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योग विश्‍व स्वास्थ्य की नई इबारत

योग विश्‍व स्वास्थ्य की नई इबारत

by वीरेन्द्र याज्ञिक
in जून २०१५, सामाजिक
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पिछले दिनों समाचार पत्रों में प्रकाशित समाचारों में समाज में  हर स्तर पर बढ़ रही हिंसक गतिविधियों ने सभी लोगों का ध्यान आकर्षित किया है। समाज में आत्महत्याओं की संख्या भी लगातार बढ़ रही है। यह इस बात का स्पष्ट संकेत है कि समाज मानसिक दृष्टि से स्वस्थ नहीं है। असंतोष, अवसाद और मानसिक अस्थिरता के कारण मानव मन अधिक हिंसक हो रहा है। गत दिनों एक समाचार, जिसने सभी को हतप्रभ किया, वह यह था कि मुंबई में एक उप-पुलिस निरीक्षक (सब इंस्पेक्टर) ने अपने वरिष्ठ अधिकारी की गोली मारकर हत्या कर दी और बाद में खुद को भी गोली मार ली। आई. आई. टी. के एक विद्यार्थी ने परीक्षा में अच्छे अंक न आने की आशंका से आत्महत्या कर ली। विद्यार्थियों, उद्यमियों तथा लगभग सभी व्यवसायियों में अवसाद तथा तनाव की शिकायत अब बिलकुल सामान्य बात हो गई है। तनाव संबंधों का कारण हो रहा है। प्रेम प्रसंगों में हत्याओं और आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या ने सभी संवेदनशील व्यक्तियों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि अखिरकार समाज में संवेदना और सहिष्णुता के स्तर पर इस प्रकार का खालीपन और रिक्तता क्यों बढ़ती जा रही है? मनोचिकित्सकों तथा मनोविज्ञानियों का मत है कि भावना और संवेदना के स्तर पर लोगों का कोई शिक्षण और प्रबोधन न होना तथा केवल आर्थिक संपन्नता और भौतिक समृद्धि प्राप्त करने की अंधी दौड़ इसका मूल कारण है। सुप्रसिद्ध हृदय रोग विशेषज्ञ तथा विश्व प्रसिद्ध विचारक तथा मनोविज्ञानी डॉ. दीपक चोपड़ा के पिता डॉ. कृष्ण कुमार चोपड़ा ने अपनी पुस्तक ‘आप का जीवन आपके हाथों में र्(ूेी श्रळषश ळप र्ूेीी हरपव) की प्रस्तावना में लिखा है, ‘‘दबाव तथा तनाव तो मानव के साथ तभी से चले आ रहे हैं जब वह बीस लाख वर्ष पूर्व गुफाओं में रहता था। युगों-युगों से मानव उसे झेलते हुए इसलिए जीवित रहा क्योंकि मानव में बुद्धि है। उसमें भले बुरे में अंतर करने का विवेक तथा आधारभूत मानव मूल्य और आध्यात्मिक शक्ति का संचय है।’’

