भारतीय ग्रामीण महिलाए

महिला आंदोलनों में ग्रामीण महिलाओं की आवाज दब कर रह गई है। आज जो कुछ भी अधिकार मिल रहे हैं वे सिर्फ शहरी मध्यम वर्ग की महिलाएं प्राप्त कर रही हैं। संगठित श्रम बाजार में ग्रामीण महिलाएं अनुपस्थित हैं। जिससे वे अपने शोषण व अत्याचार के खिलाफ भी खड़ी नहीं हो पा रही हैं।

ग्रामीण समाज एक ऐसी पितृ सत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था वाली मनोवृत्ति पर विद्यमान है जो मान कर चलती है कि महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं तथा उन्हें संपत्ति, स्वास्थ्य, शिक्षा यहां तक कि स्वयं के शरीर पर प्राकृतिक अधिकार से वंचित कर दिया जाता है। ग्रामीण समाज की महिलाओं की समस्याएं कुछ अलग प्रकृति की हैं। ग्रामीण समाज में 90 प्रतिशत महिलाएं खेती पर निर्भर हैं तथा असंगठित क्षेत्र में 98 प्रतिशत महिलाएं हैं। ग्रामीण महिलाओं को लगातार 16-18 घण्टे कार्य करना पड़ता है।

ग्रामीण महिलाओं के स्वास्थ्य, शिक्षा की स्थिति तो सोचनीय है। भारत सरकार के मानव संसाधन मंत्रालय की माने तो ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की ड्रॉप आउट रेट दर 2007-08 में कक्षा 5 में 24.4 प्रतिशत, कक्षा 8 में 41.3 प्रतिशत तथा कक्षा 10वीं में 57.3 प्रतिशत थी। ग्रामीण क्षेत्रों में 53 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल से पहले हो जाती है। महिलाओं को शिक्षा के पात्र नहीं समझा जाता तथा लड़कियों को स्कूल न भेजने के पीछे सोच यह रहती है कि लड़कियां पढ़ कर करेगी क्या उन्हें आखिर में चूल्हा ही तो संभालना है।

अगर स्वास्थ्य की बात करें तो लड़कियों में आज ग्रामीण क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर एनीमिया, कुपोषण, अस्वच्छता, खुले में शौच जैसी समस्याएं व्याप्त हैं। समाज में यह सोच है कि लड़कियां कठजीवी होती हैं। वे बीमार होने पर अपने आप ठीक हो जाएगी। अतः उनका इलाज नहीं करवाया जाता। जिसका परिणाम यह है कि आज मातृत्व मृत्यु दर 212 प्रति लाख पहुंच चुकी है।

ग्रामीण क्षेत्रों में कई स्थानों पर लड़कियों से देह व्यापार करवाया जाता है। जैसे राजस्थान, म.प्र. में काल-बेड़ियां व सांसी जनजातियों में वेश्यावृत्ति बड़े पैमाने पर प्रचलित है। इसके अतिरिक्त संगठित गिरोह द्वारा लड़कियों का अपहरण करके अथवा नौकरी के बहाने बहला-फुसला कर शहरों में वेश्यावृत्ति में धकेल दिया जाता है।

महिला आंदोलनों में ग्रामीण महिलाओं की आवाज दब कर रह गई है। आज जो कुछ भी अधिकार मिल रहे हैं वे सिर्फ शहरी मध्यम वर्ग की महिलाएं प्राप्त कर रही हैं तथा संगठित श्रम बाजार में ग्रामीण महिलाएं अनुपस्थित हैं। जिससे वे अपने शोषण व अत्याचार के खिलाफ भी खड़ी नहीं हो पा रही हैं।

