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मजदूरों की तो लुटिया ही डूब गई

मजदूरों की तो लुटिया ही डूब गई

by गंगाधर ढोबले
in राजनीति, विशेष, सामाजिक
3

आज का अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस ऐतिहासिक और अभूतपूर्व है। पहली बार कहीं कोई जश्न नहीं । सर्वदूर मातम का साया है। ऐसी स्थितियां विश्व युद्धों या 1930 की आर्थिक मंदी में भी नहीं आई थीं। स्थिति की भयावहता व्यक्त करने के लिए कोई शब्द नहीं है। मनुष्य संवादहीन हो गया है। दुनिया के कोई 400 करोड़ लोग घरों में कैद हैं। कोई मजदूर नेता या संगठन कहीं मजदूरों की खैरख्वाह पूछते नहीं दिख रहा है। भारत ही नहीं, पूरे विश्व में यह स्थिति बनी है। मजदूरों से चन्दे के रूप में हजारों-लाखों रु. पाने वाले ये मजदूर संगठन आखिर किस खोह में खो गए? इस महामारी से लाखों लोग सड़क पर आ जाएंगे, नौकरियां या रोजीरोटी छीन जाएगी, मजदूर परिवार बिखर जाएंगे, बच्चों और महिलाओं को कहीं पनाह नहीं मिलेगी, गांव तो उनके कब से छूट गए हैं- और शहरों में अब उनके लिए कोई काम नहीं होगा। ऐसे लोगों के प्रति मजदूर यूनियनों की कोई नैतिक जिम्मेदारी है या नहीं?
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की हालत भी विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी हो गई है। कोई आईएलओ की बात नहीं सुनता। सरकारें भी नहीं और देशों की यूनियनें भी नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की तरह आईएलओ भी बड़े देशों का जेबी संगठन बन गया है। क्योंकि, इसे भी बड़े देशों से ही चन्दा मिलता है। ये देश चन्दा देना बंद कर दें तो आईएलओ को हाथ में कटोरा लेना पड़ेगा। आईएलओ की भूमिका केवल सलाह देने वाले संगठन की बन गई है। कोई निर्णायक अस्त्र उसके हाथ में नहीं है।
ताजा आंकड़े बताते हैं कि कोरोना की महामारी से दुनिया भर में कोई 3 अरब लोग लोग बेरोजगार हो जाएंगे। भारत में भी लगभग 40 करोड़ मजदूरों पर संकट मंडरा रहा है। इनमें से 90 प्रतिशत असंगठित क्षेत्रों के मजदूर हैं। फूड सर्विसेस, उत्पादन, रिटेल, व्यापार व उससे सम्बंधित क्षेत्रों, निर्माण उद्योग- कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र पर जबरदस्त मार पड़ेगी और मजदूरों के पास देखते रहने के अलावा कोई चारा नहीं होगा। मजदूर और उद्योग अर्थव्यवस्था के इन दोनों बुनियादी घटकों का कचूमर निकलने वाला है। वैसे भी यूनियनों ने मजदूरों को दलदल में पहले से फंसा रखा है। मजदूरों की ‘सौदेबाजी की क्षमता’ टूट चुकी है। अकेले मुंबई में ही देखें, कहीं मजदूर आंदोलन आपको दिखाई देता है? यूनियनें हैं भी नहीं, या हैं तो मालिकों या राजनीतिक दलों की जेब में!
फिलहाल दुनिया में तीन तरह की अर्थव्यवस्थाएं चल रही हैं। एक- पूंजीवाद, दूसरी-साम्यवाद, और तीसरी मिश्र अर्थव्यवस्था। पश्चिमी देश पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के पक्षधर हैं और वहां चकाचौंध दिखाई देती है। रूस, चीन जैसे देश साम्यवादी अर्थव्यवस्था के उदाहरण थे, लेकिन अब उनका मिथक टूट गया है और वे भी ‘नियंत्रित पूंजीवाद’ की ओर बढ़ रहे हैं। चीन का शंघाई और जहां से कोरोना की शुरुआत हुई वह हुबेई प्रांत व वुहान महानगर भी पूंजीवाद के नमूने ही हैं। साम्यवादी देशों में कम्युनिस्टों का बाइबिल माने जाने वाला ‘दास कैपिटल’ अब कोई माने नहीं रखता। ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’ का नारा देने वाला मार्क्स भी अब नई पीढ़ी को आकर्षित नहीं कर रहा है। मार्क्स का दोष इतना ही है कि उसने मनुष्य को उत्पादन करने वाला चलता-फिरता यंत्र मान लिया, व्यक्ति की सहज प्रवृत्तियों को उसने नकार दिया। इसलिए लोग सरकार और पार्टी पर ही निर्भर रहने लगे और साम्यवाद का छलावा टूट गया। अपने यहां पश्चिम बंगाल में जो कुछ हुआ वह ताजा इतिहास है। कम्युनिस्टों के राज में न उद्योग बचे, न मजदूर और अब ममता के राज में तो कोई मजदूर नीति ही दिखाई नहीं देती। ममता दीदी मजदूरों की भावनात्मक लहर पर सवार होकर अपनी सत्ता चला रही है। केरल का भी यही हाल है। न वे साम्यवादी रचना को स्वीकार कर पा रहे हैं, न पूंजीवादी। उनके लोग खाड़ी देशों से पैसा नहीं भेजते तो शायद केरल की अर्थव्यवस्था टूट जाती। पूंजीवादी शोषण से बचने के लिए साम्यवाद आ गया, लेकिन वह भी मजदूरों का शोषण करने लगा।
अर्थव्यवस्था का तीसरा रूप मिश्र है। इसका अर्थ यह कि साम्यवाद जैसे सब कुछ सरकार के अधीन नहीं है। कुछ महत्वपूर्ण उद्योग सरकार के पास हैं, जबकि शेष जनता के लिए खुले हैं। भारत इसका उदाहरण है। हमने साम्यवाद से कुछ लिया और कुछ पूंजीवाद से लिया। दोनों स्थितियों में मनुष्य खो गया है। वह अर्थचक्र का केंद्र बन गया और इसलिए शोषण का शिकार हो गया। मनुष्य की एकात्मता लुप्त हो गई और सामाजिक जिम्मेदारी का कोई वाहक नहीं बना।
भारत में मजदूर आंदोलन की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के अंत में हुई। 1870 में बंगाल के शशिपद बैनर्जी ने वर्कर्स क्लब के नाम से पहला श्रमिक संगठन बनाया। लेकिन मुंबई के एम.एन.लोखंडे को मजदूरों का प्रथम नेता माना जाता है। 1890 में उन्होंने मुंबई में मिल हैण्ड्स एसोसिएशन की स्थापना की। इसके बाद कामगार हितवादी सभा (1909), सोशल सर्विस लीग (1911), अमलगेटेड सोसायटी ऑफ रेलवे सर्वन्ट्स ऑफ इंडिया (1897), प्रिंटर्स यूनियन ऑफ कोलकाता (1905), चेन्नई लेबर यूनियन (1918), ब्रिटिश लेबर पार्टी के सहयोग से बनी ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (आयटक), जिस पर एन.एम.जोशी का दबदबा था। लाला लाजपत राय अध्यक्ष और दीवान चमन लाल सचिव थे। इसके पहले अधिवेशन में सी.आर.दास, वी.वी.गिरि, जवाहरलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, सरोजिनी नायडू, आदि कांग्रेस नेता उपस्थित थे। महात्मा गांधी ने मजदूर महाजन के नाम से अहमदाबाद में कपड़ा मजदूरों के लिए 1918-20 के दौरान मजदूर संगठन बनाया। 1928 में कम्युनिस्टों ने गिरणी कामगार संघ के नाम से मुंबई में कपड़ा मजदूरों की यूनियन स्थापित की। 1929 के अधिवेशन में आयटक टूट गई और कांग्रेस ने इंटक के नाम से अपना अलग मजदूर संगठन बनाया। उस अधिवेशन की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की थी। उस समय आयटक कम्युनिस्टों के हाथ चली गई, क्योंकि कांग्रेस उससे अलग हो चुकी थी। आयटक भी बाद में और टूटी और मार्क्सवादियों ने सीटू के नाम से अपना अलग मजदूर संगठन बना लिया। इसके बाद वैचारिक आधार पर भारतीय मजदूर संघ बना। यह किसी यूनियन को तोड़कर नहीं बना है। संघ परिवार से जुड़ा यह संगठन है। 23 जुलाई 1955 को भोपाल में मा. दत्तोपंत ठेंगडी ने इसकी स्थापना की। यह आज देश की सबसे बड़ी यूनियन है। इतनी बड़ी संख्या में किसी भी यूनियन के सदस्य नहीं है। यूनियनों के नारों पर गौर करें तो उनकी वैचारिक दिशा स्पष्ट हो जाती है। कम्युनिस्ट प्रभावित यूनियनों का नारा है, ‘दुनिया के मजदूरों एक हो’, जबकि भारतीय मजदूर संघ का नारा है ‘मजदूरों दुनिया को एक करो’। अन्य मजदूर संगठनों का नारा है, ‘चाहे जो मजबूरी हो, मांग हमारी पूरी करो’, जबकि भारतीय मजदूर संघ का नारा है, ‘देश के हित में करेंगे काम, काम के लेंगे पूरे दाम।’