तथापि, दुर्भाग्य की बात है कि हमारी समस्त आधुनिक प्रगति के बाद भी आज के युग में मानसिक तनाव और दबाव अधिक बढ़ गए हैं। संपूर्ण मानव जीवन भय, अविश्वास, विरोध, वैषम्य और संघर्षों से भरा पड़ा है। हम केवल आत्मप्रशंसा, स्वार्थपरता तथा धन-संग्रह की वृत्ति, घृणा और द्वेष भाव से अपना जीवन यापन कर रहे हैं और मानवीय मूल्यों का  सम्मान हमारे मन में नहीं रह गया है। हम भौतिक संपदा और क्षणभंगुर सुख के लिए किसी भी स्तर तक नीचे गिर सकते हैं। हमारे लिए आत्मिक विकास और बुनियादी मानवीय नेक काम करना बेगाना हो गया है। ऐसी स्थिति से उबरने के लिए भारतीय जीवन मूल्यों में वर्णित ध्यान, साधना, प्राणायम आसन, धर्म का ज्ञान और आत्म उत्थान संबंधी शिक्षण एकमात्र साधन है। डॉ. कृष्ण चोपडा का उपर्युक्त निष्कर्ष बीसवीं शती के नब्बे के दशक का है। लेकिन तब से लेकर अब तक महासागरों में काफी पानी बह चुका है। नब्बे के दशक के बाद से लेकर आज इक्कसवीं शताब्दी के दूसरे दशक का मानव जीवन कहीं अधिक जटिल तथा जानलेवा बन गया है और यही कारण है कि हत्या, आतंक, आत्महत्या, अत्याचार, महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, मानवीय संबंधों में र्हास की घटनाएं तेजी के साथ बढ़ रही हैं। समाज का तानाबाना और कलेवर टूट रहा है। व्यक्ति एकाकी होता जा रहा है। परिवार टूट रहे हैं और कार्यालय हिंसा के स्थल बनते जा रहे हैं। मनोविज्ञानियों और मनोचिकित्सकों का मत है कि यदि इन गंभीर परिस्थितियों से व्यक्ति और समाज को बचाने का प्रयत्न नहीं किया गया तो इसके बहुत ही भयंकर परिणाम हो सकते हैं। इस परिस्थिति पर डॉ. चोपड़ा का विचार है कि ‘मानव मूल्यों में गिरावट आना ही संसार में तनाव, भ्रष्टाचार, संघर्ष और अशांति के कारण बन गए हैं। सत्ता और धन की प्राप्ति जीवन के महान लक्ष्य बन गए हैं और उन्हें प्राप्त करने के साधन कैसे हैं, इसकी कोई परवाह नहीं है। इनके समाधान के लिए डॉ. चोपडा कहते हैं कि हमें आधारभूत मानव मूल्यों का सम्मान करना सीखना होगा। तभी हम अपने दिलों में तथा जिस विश्व में हम रहते हैं, उसमें शांति स्थापित कर सकते हैं और इसके लिए योग, ध्यान, यम-नियम अनुशासन, प्राणायाम हमारी बहुत सहायता कर सकते हैं। योग, साधना, आसन, प्राणायाम, महत्व बढ़ गया है। योग, आसन, प्राणायाम को आज से पचास वर्ष पूर्व पश्चिमी तथा एलोपेथी के चिकित्सक कोई महत्व नहीं देते थे और उसे केवल आडंबर मानते थे, किन्तु आज योग अमेरिका में आठ बिलियन डॉलर का उद्योग बन चुका है। चीन, पाकिस्तान तथा अन्य मुस्लिम देश भी योग के महत्व को स्वीकार करते हुए, उसे किसी न किसी रूप में स्वीकार कर रहे हैं। आज के आधुनिक चिकित्सक, विशेषकर मनोचिकित्सक अब ध्यान, प्राणायाम तथा आसन को अवसाद और मानसिक तनाव का सब से उत्तम उपचार मान रहे हैं।

योग भारत की वैश्विक चिंतन और दृष्टि की सर्वोत्तम फलश्रुति है, जिसका उद्देश्य है मानव शरीर, बुद्धि, मन तथा आत्मा का संतुलन ताकि अन्तर्निहित आनंद का अनुभव करके मानव अपने जीवन को सार्थक कर सके। यही कारण है कि आज के भौतिक युग में योग, ध्यान, प्राणायम को अंंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा और सम्मान प्राप्त हो रहा है। गत वर्ष प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जब भारत की इस अलौकिक और अनुपम ज्ञान-संपदा से अंतरराष्ट्रीय जगत को अवगत कराया, तो सभी देशों ने इसका हार्दिक स्वागत किया था। प्रधान मंत्री श्री मोदी ने अपने उक्त वक्तव्य में संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील की थी कि योग, जो भारत की संपूर्ण मानवता को अमूल्य देन है, उसको वैश्विक मान्यता प्रदान की जाए जिससे आज की विकट परिस्थिति में शांति, सहिष्णुता, सद्भाव तथा परस्पर सहयोग के उदात्त मूल्यों का निर्वहन हो सके।

संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण महासभा को २७ सितम्बर २०१४ को संबोधित करते हुए श्री मोदी ने ‘योग’ को वैश्वीकरण की प्रक्रिया का प्रभावी उपकरण बताया और प्रस्ताव किया कि संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से योग को अंतरराष्ट्रीय मान्यता प्रदान की जाए और २१ जून जब सूर्य दक्षिणायन की ओर उन्मुख हो, उस दिन को ‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ के रूप में समूचे विश्व में मनाया जाए। भारत के प्रधान मंत्री के इस प्रस्ताव को विश्व संस्था ने बड़े आदर के साथ स्वीकार किया। विश्व के १७७ देशों ने ‘योग’ को अंतरराष्ट्रीय मान्यता देते हुए प्रति वर्ष २१ जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मनाने की स्वीकृति दे दी, जिसमें अमेरिका, कनाडा, तथा चीन जैसे प्रमुख देश भी थे। महत्वपूर्ण बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के १९३ सदस्य देशों में से १७७ देशों का किसी प्रस्ताव का समर्थन अब तक के इतिहास का एक कीर्तिमान है। एक सर्वे के अनुसार अमेरिका में इस समय लगभग ४० लाख लोग योगासन से स्वास्थ्य लाभ ले रहे हैं। अमेरिका में योग के प्रति बढ़ती लोकप्रियता और उससे होने वाले लाभ से प्रभावित होकर राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने संदेश में कहा है कि ‘संयुक्त राज्य अमेरिका में योग विभिन्न उपासना पद्धतियों, पंथ तथा संस्कृतियों की सीमाओं से परे आध्यात्मिक विकास की सार्वभौमिक भाषा के रूप में विकसित हुआ है। यही कारण है कि आज विश्व में लाखों लोग अपने आत्मिक विकास तथा स्वास्थ्य को सुधारने के लिए योग का अनुकरण कर रहे हैं। इसीलिए अमेरिका में राष्ट्रपति द्वारा स्थापित ‘राष्ट्रपति सक्रिय जीवन पद्धति अभियान’ में भाग लेने के लिए सभी को प्रोत्साहित किया जा रहा है, आप भी इस अभियान में भाग लेकर ‘योग’ को अपना समर्थन दें तथा वर्तमान चुनौतियों का सफलता से मुकाबला करें।

इसी प्रकार से अमेरिका के खेल औषधि विज्ञान कॉलेज में खिलाड़ियों को अधिक सामर्थ्यवान और सक्षम बनाने के लिए योगासन, ध्यान तथा प्राणायाम का उपयोग किया जा रहा है।

इसी के साथ-साथ, इस वर्ष की एक महत्वपूर्ण घटना यह होगी कि भारत प्रणीत संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा घोषित अंतरराष्ट्रीय योग दिवस का पहला आयोजन चीन के चेंगदू के द्वजायगायन में आयोजित होगा। भारत द्वारा इस दिवस के अवसर पर १७ जून से २१ जून तक सबसे बड़े योग सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है, जिसमें विश्व भर से १०,००० से अधिक योग प्रतिनिधि भाग लेंगे। इस योग सम्मेलन का चीन से पूरे विश्व में सीधा प्रसारण किया जाएगा। इस योग सम्मेलन का आयोजन भारत सरकार आयुर्वेद, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध तथा होमियोपेथी विभाग के सहयोग से चाइना दक्षिण-पश्चिमी प्रांविशियल सरकार द्वारा किया जा रहा है। जिसमें भारत के विभिन्न योग संस्थानों के योग गुरु यथा अष्टांग योग संस्थान, मैसूर के पट्टाभिजायस; कृष्णमाचारी योग मंदिरम् चेन्नई, कैवल्यधाम, लोनावाला, महाराष्ट्र; इंडिया योग, मैसूर, स्वानंद योग, केरल तथा ईशा हठ योग, कोयम्बतूर के प्रतिनिधि भाग लेंगे। इसमें विश्व के अनेक देशों के प्रतिनिधि भाग लेकर योग के माध्यम से विश्व में स्वास्थ्य, मानसिक शांति तथा सद्भाव स्थापित करने के लिए विचार- विमर्श करेंगे।

यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि पिछले वर्षों में चीन में योग के प्रति अत्यधिक रुचि बढ़ी है। भारत के प्रख्यात योगाचार्य श्री बी. एस. आयंगर की योग विषयक पुस्तकों के चीनी भाषा में अनूदित संस्करणों की बहुत बड़ी मांग है। इस समय चीन के प्रत्येक शहर में योग संस्थान स्थापित हो गए हैं। जिनमें बड़ी संख्या में चीनी प्रवेश लेकर योग सीख रहे हैं। योग भारत की अमूल्य निधि है, जो प्रारंभ होता है यम, नियम से तथा जिसकी चरम परिणति समाधि में होती है। भारतीय योग के जनक महर्षि पतंजलि ने अष्टांग योग का जो विश्व को अवदान दिया है, वह यम, नियम, आसन,  प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा से होते हुए समाधि पर जाकर पूर्ण होता है, जहां चित्त पूरी तरह से शांत, निर्विकार होकर अपने स्वरुप में स्थित होता है। इस बात को अब पाश्चात्य विज्ञान तथा मेडिकल साइंस ने भी स्वीकार किया है कि मन की संकल्प शक्ति से कुछ भी प्राप्त किया जा सकता है। यही जीजीविषा है, जो हमें जीवन जीने की प्रेरणा देती है।

महाभारत के अंत में महर्षि वेदव्यास ने संपूर्ण मानवता को अपना एक अद्भुत निष्कर्ष दिया कि ‘न मानुषात श्रेष्ठतरं हि किंचित’ मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। यह मानवीय दृष्टि ही योग दृष्टि है, जिसके अनुसार मनुष्य सृष्टि की सर्वोत्तम रचना है, वह परमात्मा का अंश है। अत: परमात्मा से पुन: संयोग करने की प्रक्रिया ही योग है। उस स्थिति में मानव पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। यह कब हो सकता है? महर्षि पतंजलि कहते हैं कि जब हम अपनी संपूर्ण चित्तवृत्तियों को अपने वश में कर लेते हैं, उसका निरोध कर लेते हैं, तो वह योग होता है। ‘योगश्चिवृत्तिनिरोध:  योगदर्शन में चित्त और मन एक ही वस्तु है। इस चित्त या मन में विभिन्न प्रकार के भाव उठते रहते हैं या चित्र बनते रहते हैं। इन्हीं को चित्त की वृत्तियां कहते हैं। इन्हीं वृत्तियों को नियंत्रित करने की क्षमता मन, वचन, कर्म के माध्यम से विकसित करना ही योग है। इसी भाव को अन्य प्रकार से कृष्ण ने गीता के माध्यम से कहा है; पहला ‘समत्व योग उच्यते’ (२/४९) दूसरा ‘योग: कर्मस्तु कौशलम्’ (२/५०) तथा तीसरा ‘ते विद्याद दु:ख संयोग वियोग योगसज्ञितम्’ (६/२३) अर्थात दु:ख के संयोग के वियोग का नाम योग है। उपर्युक्त तीनों व्याख्याएं मानव मन को अभ्यास के द्वारा नियंत्रित और निर्देशित करने को कहती हैं, तथापि गीता का योग दर्शन हमें एक कदम और आगे ले जाता है। वह कहता है कि केवल चित्त की वृत्तियों का निरोध करने द्रष्टा अपने स्वरूप में स्थित हो जाएगा, किन्तु गीता में कृष्ण कहते हैं कि व्यवहार जगत में व्यक्ति अपने आप को समभाव में रखकर कर्म करते हुए अन्तहीन सुख की प्राप्ति करता है। कृष्ण कहते हैं-

 सुख भात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम्।

 वेति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्वत:॥

इन्द्रियों से परे, केवल शुद्ध बुद्धि से प्राप्त जो आनंद की अनुभूति होती है वह अनंत है, उसका कभी अंत नहीं होता। इसको जान लेने के बाद उस स्थिति से कभी स्खलन नहीं होता। यही सर्वोच्च स्थिति है, यही सर्वोत्तम स्थिति है और सात्विक सुख में कही अधिक आनंददायी है।

आज जब विश्व मानवीय संवेदना और सौजन्यता के संकट से गुजर रहा है। समस्त सुख साधन और समृद्धि के बावजूद भी समाज अस्वस्थ और अशांत है, ऐसे समय में ‘योग’ ही एकमात्र ऐसा आश्रय स्थल है, जहां मानव मन को परम शांति और आनंद की अनुभूति होती है।

वीरेन्द्र याज्ञिक

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