जेएनयू पूरा देश नहीं

सोशल मीडिया और नागरिक पत्रकारिता के कारण यह सच सभी के सामने आ रहा है कि सीएए के समर्थन करने वालों की संख्या अत्यधिक है और जेएनयू में जो हो रहा है वह दिखावा मात्र है। जेएनयू पूरा देश नहीं है।

आखिरकार अपनी सारी शक्ति लगाने के बाद सभी कपिल सिब्बलों, उनके आकाओं और उन जैसी सोच रखने वालों को यह मान ही लेना पडा कि नागरिकता संशोधन कानून को अगर देश के दोनों सदनों ने पारित कर दिया है तो उसे लागू करना ही होगा। कोई भी राज्य सरकार इसे लागू करने से मना नहीं कर सकती। हर तरीके के हथकंड़े अपना कर इन सभी ने यह भरसक प्रयास किया कि किसी तरह केंद्र सरकार पर दबाव बनाया जाए और उसे यह फैसला पीछे लेने को मजबूर किया जाए परंतु इस बार भी उनकी एक नहीं चली। वैसे ही जैसे ट्रिपल तलाक और धारा 370 के हटने के बाद नहीं चली थी।

भले ही यह सच्चाई हो कि नागरिकता संशोधन कानून के कारण किसी भारतीय को कोई खतरा नहीं है और इसका किसी भारतीय समुदाय विशेष से कोई लेना देना नहीं है, परंतु चूंकि यह मुस्लिम तुष्टीकरण और वामपंथ की विचारधारा के विपरीत है अत: इन लोगों के पेट में मरोड उठना स्वाभाविक है। पेट में मरोड उठना पाचन तंत्र में खराबी की निशानी होती है और यह तब तक ठीक नहीं होती जब तक वह खराबी शरीर से बाहर न निकल जाए। जेएनयू, शाहीनबाग, उत्तर प्रदेश और अन्य भाजपा शासित राज्यों में अधिकांशत: मुसलमानों और वामपंथी विचारों का समर्थन करने वालों के सीएए के विरोध में प्रदर्शन करना इसी खराबी के बाहर आने का नमूना है।

नागरिकता संशोधन कानून के बनने से लेकर अब तक उसके विरोध में कई प्रदर्शन हुए। देश के विभिन्न शहरों में कई शासकीय और निजी सम्पत्तियों को तोड़ा और जलाया गया। परंतु क्या कारण है कि किसी भी विरोध प्रदर्शन में कोई भी बड़ा वामपंथी नेता सड़क पर नजर नहीं आया? क्या कारण रहा कि दिल्ली की कंपकंपाती ठंड में किए जा रहे प्रदर्शनों में कांग्रेस के आजन्म युवा नेता एक बार भी नजर नहीं आए? जाहिर है उत्तर प्रदेश में योगी सरकार की पुलिस के डंड़े खाकर अपनी कमर तुड़वाने का शौक किसी को नहीं था। प्रियंका गांधी भी उस दिन के बाद नजर नहीं आई जब इंडिया गेट पर कुछ घंटे धूप सेंकने के बाद भी उनके साथ प्रदर्शन करने वालों को फोन करके बुलाना पड़ा। यह आलेख पाठकों तक पहुंचने तक शाहीनबाग के प्रदर्शन का हश्र भी दिख जाएगा क्योंकि बिरयानी और नोटों के बल पर किया जा रहा प्रदर्शन कितना लंबा खिंचेगा?

इन सभी में केवल एक ही आंदोलन है जो शुरू से आज तक चल रहा और वह आंदोलन है जेएनयू का।जेएनयू के अलावा कोई भी विरोध प्रदर्शन इतना लंबा, हाईप्रोफाइल और मेन स्ट्रीम मीडिया का लाडला नहीं बन पाया। क्यों? इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं कि जिस प्रकार बीज तभी पनपता और फलता-फूलता है जब जमीन उपजाऊ हो। राष्ट्रविरोधी वामपंथी विचारों के पनपने और फलने-फूलने के लिए जेएनयू से ज्यादा उपजाऊ जमीन तो कोई हो ही नहीं सकती। उसकी तो स्थापना से लेकर आज तक के इतिहास को खंगालने नहीं केवल टटोलने भर से समझ में आ जाएगा कि वहां क्या पकता है। वहां के कुछ प्रतिशत विद्यार्थियों को छोड़ दिया जाए जो सचमुच विद्यार्थी की मानक आयु में अपनी शिक्षा पूर्ण कर वर्तमान में केंद्रीय वित्त मंत्री और उच्च पदस्थ अधिकारी बन चुके हैं, बाकी के सभी तो इसी कथनी को साकार कर रहे हैं कि इंसान उम्र भर विद्यार्थी ही रहता है। चालीस-पैंतालीस वर्ष की उम्र तक किसी विश्वविद्यालय में विद्यार्थी बने रहना या तो व्यक्ति की ज्ञानार्जन की भूख को इंगित करता है या फिर उसके बौद्धिक दीवालियेपन को। परंतु जेएनयू के इन अधेड उम्र के विद्यार्थियों में यह दोनों ही दिखाई नहीं देता। इनमें ज्ञानार्जन की कोई भूख नहीं है वरना पचहत्तर प्रतिशत उपस्थिति को आवश्यक करने पर वे इतनी हायतौबा न मचाते। और न ये विद्यार्थी बौद्धिक दिवालिए हैं क्योंकि वे प्रदर्शनों के पीछे की राजनीति और मीडिया का ध्यान अपनी ओर कैसे आकर्षित करना है यह अच्छी तरह से जानते हैं। ये विद्यार्थी एक विधिवत रचे गए षड्यंत्र के अंतर्गत वहां बने हुए हैं या यों कहे कि इन्हें जानबूझकर वहां रखा गया है। जिससे ये वामपंथ की भूमि को निरंतर उपजाऊ बनाने का काम करते रहें।