ग्रामीण भारत की अनेक महिलाएं अपने जागृत जीवन का एक तिहाई भाग तीन कार्यों में खर्च कर रही हैं – पानी लाना, ईंधन इकट्ठा करना और चारा जमा करना। लेकिन, वे इसके अतिरिक्त भी बहुत कुछ करती हैं। लाखों ग्रामीण परिवारों की अर्थव्यवस्था अधिकांशतर उन्हीं के परिश्रम पर निर्भर है। देश के कुछ प्रांतों की ग्रामीण महिलाओं के विषय में बात करते हैं। इसके लिए चलें सबसे नीचे दक्षिण की ओर- केरल के दूरदराज क्षेत्र, ऐडमालाकुडी की 60 महिलाएं कुछ महीने पहले ही अपने गांव को बिजली से चमकाने के लिए सौ से अधिक सौर पैनल लाने के लिए एकत्रित हुईं। इसका मतलब था, इन पैनलों को मुन्नार कस्बे के पास पेट्टीमुडी में अपने सिर पर लादना और फिर उन्हें पहाड़ियों, जंगलों और जंगली हाथियों के क्षेत्र वाले 18 किलोमीटर के रास्ते से अपने गांव ले आना। ये महिलाएं ही थीं, अधिकांश अशिक्षित, सब की सब आदिवासी, जिन्होंने अपने गांव की निर्वाचित परिषद को समझाया कि सौर ऊर्जा ही समय की आवश्यकता है। उनमें से प्रत्येक पैनल का वजन 9 किलो तक हो सकता है और अधिकांश महिलाएं अपने सिर पर दो पैनल लाद कर ले आईं। उनमें से कुछ आदिवासी महिलाएं पतली थीं, जिनका वजन 40 किलो के आसपास था, यानी दो पैनल का मतलब हुआ उनके शरीर के वजन का लगभग आधा।

पिछले दो दशकों के दौरान इन महिलाओं को ग्रामीण भारत के बुनियादी और अक्सर बेरहम बदलाव का भी शिकार होना पड़ा है। क्योंकि लाखों को गांवों से पलायन करना पड़ा है या फिर खेती छोड़नी पड़ी है, इसलिए उनके काम का बोझ भी बढ़ा है (महिला और पुरुष दोनों ही पलायन कर रहे हैं, लेकिन इसमें पुरुषों की संख्या अधिक है)। महिलाओं को न केवल दुग्ध-व्यवसाय और मुर्गियों की देखभाल की पारंपरिक भूमिका को निभाने के लिए मजबूर किया जाता है, बल्कि वे खेती का भी बहुत सारा काम करती हैं। अब इतने बड़े नए दबाव के कारण उन्हें पशुओं की देखभाल के लिए कम समय मिल पाता है।

कृषि में भी 1990 के दशक तक, खेतों में बीज डालने वालों में 76 प्रतिशत संख्या महिलाओं की थी, जबकि धान के पौधों को एक जगह से उखाड़ कर दूसरी जगह लगाने वालों में 90 प्रतिशत महिलाएं शामिल थीं। खेतों से घरों तक फसल काट कर ले जाने में महिलाओं की हिस्सेदारी 82 प्रतिशत थी, खेत जोत कर फसल के लिए तैयार करने के काम में 32 प्रतिशत और दूध के कारोबार में 69 प्रतिशत महिलाएं शामिल होती हैं। उनके काम का बोझ इससे भी कहीं अधिक हो चुका है। फिर भी उन्हें उनकी मेहनत के अनुसार पहले की तरह कमतर मजदूरी ही मिलती है।

संयुक्त राष्ट्र ने 15 अक्टूबर को ग्रामीण महिलाओं का अंतरराष्ट्रीय दिवस घोषित किया है और 17 अक्टूबर को गरीबी उन्मूलन का अंतरराष्ट्रीय दिवस। उसने वर्ष 2014 को भी पारिवारिक खेती का अंतरराष्ट्रीय साल कहा। भारत में लाखों ग्रामीण महिलाएं इन ’पारिवारिक खेतों’ पर मजदूरी करती हैं। लेकिन जब स्वामित्व का सवाल आता है, तो ऐसा लगता है कि वे ’परिवार’ का हिस्सा नहीं हैं। खेत के मालिक के रूप में उनका नाम शायद ही लिखा जाता है और ग्रामीण महिलाओं की बड़ी संख्याओं की गिनती गरीबों में सबसे गरीब के रूप में होती है।

