कानून निर्माण में महिलाओं का योगदान

वैदिक काल से लेकर आज तक महिलाओं ने अपने-अपने क्षेत्रों में अभूतपूर्व काम किया है। सामाजिक प्रश्नों पर आंदोलनों के साथ-राजनीति में भी वे अगुवा रहीं। वे महिलाओं व बच्चों की सुरक्षा के उपाय लागू करने और कानून बनाने में सहायक रही हैं। भारतीय संस्कृति की उदारता के कारण यह संभव हो पाया है।

‘कानून निर्माण में महिलाओं का योगदान’ यह विषय एक महत्वपूर्ण अध्ययन क्षेत्र है। इस संशोधन में जितना ही गहरे जाओ उतना ही विस्तार नजर आता है। कानून निर्माण में महिलाओं का योगदान ईसा पूर्व काल से होने के कारण उसकी थोड़ी झलक हमें ‘वैदिक एवं मध्यकालीन’ समय से देखने को मिलती हैं।

ॠषि-मुनियों ने अनुशासन को ध्यान में रखते हुए समाज तथा व्यक्ति के लिए कुछ नियम, कानून बनाए थे। मनुष्य की प्रगति हेतु जो नियम बनाए थे उसे ही धर्म कहा गया और वहीं जीवन पद्धति बन गई। तप, प्रतिभा, मेधा ये आत्मा के धर्म हैं। ये दिव्य गुण स्त्री और पुरूष का भेद नहीं करते, दोनों में यह गुण दिखाई देते हैं। यहीं कारण है कि वेद काल में मंत्रद्रष्टा पुरुष ॠषियों के समान स्त्री ॠषिका हुआ करती थीं।

वैदिक काल में ही घोषा, विश्ववारा ने लिंगभेद विरहित शिक्षा का पथ दिखाया। घोषा ने अपने पिता से भाई के समकक्ष शिक्षा पाने के अधिकार की मांग की। ॠग्वेद की ॠषिका घोषा और जुहू ब्रह्मजाया की राष्ट्र तथा राष्ट्रभक्ति की संकल्पना स्पष्ट थी। इसी संदर्भ में उन्होंने राष्ट्र का नेतृत्व और रक्षा का दायित्व बल संपन्न क्षत्रियों पर सौंपा। यहीं परंपरा आगे भी चलती रही। रोमशा, लोपामुद्रा तथा घोषा ने स्त्रियों की आशा, आकांक्षाओं तथा उनके अधिकारों के विषयों से संबंधित चर्चा की थी। पतिव्रता केवल पत्नी का ही धर्म नहीं है, अपितु पत्नीव्रत पति का भी धर्म है, यह महत्वपूर्ण कथन घोषा ने वैदिक काल में ही किया था। याज्ञवल्क ॠषि ने संन्यास आश्रम की ओर प्रस्थान करते समय अपनी संपत्ति का बंटवारा कात्यायनी और मैत्रेयी दोनों पत्नियों में समान रूप से किया था। स्थावर संपत्ति से मोक्ष एवं अमृतत्व नहीं मिलता, यह जानकारी रखने वाली मैत्रेयी ने पति के ज्ञान के बंटवारे की भी मांग की। पति के ज्ञान एवं संपत्ति पर भी पत्नी का अधिकार है यह कल्पना मैत्रेयी को वेद काल में भी थी। कल्पना की उपज ‘मैत्रेयी विद्या’ है।

जीवन-यापन के लिए परिवार व्यवस्था के जो नियम बनाए गए उनमें महिला लिखित ॠचाओं का भी समावेश किया गया था। इस प्रकार कानून बनाने में वैदिक कालीन महिलाओं का योगदान रहा है।

मध्यकालीन महिलाओं का कानून बनाने में योगदानः

रामायण-महाभारत युग में भी महिलाएं अपने अधिकारों के बारे में सजग थीं। राज्य परिपालन सुचारू रूप से चलाती थीं। शातवाहन रानी नागनिका अपने नाबालिक बेटे के माध्यम द्वारा शासन चलाती थी। वाकाटक राजपुत्र की ओर से चंद्रगुप्त द्वितीय की बेटी प्रभावती भी राज्य व्यवस्था की देखभाल करती थीं। रानी दुर्गावती ने पति निधन के पश्चात गौड शासन की कमान संभाली थी। गढ़वाल के राजा महिपत शहा के निधन के बाद रानी कर्णावती ने अपने छोटे बेटे पृथ्वीपति के माध्यम से राज्य संभाला।

