष भारत जनों के साथ एकरूप मन से देश के विकास में वो अपनी जिम्मेवारी भी बराबरी से संभालेंगे।

सितंबर के महीने में अपनी प्रतिभा से, संपूर्ण विश्व के वैज्ञानिक बिरादरी का ध्यानाकर्षण करते हुए, उनकी प्रशंसा व सहानुभूति प्राप्त करते हुए, हमारे वैज्ञानिकों ने अब तक चंद्रमा के अनछुए प्रदेश, उसके दक्षिण ध्रुव पर अपना चंद्रयान ‘विक्रम’ उतारा। यद्यपि अपेक्षा के अनुरूप पूर्ण सफलता ना मिली, परंतु पहले ही प्रयास में इतना कुछ कर पाना यह भी सारी दुनिया को अबतक साध्य न हुई एक बात थी। हमारे देश की बौद्धिक प्रतिभा व वैज्ञानिकता का तथा संकल्प को परिश्रमपूर्वक पूर्ण करने के लगन का सम्मान हमारे वैज्ञानिकों के इस पराक्रम के कारण दुनिया में सर्वत्र बढ़ गया है। जनता की परिपक्व बुद्धि व कृति, देश में जगा हुआ स्वाभिमान, शासन में जगा हुआ दृढ़ संकल्प तथा साथ ही हमारे वैज्ञानिक सामथ्र्य की अनुभूति इन के इन सुखद अनुभवों के कारण पिछला वर्ष हमें हमेशा स्मरण में रहेगा।

परंतु इस सुखद वातावरण में अलसा कर हम अपनी सजगता व अपनी तत्परता को भुला दें, सब कुछ शासन पर छोड़ कर, निष्क्रिय होकर विलासिता व स्वार्थों में मग्न हो ऐसा समय नहीं है। जिस दिशा में हम लोगों ने चलना प्रारंभ किया है, वह अपना अंतिम लक्ष्य-परमवैभव संपन्न भारत – अभी दूर है। मार्ग के रोड़े, बाधाएं और हमें रोकने की इच्छा रखने वाले शक्तियों के कारनामे अभी समाप्त नहीं हुए हैं। हमारे सामने कुछ संकट हैं जिनका उपाय हमें करना है। कुछ प्रश्न है जिनके उत्तर हमें देने हैं, और कुछ समस्याएं हैं जिनका निदान कर हमें उन्हें सुलझाना है।

सौभाग्य से हमारे देश के सुरक्षा सामथ्र्य की स्थिति, हमारे सेना की तैयारी, हमारे शासन की सुरक्षा नीति तथा हमारे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कुशलता की स्थिति इस प्रकार की बनी है कि इस मामले में हम लोग सजग और आश्वस्त हैं। हमारी स्थल सीमा तथा जल सीमाओं पर सुरक्षा सतर्कता पहले से अच्छी है। केवल स्थल सीमापर रक्षक व चैकियों की संख्या व जल सीमापर-विशेषकर द्वीपों वाले टापुओं की – निगरानी अधिक बढ़ानी पड़ेगी। देश के अन्दर भी उग्रवादी हिंसा में कमी आयी है। उग्रवादियों के आत्मसमर्पण की संख्या भी बढ़ी है।

व्यक्ति के या विश्व के जीवन में संकटों की परिस्थिति हमेशा बनी रहती है। कुछ संकट सामने दिखाई देते हैं। कुछ-कुछ बाद में सामने आते हैं। अपनी शरीर मन बुद्धि जितनी सजग स्वस्थ और प्रतिकारक्षम रहती है उतनी ही उन संकटों से बचने की संभावना बढ़ती है। परंतु, मनुष्य को अंदर से भी संकट पैदा होने का भय तो रहता ही है। कई प्रकार के संकट पैदा करनेवाले कारक शरीर के ही अंदर निवास करते हैं। शरीर की रोग प्रतिकारक शक्ति कम होने से उनका प्रभाव दिखाई देता है अन्यथा उनका उपद्रव नहीं होता।