ये आधी आबादी मीडिया के लिए कम महत्व रखती है। उनके लिए तो मतलब की बात तब आई, जब फोर्ब्स एशिया ने 20 अक्टूबर को अपना अंक प्रकाशित किया। वह भी तब, जब फोर्ब्स एशिया ने भारत के 100 सबसे अमीर लोगों की अपनी सूची प्रकाशित की, जिसमें उसने ऐलान किया कि ये सभी अब डॉलर में करोड़पति हैं। ग्रामीण महिलाओं पर कोई कवर स्टोरी नहीं प्रकाशित होती।

जबरन विस्थापन से सबसे अधिक महिलाएं ही प्रभावित हुई हैं। ग्रामीण भारत में 1990 के दशक से ही यह आम बात है, जिसने लाखों लोगों की ज़िंदगी को उजाड़ दिया है। राज्य ने निजी और सरकारी औद्योगिक परियोजनाओं और ’स्पेशल इकोनॉमिक जोन’ के लिए जबरन खेतों पर कब्जा कर लिया है। जब ऐसा होता है, तब महिलाओं द्वारा पानी, ईंधन और चारे की तलाश में तय की गई दूरी बढ़ जाती है। ऐसा करते समय उन्हें नई जगहों पर मौजूद स्थानीय लोगों की दुश्मनी भी मोल लेनी पड़ती है। आज वनों तक में उनकी पहुंच सीमित हो गई है, जो कभी वहां से वन-उत्पाद प्राप्त करते थे। विस्थापन पर मजबूर हुए लोगों के लिए सम्मान के साथ काम बहुत कम, बल्कि नहीं के बराबर अवसर हैं।

पूर्वी राज्य ओडिशा की गुज्जरी मोहंती बताती हैं कि उनकी आयु 70 वर्ष है और वह पान के पत्तों की खेती करने वाली एक कुशल किसान हैं। पान के पत्तों से लदे मेरे खेत को देखिए कि इससे कितने लोगों का जीवनयापन चल रहा है। लेकिन उनका गांव इस्पात की बड़ी कंपनी पोस्को के खिलाफ विद्रोह पर आमादा है, जिसे राज्य सरकार ने उनके जैसे कई लोगों के खेतों को देने का वादा कर रखा है। ”वे क्या नौकरी देंगे?” वह सवाल करती हैं। ”यह फैक्ट्रियां मशीनों से चलती हैं, मनुष्यों से नहीं। कंप्यूटर और मोबाइल फोन ने अधिक नौकरियां पैदा की हैं या कम?

ग्रामीण महिलाओं को दूसरी वजहों से भी बढ़ा धक्का लगा है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के डेटा के अनुसार, 1995 से अब तक लगभग 300,000 किसानों ने आत्महत्या की है। आधिकारिक गिनती के हिसाब से, ऐसा करने वालों में सबसे अधिक संख्या पुरुषों की है। इसके कारण महिलाओं पर अविश्वसनीय दबाव पड़ता है, क्योंकि उन्हें अचानक बड़े परिवारों को चलाने, बैंकों, साहूकारों और नौकरशाही से निपटने के लिए छोड़ दिया जाता है।

तेलंगाना के वारंगल जिले में कृषि कामगारों के हाल ही में हुए एक सम्मेलन में, एक के बाद एक वक्ता ने यह कहा कि कृषि कामगार वैसे नहीं होने चाहिए जैसे कि वे अब हैं। उन्हें भूमिहीन नहीं होना चाहिए। उन्हें उत्पादक होना चाहिए, मालिक होना चाहिए। कुडुम्बाश्री महिलाओं ने इस संबंध में अपना रास्ता प्रशस्त कर लिया है। उनके धीरे-धीरे उत्पादक बनने की वजह से ’भूमिहीन मजदूरों’ की श्रेणी समाप्त होती जा रही है।