तेरहवीं सदी में काकतीय राजा गणपति देव ने समाज में एक नई रूढ़ी का परिपालन करते हुए अपनी बेटियों को राजपुत्रों की तरह शिक्षा दी। पुत्र होने पर भी अपनी बेटी रूद्रम्मा को ‘राजा रूद्रदेव’ यह नाम देकर उत्तराधिकारी घोषित किया। रानी रूद्रम्मा एकमात्र काकतीय शासक रही जो अंतिम क्षण तक रणभूमि में युद्ध करती रहीं। रानी रूद्रम्मा की छोटी बहन गनपाम्मा भी आंध्र प्रदेश की महत्वपूर्ण रानियों में से एक थीं।

सोलहवीं सदी में चौटा नामक के जैन वंश की रानी अबक्का ने अपने कर्तृत्व से अनोखा इतिहास रचा। रानी ने जनहित में अनेक कानून बनवाए। ऐसे विवाह में अपने धर्म के रीति-रिवाज छोड़ना लड़की के लिए अनिवार्य नहीं था। सर्व धर्म समभाव के लिए रानी ने कठोर नियम बनवाए। उन्होंने मस्जिद से पुर्तुगाली जहाजों पर अग्निबाणों की वर्षा करवाई थी। जिसके कारण पुर्तुगाली अनेक वर्षों तक रानी अबक्का के साम्राज्य से दूर रहे।

अहिल्याबाई होलकर ने 1778 में विधवा स्त्री को अपना वारिस चुनने के अधिकार को कानून में परावर्तित किया। इस प्रकार के कानून को बनाने वाली प्रथम और एकमात्र शासक रहीं।

पैतृक संपत्ति में कन्या और पुत्र दोनों का समान अधिकार मिलने के लिए 1923 से महिलाएं जोर देती रहीं। तलाक और पैतृक रूपी अधिकार के लिए 1954 में दिल्ली में तेरह हजार महिलाओं ने मोर्चा निकाला था। पचास हजार हस्ताक्षर सहित निवेदन प्रस्तुत किया गया। 1961 में संबंधित कानून बन गया।

सदियों से महिलाओं पर अत्याचार होते रहे। महिलाओं ने हिम्मत से अन्याय और अत्याचार का सामना किया। महिलाओं पर होने वाले निरंतर अत्याचार देखने के बाद लक्ष्मीबाई केलकर ने महिलाओं को सशक्त तथा सक्षम बनाने की ठान ली। लक्ष्मीबाई केलकर एक सामान्य गृहिणी और सजग महिला थी। इसी विषय हेतु 1936 में महिलाओं के अखिल भारतीय संगठन ‘राष्ट्र सेविका समिति’ की स्थापना की गई। अत्याचार, बलात्कार की घटनाओं में कमी न आने के कारण महिलाएं उसके विरोध में आवाज उठाती रहीं। इसी के परिणाम स्वरूप भारत के हर प्रांत में केवल महिलाओं के पुलिस थानों की स्थापना हुई। राजस्थान में भंवरी देवी बलात्कार की घटना के बाद महिलाओं ने सारे देश भर आंदोलन छेड़ा। परिणामतः कार्यस्थल पर महिलाओं की छेड़छाड़ के खिलाफ विशाखा जजमेंट आया। सर्वोच्च न्यायालय की न्यायाधीश सुजाता मनोहर ने 1997 में जो निर्णय दिया उसी के आधार पर 1913 में लोकसभा में विशाखा कानून पारित हुआ।

दहेज पद्धति तथा कानूनः दहेज के विरोध में बीसवीं सदी के प्रारंभ से महिलाएं प्रयत्न कर रही थीं। 1951 में लोकसभा में दहेज विरोधी बिल प्रस्तुत किया। 1961 में लोकसभा में दहेज विरोधी बिल पारित हुआ और कानून बन गया।

