ऑरकेस्ट्रा का इतिहास

भारतीय संगीत का और खास कर ऑरकेस्ट्रा का आगमन सन १९६० में हुआ। जब नये कलाकारों ने उन राहों को चुना जिन पर मंजे हुए गायक नहीं चले। एक नयी आजाद संगीत शैली का आगमन हुआ। नये फनकारों ने अपने गायन और आधुनिक संगीत वाद्यों का उपयोग करके लोगों तक पहुंचने का एक नया रास्ता ढूंढ लिया। वह फिल्म संगीत का दौर था।

भा रतीय ऑरकेस्ट्रा का इतिहास सन १२००ई . पूर्व मुगल राज्य से जुडा हुआ है। मुस्लिम राजाओं ने अपने साथ प्रगतिशील मौसिकों और वाद्यों का प्रयोग भारत में किया जिससे नये वाद्यों का और पुराने वाद्यों का मेल होने लगा। सुलतान अपनी महफिल मेंं अक्सर संगीत के अलग -अलग कार्यक्रम रखा करते थे, जिससे अच्छे कलाकारों को बढ़ावा मिलता था। इन कलाकरों को वे अपने दरबार में हमेंशा समाहित करते थे। नये -नये वाद्यों की मधुर धुन सुलतानों के मन को जीत लेती था। अमीर खुसरो जो सुलतान जलाउद्दीन के महफिलों में गाया करते थे ने अपनी गजलों में संगीत वाद्यों का समावेश जरुर किया था। जैसे अबारुद, खबाब, तनबूर नेम, शहनाई, ढफ, टुहुल आदि। उनके एक लेख इजाज -ए -खुशकी में संगीत कलाकार और अन्य संगीत वाद्यों का जिक्र है जो उनके समय में प्रयोग किये जाते थे।

राजा अकबर संगीत प्रेमी थे और अबुल फसल ने भी अपनी किताब में जाने माने संगीत कलाकरों का उल्लेख किया है जो अकबर के दरबार में थे। तानसेन (गायक ) वीर मंडल खॉं (सुरमंडल ) और वीणा वादक शिदाबा खॉं और अन्य गुणी कलाकार निरनिराले संगीत वाद्य बजाया करते थे। यहां पर गौर करना जरुरी है कि परसिया से जो कलाकार आये थे वे उन वाद्यों को बजाते थे जो भारत में उपलब्ध नही थे और परसिया और मध्य एसियाई प्रांतों में मशहूर थे। १७ वीं सदी में औरंगजेब के राज के दौरान संगीत और मौसिकी को एक जबरदस्त झटका लगा। औरंगजेब संगीत से नफरत करते थे और उन्होंने सभी संगीत वाद्यों को दफनाने का आदेेश दिया था। इस बात से हम इनकार नही कर सकते कि संगीत में परिवर्तन आना निश्चित था। संगीत की शैली और उसकी प्रस्तुती में परिवर्तन हुआ पर संगीत का भारतीय मूल कायम रहा।

अंग्रेजी राज की शुरूआत में संगीत सिर्फ राजाओं के दरबार में गाया बजाया जाता था। क्योकि अंग्रेज उसे परिपूर्ण नहीं मानते थे। पाश् चात्य रहन -सहन ने भारतवर्ष में परिवर्तन ले आया। शिक्षित मध्यम वर्गीय लोगों ने संगीत का जतन करने में योगदान देना शुरू किया। बैंडम्युजिक के आगमन ने पहली बार भारत के लोगों को पाश् चात्य वाद्यों से परिचित कराया। अंग्रेजों ने अपनी सेना में बैंड पथकों का समावेश किया।

भारतीय और पाश् चात्य संगीत की मित्रता से नये और आधुनिक संगीत का निर्माण होने लगा। मंच पर प्रस्तुत होनेवाले संगीत कार्यक्रमों की मॉंग बढने से पाश् चात्य वाद्य जैसे वायलिन, क्लॉरेनेट, हारमोनियम, मॅन्डोलिन आदि की पहचान होने लगी। इनका ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल होने लगा। १९ सदी के आसपास कलाकार अपने छोटे -छोटे गुट बनाने लगे और विभिन्न राज्यों में बसने लगे। उत्तर भारतीय प्रांतों में मुगल राज के संगीत प्रेमी सुलतान न रहे पर इन कलाकारों ने अपने आप को हालात के अनुरूप बदल लिया। अपने नये कदरदानों से जो बढावा और मदद मिली उससे अपना रियाज कायम रखा। वे अपने शिष्यों को तालीम देने लगे।

