जलवायु परिवर्तन का भारत पर प्रभाव

भारत के साथ ही पूरे विश्व को यह समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन मानवीय गतिविधियों से उपजा है। …इसलिए उन सभी वस्तुओं का त्याग इंसानी जीवन से करना होगा, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को हानि पहुंचाती हैं।

जल और वायु शब्दों से मिल कर जलवायु बना है। जल और वायु को पृथ्वी पर जीवन का आधार अथवा प्राण कहा जाता है। इन दोनों शब्दों के जोड़ से मिल कर मौसम बनता है और मौसमी घटनाओं में बदलाव को ही जलवायु परिवर्तन कहा जाता है। इस मौसम को बनाने में ऋतुओं का अहम योगदान है और भारत में शीत, ग्रीष्म, वर्षा और शरद चारों प्रकार की ऋतुएं हैं, जो देश को प्राकृतिक संपदा से सम्पन्न बनाती हैं। हर ऋतु की अपनी एक विशिष्ट विशेषता एवं पहचान है, लेकिन विकसित होने के लिए जैसे जैसे भारत अनियमित विकास की गाड़ी पर बैठ कर आगे बढ़ रहा है, वैसे वैसे ही देश के खुशनुमा आसमान पर जलवायु परिवर्तन के बादल और घने होते जा रहे हैं। ऋतुओं के चक्र व समयकाल में बदलाव हो रहा है। हालांकि जलवायु परिवर्तन का असर पूरे विश्व पर पड़ रहा है, लेकिन भारत पर इसका प्रभाव अधिक दिख रहा है। जिसके लिए अनियमित औद्योगिकरण मुख्य रूप से जिम्मेदार है, किंतु केवल उद्योगों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता, बल्कि देश का हर नागरिक या कहें कि बढ़ती आबादी भी इसके लिए जिम्मेदार है।

दरअसल बढ़ती आबादी की आवश्यकताओं को पूरा करने तथा रोजगार उपलब्ध कराने के लिए विश्व भर में औद्योगिकरण पर जोर दिया गया। लोगों के रहने, उद्योग लगाने, ढांचागत निर्माण जैसे रेलवे लाइन, मेट्रो स्टेशन, एयरपोर्ट, हाईवे, पुल आदि बनाने के लिए बड़े पैमाने पर जंगलों को काटा गया। पेड़ों के कटने की संख्या का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बीते 3 वर्षों में भारत के विभिन्न स्थानों पर 69 लाख 44 हजार 608 पेड़ों को काटा गया। सरल शब्दों में कहें तो विकास की गाड़ी को चलाने के लिए जीवन देने वाले पर्यावरण की बलि चढ़ा दी गई। यही हाल विश्व के अन्य देशों का भी है और पेड़ों का कटना थमने का नाम नहीं ले रहा है। जिस कारण दिल्ली, भोपाल, इंदौर, बुंदेलखंड जैसे देश के अनेक स्थान, जो कभी हरियाली से लहलहाते थे आज सूने पड़े हैं। विदित हो कि वृक्षों का कार्य केवल हरियाली को बनाए रखना ही नहीं बल्कि वातावरण से कार्बन डाइऑक्साइड को सोख कर ऑक्सीजन प्रदान करने सहित मृदा अपरदन रोकना और भूमिगत जल स्तर बनाए रखना भी होता है। वृक्ष मौसम चक्र को बनाए रखने में भी सहायता करते हैं, किंतु वैश्विक स्तर सहित भारत में हो रहे वनों के कटान ने जलवायु को काफी परिवर्तित कर दिया है। उद्योग जगत भी जलवायु परिवर्तन में अपना पूरा योगदान दे रहा है।