यह भी एक तथ्य है कि आम तौर पर महिला किसानों की आत्महत्याओं की गणना कम की जाती है, क्योंकि महिलाओं को अक्सर किसान ही नहीं माना जाता। उन्हें केवल किसानों की पत्नियां कहा जाता है। यह एक तरह से खेतों पर उनके मालिकाना अधिकार न होने की वजह से है। जो किसान नहीं हैं उनमें भी, ग्रामीण भारत की युवा महिलाओं की अधिकतर मृत्यु आत्महत्या की वजह से होती है। यहां पर विडंबना केवल यही नहीं है कि पूरी दुनिया की इन महिलाओं की पीड़ा साल दर साल बढ़ती जा रही है। बल्कि असल विडंबना यह है कि उनके अंदर हमारे समय की बड़ी से बड़ी समस्याओं के समाधान में मदद करने का माद्दा और सोच है। इनमें शामिल हैं: खाद्य सुरक्षा, पर्यावरणीय न्याय, सामाजिक और साझा अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना, आदि।

संसाधनों के अधिकार की एक मजबूत प्रणाली, विशेषकर भूमि-अधिकार। जैसा कि संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) का अनुमान है, विकासशील क्षेत्रों की महिलाओं को जमीन पर मालिकाना या उसे चलाने का अधिकार कम है या फिर किराए की जमीन तक पर उनकी पहुंच कम है। अगर उनके पास कोई जमीन है भी, तो उन खेतों की गुणवत्ता खराब होती है या फिर आकार में वह खेत छोटा होता है। पशुओं और अन्य संपत्तियों तक महिलाओं की पहुंच का पैटर्न वैश्विक स्तर पर भी देखा जा सकता है।

दूसरी चीज है संरचनात्मक ढांचों का निर्माण जो महिलाओं को अपने सबसे बड़े स्रोत के दोहन का अवसर दे। वह हैः उनकी भागीदारी वृत्ति, उनकी एकता।

इसके लिए कुछ बड़ी सोच की जरूरत है। व्यक्ति पर आधारित माइक्रो-क्रेडिट मॉडल्स ने लंबे समय तक दुनिया पर राज किया है। उसने महिलाओं का जीवन कैसे नष्ट किया है, इसके पर्याप्त सबूत दुनिया के विभिन्न भागों से मिल रहे हैं। भारत में, सबसे बड़ा उदाहरण आंध्र प्रदेश से आया। माइक्रो-क्रेडिट के कारण होने वाली आत्महत्याओं ने कुछ माइक्रो-लेंडिंग-आपरेशनों की ऑर्डिनेंस आर्डरिंग को बंद करवा दिया। (अध्ययनों की बढ़ती संख्या सब-सहारन अफ्रीका तथा लातीनी अमेरिका में माइक्रो-क्रेडिट समस्याओं की ओर इशारा करती हैं, और आम तौर पर वॉल स्ट्रीट का पाई का एक टुकड़ा मांगना)। स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) लोकप्रिय विकल्प के रूप में उभरते हैं और वे माइक्रो-क्रेडिट का एक महत्वपूर्ण विकल्प ज़रूर प्रस्तुत करते हैं। हालांकि, एसएचजी भी अक्सर ऐसे ’एकमात्र’ संगठन साबित हुए हैं जो उचित रूप से इन सभी क्षेत्रों को जोड़ नहीं पाते जहां लिंगभेद किया जा रहा है। उदाहरण के रूप में घर में, समुदाय में, कार्यस्थल पर और राजनीतिक क्षेत्र में।