वास्तव में इनका विरोध सीएए को लेकर है ही नहीं। इनका विरोध तो स्थापित व्यवस्था को बदलने के विरोध में है। सीएए के बैनर तो इनके वामपंथी और मुस्लिम तुष्टीकरण करने वाले आकाओं ने इनके हाथ में कुछ समय के लिए खिलौने के तौर पर दे दिए हैं। कुछ समय बाद जब सीएए के विरोध की हवा उतर जाएगी, तब उनके हाथ में नए पोस्टर, नए खिलौने होंगे। हो सकता है एनआरसी जिससे इनके आका पहले ही खौफ खाए बैठे हैं, उन्हें एनआरसी के खिलाफ खडा कर दें।

जेएनयू में आंदोलन कराने का एक बड़ा फायदा यह होता है कि इसे हमेशा ही छात्र आंदोलन का स्वरूप मिल जाता है और यूनिवर्सिटी कैंपस में होने के कारण पुलिस के डंड़ों से भी बचा जा सकता है। ‘सॉफ्ट कार्नर‘ पकड़ कर ‘हार्ड पंच’ मारना हो तो जेएनयू से बेहतर कुछ नहीं। दीपिका भी ‘छपाक’ से यहां ऐसे ही थोेडे पहुंच गई थी। खैर!

जैसे कि ऊपर कहा गया कि इनका विरोध सीएए को लेकर नहीं है तो इनका विरोध किसलिए है? वास्तव में इनका विरोध जेएनयू में स्थापित व्यवस्था के बदले जाने के विरोध में है। जब इन विद्यार्थियों को पता चला कि जेएनयू की फीस, वहां रहने खाने का खर्च, न्यूनतम उपस्थिति की सीमा आदि सभी बातों को अन्य विश्वविद्यालयों के मानकों की तरह करने का निर्णय लिया जा रहा है तो इन्होंने विरोध करना प्रारंभ कर दिया। अभी जेएनयू में लड़के-लड़कियों के हॉस्टल में प्रवेश करने में कोई पाबंदी नहीं है, यहां तक कि हॉस्टल के गेट बंद होने का भी कोई समय नहीं है या है भी तो पालन करने की सख्ती नहीं है। इन सभी को अन्य विश्वविद्यालय के नियमों के अनुरूप बनाने की खबर आते ही फिर वही मरोड़, फिर वही पेट दर्द फिर वही…..। नियमों में बंधने पर इनकी आजादी को खतरा तो होगा ही। फिर कौन लड़कों को लड़कियों के और लड़कियों को लड़कों के हॉस्टल में देर रात रुकने की आजादी देगा। कौन इन्हें ‘किस ऑफ लव’ के बहाने एक दूसरे को यों सबके सामने एक दूसरे को चूमने की आजादी देगा? कौन यहां अश्लीलता की हद पार करने वाले कृत्य करने की आजादी देगा? कौन इन्हें अफजल गुरू की फांसी के दिन उसकी ‘वीरगाथा के कसीदे’ पढ़ने की आजादी देगा? कौन इन्हें भारत में ही रह कर भारत के टुकड़े-टुकड़े करने के नारे लगाने की आजादी देगा? जेएनयू के विद्यार्थियों को यह आजादी बड़ी प्यारी है। इसलिए वे आजादी की मांग करने वाले नारे ही लगाते हैं।

भारत, जिसकी नींव ही यहां के संस्कार हैं, जेएनयू उस नींव में लगे कीड़े की तरह है, जो उसे खोखला कर रही है। वामपंथ जिसकी नींव ही स्वैराचार है, निरंतर और बड़ी लगन के साथ जेएनयू की पीढ़ियों को नष्ट करने का कार्य कर रही है। जिस आयु में नौजवानों को स्वयं की और राष्ट्र की उन्नति के बारे में सोचना चाहिए उस उम्र में अगर वे आतंकवादियों की जयजयकार करेंगे तो आने वाली नस्लें आतंकवादी ही बनेंगी।

इस आंदोलन को सीएए का अखिल भारतीय आंदोलन बनाने का श्रेय इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को भी जाता है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का ध्यानाकर्षण करना जेएनयू के विद्यार्थी चाहते ही थे और वे इसमें सफल भी हो गए। देशभर में हो रहे विभिन्न विरोध प्रदर्शनों की तरह ही इसे भी एक-दो दिन के बाद केंद्रित करना छोड दिया जाता तो यह आंदोलन कम से कम सीएए के विरोध का आंदोलन नहीं रहता वरन वे अपने मूल आजादी की मांग करने वाले आंदोलन पर आ जाते। जेएनयू के छात्र दलों के बीच हुए टकराव की वजह भी सीएए नहीं वरन आजादी की अपनी-अपनी परिभाषा है। परंतु जेएनयू के आंदोलन को सीएए के विरोध प्रदर्शन का आंदोलन बना कर मीडिया यह दिखाने की कोशिश करने लगा कि पूरा देश ही सीएए के विरोध में है। परंतु सोशल मीडिया और नागरिक पत्रकारिता के कारण यह सच सभी के सामने आ रहा है कि सीएए के समर्थन करने वालों की संख्या अत्यधिक है और जेएनयू में जो हो रहा है वह दिखावा मात्र है। जेएनयू पूरा देश नहीं है।

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