देश में नियमों का सख्ती से पालन न होने के कारण उद्योगों के जहरीले कचरे को नदियों और तालाबों आदि में बहा दिया जाता है। विशाल आबादी का सीवरेज भी सीधे नदियों आदि में बहाया जाता है। एनजीटी द्वारा प्रतिबंध लगाने के बावजूद भी खुले में प्लास्टिकयुक्त कूड़े को धड़ल्ले से जलाया जाता है। कुछ नगर निकाय तो खुद ही कचरे में आग लगा देते हैं। इससे कार्बन उत्सर्जन होता है। वहीं देश के अधिकांश उद्योग न तो पर्यावरणीय मानकों को पूरा करते हैं और न ही नियमों का पालन करते हैं। इसके बावजूद भी वे बेधड़क होकर हवा में जहर घोल रहे हैं। फलस्वरूप, चीन (27.2 प्रतिशत) और अमेरिका (14.6 प्रतिशत) के बाद भारत (6.8 प्रतिशत) दुनिया का तीसरा सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है। विश्व में बड़े पैमाने पर हो रहे कार्बन उत्सर्जन ने ही ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ा दिया है। इससे जलवायु परिवर्तन जैसी घटनाएं भीषण रूप में घटने लगी तो पूरी दुनिया चिंतित हुई। कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए पेरिस समझौता किया गया, लेकिन अमेरिका ने कुछ समय बाद समझौते से खुद को पीछे खींच लिया। खैर भारत सहित विश्व के अधिकांश देशों में पेरिस समझौते का अनुपालन करते हुए कार्बन उत्सर्जन को कम करने के धरातल पर उपाय होते नहीं दिख रहे हैं। जिसके अब भयानक परिणाम

सभी देशों को दिखने लगे हैं। भारत इससे भयावह रूप से प्रभावित दिख भी रहा है।

जलवायु परिवर्तन के कारण गर्म दिनों की संख्या में इजाफा हो रहा है। ग्लेशियर हर साल 4 प्रतिशत की रफ्तार से पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर भी प्रति वर्ष 4 मिलीमीटर तक बढ़ रहा है। इससे मुंबई सहित समुद्र के किनारे बसे शहरों के डूबने का खतरा बना हुआ है, जबकि सुंदरवन का 9000 हेक्टेयर से अधिक भूखंड समुद्र में समा चुका है। तो वहीं सुंदरवन का निर्जन टापू, घोड़ामारा द्वीप और न्यू मूर द्वीप भी पानी में समा चुके हैं और यहां के लोग पलायन कर रहे हैं। न्यू मूर वही द्वीप है जिसके मालिकाना हक को लेकर भारत और बांग्लादेश के बीच काफी विवाद चला था, लेकिन मालिकाना हक तय होने से पहले ही पूरा द्वीप पानी में समा गया। ग्लेशियर और समुद्र के अलावा जमीन पर भी जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पड़ रहा है। अनियमित विकास के कारण जन्मी जलवायु परिवर्तन की विभीषिका और मानवीय गतिविधियों के चलते भारत की छोटी-बड़ी करीब 4500 नदियां सूख गई हैं। 22 लाख तालाब विलुप्त हो चुके हैं। अति दोहन के कारण दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, हैदराबाद, कानपुर जैसे शहरों में भूजल समाप्त होने की कगार पर पहुंच चुका है, जबकि देश के अधिकांश राज्य यहां तक कि हिमालयी राज्य भी जल संकट से जूझ रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक हम भारतीय जाने अनजाने में हर दिन 49 करोड़ लीटर पानी बर्बाद कर देते हैं। वहीं बढ़ती गर्मी या गर्म दिनों की संख्या ने इस समस्या को और बढ़ा दिया है। जिस कारण भारत की 30 प्रतिशत भूमि मरुस्थलीकरण की चपेट में आ चुकी है।

सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) द्वारा जारी ‘स्टेट ऑफ एनवायरमेंट इन फिगर्स 2019’ की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2003 से 2013 के बीच भारत का मरुस्थलीय क्षेत्र 18.7 लाख हेक्टेयर बढ़ा है। विश्व का 23 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्र मरुस्थलीकरण का शिकार हो चुका है और विश्वभर में प्रति मिनट 23 हेक्टेयर भूमि मरुस्थल में तब्दील हो रही है। भारत के सूखा प्रभावित 78 जिलों में से 21 जिलों की 50 प्रतिशत से अधिक जमीन मरुस्थल में बदल चुकी है। वर्ष 2003 से 2013 के बीच देश के नौ जिलों में मरुस्थलीकरण 2 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है। गुजरात, मध्यप्रदेश व राजस्थान के 4-4 जिले, तमिलनाडु और जम्मू कश्मीर के 5-5 जिले, पंजाब, हरियाणा, कर्नाटक और केरल के 2-2 जिले, गोवा का 1, महाराष्ट्र और हिमाचल प्रदेश में 3 जिले मरुस्थलीकरण की चपेट में है, जबकि पंजाब का 2.87 प्रतिशत, हरियाणा का 7.67 प्रतिशत, राजस्थान का 62.9 प्रतिशत, गुजरात का 52.29 प्रतिशत, महाराष्ट्र का 44.93 प्रतिशत, तमिलनाडु का 11.87 प्रतिशत, मध्य प्रदेश का 12.34 प्रतिशत, गोवा का 52.13 प्रतिशत, कर्नाटक का 36.24 प्रतिशत, केरल का 9.77 प्रतिशत, उत्तराखंड का 12.12 प्रतिशत, उत्तर प्रदेश का 6.35 प्रतिशत, सिक्किम का 11.1 प्रतिशत, अरुणाचल प्रदेश का 1.84 प्रतिशत, नागालैंड का 47.45 प्रतिशत, असम का 9.14 प्रतिशत, मेघालय का 22.06 प्रतिशत, मणिपुर का 26.96 प्रतिशत, त्रिपुरा का 41.69 प्रतिशत, मिजोरम का 8.89 प्रतिशत, बिहार का 7.38 प्रतिशत, झारखंड का 66.89, पश्चिम बंगाल का 19.54 प्रतिशत और ओडिशा का 34.06 प्रतिशत क्षेत्र मरुस्थलीकरण से प्रभावित है। अहमदाबाद स्थित अंतरिक्ष अनुप्रयोग केंद्र के एटलस के मुताबिक झारखंड के भौगोलिक क्षेत्र का 50 प्रतिशत हिस्सा बंजर और भूमि-निम्नीकरण के अंतर्गत आता है। गिरिडीह जिले का 73.79 प्रतिशत हिस्सा भूमि निम्नीकरण की चपेट में है।

गर्मी के बढ़ते दिनों की संख्या की विभीषिका का उदाहरण अमेजन और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों की आग है, लेकिन भारत में भी गर्म दिन बढ़ रहे हैं। हर साल जंगलों में आग लगती है। भारत में वर्ष 2019 में गर्मी ने बीते 5 सालों का रिकॉर्ड तोड़ा था। ऐसे में अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि यदि विश्व का तापमान 2 डिग्री तक बढ़ा तो भोजन का संकट गहरा सकता है। इससे भारत जैसे विकासशील देश भयानक रूप से प्रभावित हो सकते हैं क्योंकि भारत पहले ही भुखमरी से लड़ रहा है और ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 117 देशों की सूची में भारत 102वे पायदान पर है। इसके अलावा क्लाइमेट इंपैक्ट लैब द्वारा डाटा सेंटर फॉर डेवलपमेंट के सहयोग से किए गए एक अध्ययन में राजधानी दिल्ली में गर्म दिनों की संख्या में 22 गुना, हरियाणा में 20 गुना, राजस्थान में 7 गुना और पंजाब में 17 गुना अधिक होने की संभावना जताई गई है। साथ ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, बिहार और उत्तर प्रदेश में प्रतिवर्ष होने वाली मौतों में 64 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी होने की संभावना है, जिससे जलवायु परिवर्तन के कारण वर्ष 2100 से भारत में प्रतिवर्ष मरने वालों की 15 लाख प्रतिवर्ष से अधिक हो जाएगी।