हम सब लोग जानते हैं की गत कुछ वर्षों में एक परिवर्तन भारत की सोच की दिशा में आया है। उसको न चाहने वाले व्यक्ति दुनिया में भी है और भारत में भी है। भारत को बढ़ता हुआ देखना जिनके स्वार्थों के लिए भय पैदा करता है, ऐसी शक्तियां भी भारत को दृढ़ता व शक्ति से संपन्न होने नहीं देना चाहती। दुर्भाग्य से भारत में समाज के एकात्मता की, समता व समरसता की स्थिति जैसी चाहिए वैसी अभी नहीं है। इसका लाभ लेकर इन शक्तियों के उद्योग चलते हुए हम सभी देख रहे हैं। विविधताओं को, जाति, पंथ, भाषा, प्रांत इत्यादि प्रकारों को, एक दूसरे से अलग करना, भेदों में परिवर्तित करना पहले से चलते आ रहे भेदों की खाईयों को, आपस में वैमनस्य भड़काकर और बढ़ाना, उत्पन्न किए गए अलगावों को मनगढ़ंत कृत्रिम पहचानों पर खड़ा कर, इस देश की एक सामाजिक धारा में अलग-अलग विरोधी प्रवाह उत्पन्न करना; ऐसा प्रयास चल रहा है। सजगतापूर्वक इन कुचक्रों की पहचान करते हुए, उनका बौद्धिक तथा सामाजिक धरातल पर प्रतिकार होने की आवश्यकता है। शासन व प्रशासन में कार्यरत व्यक्तियों द्वारा सदभावनापूर्वक प्रवर्तित नीति, दिये गए वक्तव्यों या निर्णयों को भी गलत अर्थ में अथवा तोड़मरोड़ कर प्रचारित कर अपने घृणित उद्देश्यों के लाभ के लिए ऐसी शक्तियाँ उपद्रव करती है। सतत सावधानी की आवश्यकता है। ऐसी सब गतिविधियों में कहीं ना कहीं देश के कानून, नागरिक अनुशासन आदि के प्रति वितृष्णा उत्पन्न करने का छुपा अथवा प्रकट प्रयास चलता है। उसका सभी स्तरों पर अच्छा प्रतिकार होना चाहिए।

आजकल अपने ही समाज के एक समुदाय के द्वारा दूसरे समुदाय के व्यक्तियों पर आक्रमण कर उनको सामूहिक हिंसा के शिकार बनाने के समाचार छपे हैं। ऐसी घटनाएं केवल एक तरफा नहीं हुई है। दोनों तरफ से ऐसी घटनाओं के समाचार हैं तथा आरोप-प्रत्यारोप चलते हैं। कुछ घटनाओं को जानबूझकर करवाया गया है तथा कुछ घटनाओं को विपर्यस्त रूप में प्रकाशित किया गया है, यह बात भी सामने आई है। परंतु, कहीं ना कहीं कानून और व्यवस्था की सीमा का उल्लंघन कर यह हिंसा की प्रवृत्ति समाज में परस्पर संबंधों को नष्ट कर अपना प्रताप दिखाती है इस बात को स्वीकार तो करना ही पड़ेगा। यह प्रवृत्ति हमारे देश की परंपरा नहीं है, न ही हमारे संविधान में यह बात बैठती है। कितना भी मतभेद हो, कितना भी भड़काई जाने वाली कृतियाँ हुई हो, कानून और संविधान की मर्यादा के अंदर रहकर ही, पुलिस बलों के हाथ में ऐसे मामले देकर, न्याय व्यवस्था पर विश्वास रखकर ही चलना पड़ेगा। स्वतंत्र देश के नागरिकों का यही कर्तव्य है। ऐसी घटनाओं में लिप्त लोगों का संघ ने कभी भी समर्थन नहीं किया है और ऐसी प्रत्येक घटना के विरोध में संघ खड़ा है। ऐसी घटनाएं ना हो इसलिए स्वयंसेवक प्रयासरत रहते हैं। परंतु ऐसी घटनाओं को, जो परंपरा भारत की नहीं है ऐसी परंपरा को दर्शाने वाले ‘लिंचिंग’ जैसे शब्द देकर, सारे देश को व हिंदू समाज को सर्वत्र बदनाम करने का प्रयास करना; देश के तथाकथित अल्पसंख्यक वर्गों में भय पैदा करने का प्रयास करना; ऐसे षड्यंत्र चल रहे हैं यह हम को समझना चाहिए। भड़काने वाली भाषा तथा भड़काने वाले कृतियों से सभी को बचना चाहिए। विशिष्ट समुदाय के हितों की वकालत करने की आड़ में आपस में लड़ा कर स्वार्थ की रोटियां सेकने का उद्योग करने वाले तथाकथित नेताओं को प्रश्रय नहीं देना चाहिए। ऐसी घटनाओं का कड़ाई से नियंत्रण करने के लिए पर्याप्त कानून देश में विद्यमान है। उनका प्रामाणिकता से व सख्ती से अमल होना चाहिए।