तलाकः हिंदू परंपरा में विवाह विच्छेद को मान्यता नहीं थी। 1930 से ही महिलाओं ने विवाह विच्छेद की मांग करना शुरू किया। आखिर 1955 में हिंदू विवाह कानून के अंतर्गत सेक्शन 29(2) से विवाह विच्छेद का कानून बन गया। बुरखा और तलाक के विरोध में 1971 में पुणे के मुस्लिम सत्यशोधक मंडल और इंडियन सेक्युलर सोसायटी ने मिल कर मुस्लीम स्त्री परिषद बुलाई थी। इसका आयोजन समाज सुधारक हमीद दलवई ने किया था। उनके पश्चात 1985 में सुप्रीम कोर्ट का बहुचर्चित निर्णय आया जो शाहबानो को तलाक संबंध में न्याय दिलाने के पक्ष में था। 2007 में झकिया सोमान ने इस विषय में भारत में मुस्लिम महिला आंदोलन शुरू किया। 2012 में भारत की पीड़ित मुसलमान महिलाओं की एक सभा आयोजित की गई। एक साथ ट्रिपल तलाक बंद कराने के लिए पचास हजार महिलाओं के हस्ताक्षर के साथ संबंधित मंत्रियों को निवेदन दिया गया। 28 दिसंबर 2017 को लोकसभा में ट्रिपल तलाक संबंधित विधेयक पारित हुआ। अगस्त 2019 में यह कानून बना है।

स्वतंत्र भारत में लोकतंत्र को सुचारू रूप से चलाने के लिए, भारत का, अपना संविधान बनाना आवश्यक था। बाबू राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में 296 सदस्यों की संविधान समिति गठित हुई। संविधान समिति में 15 महिला सदस्यों की नियुक्ति हो गई।  दुर्गाबाई देशमुख, बेगम अ़ाजीज़ रसूल, रेणुका रे, हंसा मेहता, राजकुमारी अमृत कौर, दाक्षायणी वेलायुदान, पूर्णिमा बैनर्जी, विजयालक्ष्मी पंडित, अम्मू स्वामिनाथन, एनी मस्कारने, सरोजिनी नायडू, सुचेता कृपलानी आदि संविधान समिति की 15 महिला सदस्यों में कुछ स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थीं और कुछ समाज में महिला जीवन सुधारने के कार्य में लगी थीं।

हिंदू विवाह कानून 1955 के अंतर्गत स्पेशल मैरेज एक्ट में कानूनन जुदाई की सुविधा नहीं थी। सीता परमानंदन ने सबसे पहले इस सुविधा का महत्व सदन को अवगत कराया और राज्यसभा का यह पहला विधेयक एक महिला सांसद ने पारित करवाया। सीता परमानंदन द्वारा प्रस्तावित ‘बाल संस्थाओं के लाइसेंस 1953’ इस विधेयक पर दोनों सदनों में चर्चा होने के पश्चात कानून लागू किया। रूक्मिणीदेवी अरूंडेल ने ‘प्रिवेन्शन ऑफ क्रूएलिटी टू एनिमल्स बिल 1953’ सदन में प्रस्तुत किया। सुप्रसिद्ध नृत्यांगना एवं मनोनीत सदस्या रूक्मिणीदेवी अरूंडेल के संवेदनशील भाषण से तत्कालिन प्रधानमंत्री पं. नेहरूजी प्रभावित हुए। उन्होंने सरकार द्वारा यह कानून बनाने का अश्वासन दिया और आगे कानून भी बन गया।

मनोनीत सदस्य, समाज सेविक शकुंतला परांजपे ने ‘स्टरलायजेशन ऑफ अनफिट बिल 1964’ का प्रस्ताव सदन में रखा। दोनों सदन में और पूरे भारत वर्ष में इस संवेदनशील विषय पर विस्तृत चर्चा हुई। परिणाम स्वरूप परिवार नियोजन सरकार की स्वास्थ्य योजना का हिस्सा बन गया।