भारतीय संगीत का और खास कर ऑरकेस्ट्रा का आगमन सन १९६० में हुआ। जब नये कलाकारों ने उन राहों को चुना जिन पर मंजे हुए गायक नहीं चले। एक नयी आजाद संगीत शैली का आगमन हुआ। नये फनकारों ने अपने गायन और आधुनिक संगीत वाद्यों का उपयोग करके लोगों तक पहुंचने का एक नया रास्ता ढूंढ लिया। वह फिल्म संगीत का दौर था। ये नये कलाकर अपना, अस्तित्व और पहचान बनाने में जुटे रहे। शुरूवात में संगीत कच्चा था और कलाकार देसी बनावट के साज, एम्प्लीफायर और स्पीकर इस्तेमाल करने लगे। ये सुनने में इतना मधुर नही था पर उत्साह जरुर पैदा करता था। इसी से शुरूवात हुआ भारतीय ऑरकेस्ट्रा जो आज नयी ऊंचाइयों को छू रहा है। ९०के दशक मेंं इसमें प्रगति तो रही थी परंतु कलाकारों को अपनी कला पेश करने के लिए जगह स्वयं आरक्षित करनी पडती थी। प्रचार का कोई माध्यम नहीं था। पहले ऑरकेस्ट्रा सिर्फ कॉलेजो में और उनके कार्यक्रमों में ही होते थे। उन्हे किसी तरह क मदद नहीं होती थी। अपना अलबम बनाने के लिए कोई म्यूजिक कंपनी भी उन्हें सहयोग नही दिया करते थे। फिर भी उनका प्रयास जारी रहा और अपनी कला को लोगों तक पहुंचाने में वो काफी हद तक कामयाब रहे। धीरे -धीरे ऑर्केस्ट्रा लोगों की पहली पसंद बन गया। लोग शादी -ब्याह या अन्य पारिवारिक कार्यों में भी ऑर्केस्ट्रा के ग्रुप को बुलाते थे। कई सामाजिक संस्थाओं के वार्षिक कार्यक्रमों में भी ऑर्केस्ट्रा की मांग होती थी। होली दीपावली मिलन कार्यक्रमों में ऑर्केस्ट्रा का कार्यक्रम आयोजित करना और अपने पसंद के गीतों की फरमाइश कर उन्हें सुनना लोगों की पहली पसंद हुआ करती थी। ऑर्केस्ट्रा में गानेवाले गायक गायिकाओं की आवाज जिस ओरिजनल गायक के जैसी होती थी मुख्यत : वही गीत सुनना लोग पसंद करते थे। ऑर्केस्ट्रा में मुख्यत : फिल्मी गानों को ही प्राथमिकता दी जाती थी जो कि प्रसंगों के आधार पर बदलते रहते थे।

आज डीजे के कारण ऑर्केस्ट्रा की मांग भले ही कम हो गयी हो परंतु जिन लोगों ने उसे सुना है उनके जेहन से वह कभी नहीं निकल सकता।

ऑर्केस्ट्रा के दीवाने – नरेश खराडे

महाराष्ट्र में ऑर्केस्ट्रा की पम्परा बहुत पुरानी है। यहॉं के उभरते हुए कलाकारों को अपने कार्यक्रमों के माध्यम से प्लेटफार्म देनेवाले, मेहनती और भारतीय संस्कृति पर प्रेम करनेवाले व्यक्ति हैं नरेश खराडे। नरेश बचपन से ही संघ के स्वयंसेवक हैं। संघ की शाखा में उन्होंने जो संस्कारक्षम गीत सीखे उन्हीं के कारण उनमें संगीत के प्रति रूचि निर्माण हुई। संघ के अनेक दायित्वों का वहन करते -करते उनमें एक उत्तम संयोजक के गुण अपने आप आ गए। ऑर्केस्ट्रा के दीवाने नरेश लम्बी दूरी की पैदल यात्रा करके भी ऑर्केस्ट्रा देखने जाते थे। कुछ समय बाद उन्होंने स्वयं सूत्रसंचालन करना प्रारम्भ किया। सूत्रसंचालक के रूप में कई कार्यक्रमों में कार्य करने के बाद सन १९९५ -९६ में वे संयोजक की भूमिका में आ गए और ‘उत्सव ‘ नामक कार्यक्रम की शुऱुआत हुई।