समाज के विभिन्न वर्गों को आपस में सद्भावना, संवाद तथा सहयोग बढ़ाने के प्रयास में प्रयासरत होना चाहिए। समाज के सभी वर्गों का सद्भाव, समरसता व सहयोग तथा कानून संविधान की मर्यादा में ही अपने मतों की अभिव्यक्ति और हितों की रक्षा के लिए प्रयास करने का अनुशासन पालन करना, यह आज की स्थिति में नितांत आवश्यक बात है। इस प्रकार के संवाद को, सहयोग को बढ़ाने का प्रयास संघ के स्वयंसेवक प्रारंभ कर रहे हैं। इसके बाद भी कुछ बातों का निर्णय न्यायालय से ही होना पड़ता है। निर्णय कुछ भी हो आपस के सद्भाव को किसी भी बात से ठेस ना पहुंचे ऐसी वाणी और कृति सभी जिम्मेदार नागरिकों की होनी चाहिए। यह जिम्मेवारी किसी एक समूह की नहीं है। यह सभी की जिम्मेवारी है। सभी ने उसका पालन करना चाहिए और प्रारंभ स्वयं से करना चाहिए।

विश्व की आर्थिक व्यवस्था चक्र की गति में आयी मंदी सर्वत्र कुछ न कुछ परिणाम करती है। अमरीका व चीन में चली आर्थिक स्पर्धा के परिणाम भी भारतसहित सभी देशों को भुगतने पड़ते हैं। इस स्थिति से राहत देनेवाले कई उपाय शासन के द्वारा गत डेढ़ महिने में किये गये हैं। जनता के हितों के प्रति शासन की संवेदना व उसकी सक्रियता का परिचय इससे अवश्य मिलता है। इस तथाकथित मंदी के चक्र से हम निश्चित रूप से बाहर आयेंगे, हमारे आर्थिक जगत की सभी हस्तियों का यह सामर्थ्य अवश्य है।

अर्थव्यवस्था में बल भरने के लिए विदेशी सीधे पूँजी निवेश को अनुमति देना तथा उद्योगों का निजिकरण ऐसे कदम भी उठाने को सरकार बाध्य हो रही है। परन्तु सरकार की कई लोककल्याणकारी नीतियाँ व कार्यक्रमों के निचले स्तर पर लागू करने में अधिक तत्परता व क्षमता तथा अनावश्यक कड़ाई से बचने से भी बहुत सी बातें ठीक हो सकती है।

परिस्थिति के दबावों का उत्तर देने के प्रयास में स्वदेशी का भान विस्मृत होने से भी हानि होगी। दैनन्दिन जीवन में देशभक्ति की अभिव्यक्ति को ही स्व. दत्तोपंत ठेंगड़ी “स्वदेशी” मानते थे। स्व. विनोबाजी भावे ने उसका अर्थ “स्वावलंबन तथा अहिंसा” यह किया है। सभी मानकों में स्वनिर्भरता तथा देश में सबको रोजगार ऐसी शक्ति रखनेवाले ही अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक संबंध बना सकते हैं, बढ़ा सकते हैं तथा स्वयं सुरक्षित रहकर विश्वमानवता को भी एक सुरक्षित व निरामय भविष्य दे सकते हैं। अपने आर्थिक परिवेश के अनुसार कोई घुमावदार दूर का रास्ता हमें चुनना पड़ सकता है तो भी लक्ष्य व दिशा तो स्वसामथ्र्य को बनाकर मजबूरियों से सदा के लिए बाहर आना यही होना चाहिए।

परंतु इतर तात्कालिक संकटों का तथा विश्व में चलने वाले आर्थिक उतार-चढ़ाव का परिणाम हमारी अर्थव्यवस्था पर कम से कम हो, इसलिए हमको मूल में जाकर विचार करना पड़ेगा। हमको हमारी अपनी दृष्टि से, हमारी अपनी आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर, हमारी अपनी जनता का रूप और परिवेश ध्यान में रखकर, हमारे अपने संसाधन और जन का विचार करते हुए, हमारी आकांक्षाओं को सफल साकार करने वाली अपनी आर्थिक दृष्टि बनाकर, अपनी नीति बनानी पड़ेगी। जगत का प्रचलित अर्थविचार कई प्रश्नों का उत्तर देने में असमर्थ है। उसके मानक भी कई प्रकार से अधूरे पड़ते हैं यह बात विश्व के अनेक अर्थतज्ञों के द्वारा ही सामने आ रही है। ऐसी अवस्था में कम से कम ऊर्जा का उपयोग करते हुए अधिकाधिक रोजगार पैदा करने वाली पर्यावरण के लिए उपकारक, हमको हर मामले में स्वनिर्भर बना सकने वाली तथा अपने बलबूते सारे विश्व के साथ हम अपनी शर्तों पर व्यापारी संबंध बनाएँ बढ़ाए%

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