स्वतंत्र भारत की पहली महिला स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर का दिल्ली में ‘ऑल इंडिया इन्स्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सायन्सेस’ की स्थापना में बहुत बडा योगदान है। इंडियन नर्सिंग कौन्सिल एक्ट, फुड अ‍ॅडल्टरेशन, डेंटिस्ट बिल, ड्रग्ज एण्ड कॉस्मेटिकस, दिल्ली जॉइंट वॉटर एण्ड सीवेज बोर्ड, आदि संबंधित कानून राजकुमारीजी द्वारा प्रस्तुत विधेयकों से बने।

सुभद्रा जोशी, लक्ष्मी मेनन, सुशीला रोहतगी, शीला कौल, मार्गारेट अल्वा, अंबिका सोनी, कृष्णा तीरथ, कुमारी सेलजा, निर्मला सीतारामन, स्मृति ईरानी, मेनका गांधी, अनुप्रिया पटेल आदि मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित विधेयक दोनों सदन में पारित होकर कानून बने हैं।

जयललिता तमिलनाडु की दूसरी और सबसे युवा महिला मुख्यमंत्री थीं। उन्होंने शराब बंदी, आरक्षण, प्राथमिक सरकारी पाठशालाओं में केवल महिलाओं की नियुक्ति आदि कदम उठाए।

महिला आंदोलन और कानूनः

सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई,  अचमंबा एवं राजलक्ष्मी ने 19वीं सदी में स्त्री शिक्षा तथा विधवा विवाह इन प्रश्नों के लिए महिलाओं को संगठित किया। आंध्र प्रदेश में शराब बंदी का कानून लागू होने का श्रेय ग्रामीण महिलाओं द्वारा छेड़े गए अरक विरोधी आंदोलन को दिया जाता है।

उत्तराखंड की बहुउद्देशीय टिहरी परियोजना के अंतर्गत रैणी गांव से रास्ता बनाने के लिए 2451 पेड़ काटे जाने वाले थे। पेड कटाई के विरोधी रैली का नेतृत्व गौरादेवी कर रही थी। गौरादेवी और अन्य महिलाओं ने निड़रता से ठेकेदारों के बंदुकों का सामना किया। महिलाओं के इस चिपको आंदोलन के कारण ही पर्यावरण विभाग और पर्यावरण मंत्रालय की निर्मिति हो गई।

वैदिक काल की ॠषिकाओं को लेकर आज की महिला आंदोलक न्याय मांगने वाली धैर्यवान एवं न्याय देने वाली सामर्थ्यवान महिलाओं का परिचय हमें है। राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापिका वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकरजी कहती थीं कि ‘समाजरथ को सहजता से दिशा देने वाली सारथी भी महिला रही है।’ प्रेम और बंधुता पर निष्ठा रखते हुए समाज परिवर्तन को स्वीकारने वाली भारतीय स्त्री ने कानून निर्माण में अनोखा योगदान दिया है। इसका कारण है उदार भारतीय संस्कृति।

आज महिलाओं की क्षमता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। विश्व में अनेक देशों में महिला सांसदों के प्रति देखने का रूख बदल गया है। सांसद महिलाओं पर स्त्री होने के कारण कुछ विशेष जिम्मेदारियां होती हैं इसकी सोच अभी दुनिया भर के अनेक देशों में दिखाई देती है।

न्यूजीलैण्ड की प्रधानमंत्री जेसिंदा आर्डर्न ने अपने नवजात शिशु के साथ पार्लियामेंट में काम शुरू किया। बच्चे के साथ पार्लियामेंट में जाने वाली वह दुनिया की दूसरी सांसद हैं। हमारी लोकसभा में भी एक कमरे में बच्चों के लिए पढ़ने की एवं खेलने की व्यवस्था की गई है। महिला सांसदों के प्रति देखने का यह सकारात्मक द़ृष्टिकोण है। जिसके कारण कानून बनाने में अधिकाधिक महिलाएं योगदान देती रहेंगी। उज्ज्वल भविष्य का यह एक महत्वपूर्ण पहलू है।

This Post Has One Comment

  1. Anonymous

    बहुत अच्छा।

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