’उत्सव ’ में महराष्ट्र की परम्परा, लोकसंगीत, भक्तिसंगीत, त्यौहार, परम्परा, संस्कृति का दर्शन करनेवाले गीत -संगीत न केवल दिखाई देते हैं बल्कि सुनाई भी देते हैं। ’उत्सव ’ के बाद नरेश ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। जैसे -जैसे वे इस क्षेत्र में आगे बढ़ते गए उनकी नए -नए लोगों से पहचान बढ़ती गयी। मराठी के वरिष्ठ संगीतकार जगदीश खेबुडकर से उनका सम्पर्क हुआ और उनके साथ एक अलग प्रयोग करने का विचार नरेश के मन में आया। कार्यक्रम की कल्पना यह थी की जगदीश खेबुडकर स्वयं अपने गीतों से जुडी यादें लोगों के सामने बताएं। हालांकि यह ऑर्केस्ट्रा की परम्पिक पद्धति से बहुत अलग था परन्तु नरेश ने उसे स्टेज पर लाने का निर्णय लिया। नरेश के मन में सतत यह शंका होती थी की क्या यह प्रयोग सफल होगा ? क्या लोग इस तरह के कार्यक्रमों को स्वीकार करेंगे ? क्या यह ’उत्सव ’ से बेहतर होगा ? पर इन सारी शंकाओं को अलग करते हुए उन्होंने नवनिर्माण का आव्हान स्वीकारा। कल्पना, परिश्रम और रसिक श्रोताओं को कुछ अच्छा देने के इच्छा के कारण ही ’जगदीश खेबुडकर चित्रगंगा ’ का अवतार हुआ।

कार्यक्रम की गति, कलाकारों की सुन्दर प्रस्तुति, सटीक समय पर जगदीश खेबुडकर के अनुभव और तुरंत गीत की प्रस्तुति ये कुछ ऐसी श्रृंखला होती थी जिससे दर्शकों का मन कार्यक्रम में बंध जाता था। दर्शक भाव विभोर होकर कार्यक्रम देखते रहते थे। नरेश के अंदर का आत्मविश्वास और संयोजन करने की उत्तम कला के कारण ही एक दर्जेदार कार्यक्रम लोगों तक पहुंचता था। कुछ ही समय में यह कार्यक्रम पूरे महाराष्ट्र में प्रसिद्ध हो गया।

व्यावसायिक दृष्टी से किसी कार्यक्रम का सफल होना भी अत्यंत आवश्यक होता है। अतः महाराष्ट्र की नमी कंपनियों, प्रायोजित कार्यक्रमों, सामाजिक संस्थाओं के वार्षिक उत्सवों इत्यादि में नरेश ने ’चित्रगंगा ’ प्रस्तुत की। खास बात यह थी ये सब करते हुए भी उन्होंने कार्यक्रम का दर्जा टिकाये रखा।

कोई भी कार्य लगन और उस कार्य के प्रति दीवानगी के बिना संभव नहीं होता। नरेश के मन में ऑर्केस्ट्रा के प्रति कुछ ऐसी ही दीवानगी थी। अपनी सरकारी नौकरी को करते हुए इस दीवानगी को सम्भालना बहुत बड़ी बात थी। शुरुआत में वे आर्थिक दृष्टी से सम्पन्न नहीं थे। कई बार उन्होंने अपनी बचत भी इन कार्यक्रमों में लगा दिया। कई बार प्रयोग सफल न होने के कारण उन्हें नुक्सान भी उठान पड़ा। परन्तु वे निराश नहीं हुए। नरेश का हमेशा से यह प्रयत्न रहा की कार्यक्रमों में प्रसिद्ध हस्तियों को बुलाया जाये। लता मंगेशकर, आशा भोंसले, संगीतकार सुधीर फड़के, गोपीनाथ मुंडे जैसी कई हस्तियों ने कार्यक्रमों में आकर नरेश की संकल्पना के लिए उन्हें बधाई दी।

एक ओर जहां वे मान्यवरों को कार्यक्रमों में लाने के लिए प्रयत्न करते थे वहीं दूसरी ओर नयी प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने का काम भी करते थे। उनके स्टेज पर गानेवाले या अभिनय करनेवाले कई कलाकार आज फिल्मों और टीवी के अन्य कार्यक्रमों में काम कर रहे हैं।

हिंदी -मराठी फ़िल्मी संगीत के आलावा उन्होंने देशभक्ति से परिपूर्ण कार्यक्रमों का भी आयोजन किया। उनका देशभक्ति पर आधारित राष्ट्रवंदना कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय रहा। संघ स्वयंसेवक होने के बावजूद भी विभिन्न राजनैतिक पर्टियों ने नरेश को १५ अगस्त या २६ जनवरी को यह कार्यक्रम करने के लिये आमंत्रित किया। आज लगभग १० वर्षों के बाद भी उनके द्वारा विभिन्न कार्यक्रम किये जा रहे हैं और लाइव शो और बड़े इवेंट्स के बावजूद भी लोग इन्हे देखने जते हैं।

Leave a Reply