केरल की संस्था कुडुम्बाश्री 40 लाख महिलाओं का नेटवर्क है, जिनमें से अधिकांश का संबंध गरीबी रेखा से नीचे है। केरल सरकार द्वारा 1998 में शुरू की गई इस पहल का उद्देश्य पिछड़ी महिलाओं की समग्र क्षमता को प्रोत्साहित करना और सुविधाजनक बनाना था, ताकि उनकी गरीबी के बुनियादी कारणों को दूर किया जा सके। यह केरल के प्रसिद्ध ’पीपुल्स प्लान’ प्रोसेस के दौरान शुरू किया गया, इसका उद्देश्य राज्य और उसके नागरिकों के बीच की बाधाओं को दूर करना था। इसने निचले स्तर पर मौजूद सामुदायिक प्रयासों से तैयार की गई परियोजनाओं को खोजना आरंभ किया। तदनुसार, कुडुम्बाश्री के पास शुरू से ही एक समुदाय और नौकरशाही वाला ढांचा मौजूद था जो आपस में मिल कर काम करता है। इसके शासी निकाय की अध्यक्षता लोकल सेल्फ गवर्नमेंट के राज्य मंत्री ने की। हर जिले में कुडुम्बाश्री का एक कार्यालय होता है जिसमें एक क्षेत्राधिकारी तैनात किया जाता है। इस सरकारी संरचना का मुख्य कार्य पूरे राज्य में फैले इस सामुदायिक नेटवर्क की गतिविधियों की सहायता करना है, जिसमें अब महिलाओं की संख्या बढ़ कर 40 लाख हो चुकी है। वे विभिन्न प्रकार के कार्यों में व्यस्त हैं, जिनसे उनकी आमदनी होती है। लेकिन वे ऐसी नागरिक भी बन चुकी हैं जो सामाजिक अन्याय के कई रूपों को चुनौती भी दे रही हैं।

कुडुम्बाश्री का संगठनात्मक ढांचा ही उसे आदर्श बनाता है। यह तीन स्तरीय एकता की सामुदायिक संरचना पर आधारित है। इनमें से पहला ’नेबरहुड ग्रूप’ (एनएचजी) है, जिनमें से प्रत्येक में 10-20 महिलाएं होती हैं। एनएचजी को आपस में मिला कर एरिया डेवलपमेंट सोसायटीज (एडीएस) बनती हैं। फिर उनसे मिल कर पंचायत स्तर पर कम्युनिटी डेवलपमेंट सोसायटीज (सीडीएस) का गठन होता है।

संघ कृषि या सामूहिक खेती ऐसा ही एक साधन है। इस प्रकार के समूहों में अब 200,000 महिलाएं संगठित हो चुकी हैं, जो लगभग सौ हजार एकड़ जमीन पर खेती कर रही हैं। इसकी शुरुआत 2007 में स्थानीय खाद्य उत्पादन बढ़ाने के साधन के रूप में की गई। केरल की महिलाओं ने इस विचार को प्रसन्नतापूर्वक अपना लिया। अब पूरे राज्य में ऐसे 47,000 समूह हैं जिनसे महिला किसान जुड़ चुकी हैं। महिला किसानों के ये समूह बंजर भूमि पट्टे पर लेते हैं, उसे जोत कर तैयार करते हैं, और फिर उसमें खेती करते हैं। उसके बाद ये महिलाएं या तो कृषि-उत्पाद को बेचती हैं या फिर अपने घरों में इस्तेमाल करती हैं, यह सदस्यों की जरूरतों पर निर्भर करता है।

ऐडमालाकुडी में, जहां सौर ऊर्जा के माध्यम से अपने गांव में जो आदिवासी महिलाएं बिजली लेकर आई थीं, वहां पर कुडुम्बाश्री नेटवर्क के तहत 40 कम्युनिटी डेवलपमेंट सोसायटीज (सीडीएस) समूह हैं। इनमें से 34 खेती के काम में लगे हुए हैं। उनमें से प्रत्येक महिला मुथावन आदिवासी है। उनमें से प्रत्येक स्वयं को उत्पादक के रूप में देखती हैं और चाहती हैं कि दूसरे भी उन्हें ऐसा ही समझें। ”हम किसी के गुलाम नहीं हैं, हम उत्पादक हैं।”

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