वैश्वीकरण ने मजदूरों को कहीं का नहीं रखा। इससे मजदूरों में काम करने की जानलेवा स्पर्धा शुरु हो गई। अत्यधिक काम करने से श्रमिक की क्षमता चुक जाती है और कुछ दिनों बाद उसे बाहर कर दिया जाता है। उद्योगों में चले इंसेंटिव, ठेका प्रणाली, उत्पाद के अनुसार मजदूरी, ज्यादा काम ज्यादा पैसा जैसी लुभावनी योजनाओं में मजदूर फंस जाता है। शुरुआत में हाथ में पैसा ज्यादा दिखाई देता है, लेकिन उसकी उतना काम करने की क्षमता धीरे-धीरे कम होती जाती है और उसे ‘गोल्डन हैण्डशेक’ के नाम पर मोटी रकम देकर बाहर कर दिया जाता है। साल दो साल बाद मजदूर की लुटिया पूरी तरह डूब चुकी होती है। मुंबई के मिल मजदूरों की हड़ताल इसका उदाहरण है। दत्ता सामंत मांगे रखते समय कोई संतुलन नहीं रखते थे। उनकी तनख्वाह बढ़ाने की अनाप-शनाप मांगे हुआ करती थीं। नतीजा यह हुआ कि मुंबई की 53 मिलों में से एक भी कपड़ा मिल अब अस्तित्व में नहीं है। हजारों मजदूरों के विलाप की अनगिनत कहानियां हैं।
वैश्वीकरण और अब कोरोना से कर्मचारियों की जिंदगी ही बदल जाएगी। घर से काम करने की कार्य-संस्कृति विकसित होगी। इससे मालिक ही फायदे में रहेंगे, क्योंकि उन्हें कर्मचारी चौबीसों घंटे उपलब्ध होगा। यही क्यों, बिजली, पानी, कार्यालय का भाड़ा, जो मुंबई जैसे महानगर में 10 हजार रु. प्रति वर्ग फुट है, बचेगा। दफ्तर का टेलीफोन, स्टेशनरी, टेलीफोन ऑपरेटर का वेतन, फ्रंट डेस्क के कर्मचारियों का वेतन, सिपाही का वेतन, फाइलों के रखरखाव का खर्च, कैंटीन, स्वास्थ्य सेवाओं, पलना-घरों से मुक्ति मिलेगी। इसके विपरीत कर्मचारी के घर में होने से वहां मिलने वाला सुकून खत्म होगा, पारिवारिक कलह बढ़ेगा; क्योंकि दफ्तर से कभी भी कोई काम आएगा और वह कर्मचारी को करना ही होगा। इससे कर्मचारियों में मानसिक अशांति बढ़ेगी। वर्तमान श्रमिक कानून नाकाफी हो जाएंगे। उनमें संशोधन कर नए कानून बनाने होंगे।
वैसे भी शुरुआती मजदूर आंदोलन ने जो पाया था, वह वैश्वीकरण में सब बह चुका है। सप्ताह में एक दिन की छुट्टी, अर्जित अवकाश, बीमारी का अवकाश, दिन में काम के आठ घंटे और एक घंटे की विश्रांति, बोनस, अपनी यूनियन बनाने और वेतन समझौते के अधिकार, अतिरिक्त समय में काम करने पर दुगुना वेतन, चिकित्सा सुविधाएं, आवास सुविधाएं जैसी रियायतें केवल सरकारी और संगठित क्षेत्रों तक ही सीमित हैं। छोटे-मोटे उद्योग ये सुविधाएं बहुत कम देते हैं। रातदिन काम कर मालिक की मर्जी सम्हालनी पड़ती है। यह भी दुखद है कि फैसले अब पहले जैसे मजदूरों के पक्ष में बहुत कम आते हैं, ज्यादातर मालिकों के पक्ष में ही होते हैं। कानून वही हैं, लेकिन उसकी व्याख्या अब बदल गई है। सरकारी कर्मचारियों के अलावा अन्य मजदूर संगठन की कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। उनके लिए केवल अदालत का ही रास्ता होता है; लेकिन हम सब जानते हैं कि अदालतों में फैसले इतने विलंब से आते हैं कि तब तक मजदूर जिंदा ही नहीं रहता या जिंदा रहे तो फैसले का लाभ उठाने की क्षमता खो चुका होता है। अदालतों की यह स्थिति बदलने की किसी को नहीं आन पड़ी है। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सब अपनी-अपनी डफली बजाने में लगे रहते हैं। यह मजदूर आंदोलन का नकारात्मक पक्ष है, लेकिन यथार्थ को कहे बिना और विकल्प क्या है?
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Comments 3

  1. विश्वनाथ गोकर्ण says:
    5 years ago

    मजदूरों के हक में बहुत दिन बाद कोई अच्छा आर्टिकल पढ़ने को मिला। परफेक्ट डेटा के साथ लिखे गए कंटेंट में मजदूर तबके के प्रति आपकी फिक्र दिखाई देती है । गंगाधर ढोबले जी आपको साधुवाद…

    Reply
  2. Sandeep Dhoble says:
    5 years ago

    Excellent article with informative data on India and global labor issues. I think you can consider running a series of such articles portraying different countries, industries, etc. going forward during COVID -19 Pandemic period. Sandeep Dhoble

    Reply

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