‘लैंसेट काउंटडाउन रिपोर्ट 2019” में  बताया गया कि वर्ष 1960 के बाद भारत में चावल के औसत उत्पादन में करीब दो प्रतिशत की कमी आई है, जबकि सोयाबीन और सर्दियों में उगने वाले गेहूं की उपज एक फीसदी तक घट गई है। शोध में बताया कि यदि जलवायु परिवर्तन में सुधार नहीं आया और वैश्विक तापमान बढता गया, तो वैश्विक स्तर प्रत्येक डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने से गेहूं की उपज 6 प्रतिशत, चावल 3.2 प्रतिशत, मक्का 7.4 प्रतिशत और सोयाबीन की उपज में 3.1 प्रतिशत तक की कमी आ जाएगी। करीब 35 अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र का पानी गर्म होने से समुद्री जीवन प्रभावित हो सकता है। ऐसे में समुद्र से मिलने वाले आहार में कमी आएगी, यानी पर्याप्त मात्रा में प्रोटीन नहीं मिल पाएगा, जो कुपोषण की स्थिति को बढ़ा देगा। भारत के सभी राज्यों में कुपोषण की स्थिति पर पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया, आईसीएमआर और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रेशन द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में करीब 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की चपेट में हैं।

उल्लेखनीय है कि देश में नदियों, वनों आदि को बचाने के लिए भारत में अलग-अलग स्थानों पर आंदोलन हो रहे हैं। इसमें मेधा पाटकर का नर्मदा बचाओ आंदोलन हो या फिर गंगा नदी की अविरलता के लिए मातृसदन का आंदोलन, जिसमें गंगा के लिए मातृसदन के तीन संत बलिदान तक दे चुके हैं या कोई अन्य आंदोलन। यह तमाम आंदोलन आज तक चिपको आंदोलन जैसा रूप धारण नहीं कर सके, क्योंकि जनसमर्थन, सूचना, ज्ञान आधारित निर्णय प्रक्रिया और संपर्क तंत्र पर्यावरण आंदोलन की ताकत होते हैं, किंतु वर्तमान में भारत में हो रहे पर्यावरण आंदोलन में बिखराव है न कि जनसमर्थन। वास्तव में अलग-अलग संगठनों के बैनर तले चल रहे आंदोलनों को संगठित होकर एकसाथ आवाज उठाने की जरूरत है। क्योंकि जन आंदोलनों का दबाव सरकार को कानून बनाने व उसे लागू करने के लिए बाध्य कर देता है। हालांकि देश में कई लोग अपने स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य कर रहे हैं, लेकिन जिस तेजी से जलवायु परिवर्तित हो रही है, उन लोगों के प्रयास नाकाफी रहेंगे। हालांकि वैश्विक स्तर पर भी जो प्रयास जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए हो रहे हैं, वे भी अनियमित और नाकाफी नजर आ रहे हैं। जिसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए यूएनसीसीडी देशों ने, जिसमें भारत भी शामिल है, बीते 2 वर्षों में 46 हजार करोड़ रुपए खर्च किए, किंतु परिणाम उत्साहजनक नहीं आया। दरअसल, भारत के साथ ही पूरे विश्व को यह समझना होगा कि जलवायु परिवर्तन मानवीय गतिविधियों से उपजा है। इसलिए धन खर्च करके जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका जा सकता। इसे रोकने के लिए आंदोलनों से ज्यादा मानवीय गतिविधियों या मानवीय जीवनशैली में बदलाव लाना बेहद जरूरी है, लेकिन देखा यह जाता है कि पर्यावरण के लिए आवाज उठाने वाले अधिकांश लोग अपनी जीवनशैली में परिवर्तन नहीं लाते। इसलिए उन सभी वस्तुओं का त्याग इंसानी जीवन से करना होगा, जो प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से पर्यावरण को हानि पहुंचाती हैं। साथ ही उद्योगों और परिवहन सेक्टरों पर भी सख्ती से लगाम लगानी होगी।

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