चीन के प्रति भारतीय हित साधने की नीति हो

कोरोना वायरस पूरी दुनिया में अब तक चालीस लाख से ज्यादा लोगों को संक्रमित कर चुका है। 2 लाख 50 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। संपूर्ण विेश में महामारी के साथ आर्थिक मंदी की लहर भी बड़ी जोर से चल रही है। लोगों का स्वास्थ्य और आमदनी आदि सभी बातें भगवान भरोसे हैं। यह विनाशकारी वायरस शुरू हुआ चीन से। कोरोना वायरस की महामारी को फैलाने में चीन की भूमिका को लेकर सवाल उठने लगे हैं। लगातार यह चर्चा चल रही है कि आज विेश के सब लोग जो अपने अपने घरों में कैद हैं , क्या इसके लिए चीन जिम्मेदार है?

जब यह साफ हो गया कि यह वायरस चीन की ही देन है, तो इसे चाइनीज वायरस कहने पर चीन को बहुत बड़ा एतराज है। खासतौर पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप चाइनीस वायरस करके ही पुकारते हैं? इस पर चीन ने बहुत आपत्ति जताई है। यह चीन का दोहरा रवैया है। चीन की असलियत अब दुनिया के सामने आ चुकी है। दुनिया को भी चीन पर विेशास नहीं है। यह वायरस चीन की लफ्फाजी का सिर्फ एक हिस्सा है। चीन की विस्तारवादी नीयत और भारत के प्रति चीन के व्यवहार को भी समझना अत्यंत आवश्यक है।

भारत और चीन में पुराने जमाने में सांस्कृतिक और वाणिज्य संबंध रहे हैं। विचारों और विद्वानों का आदान-प्रदान होता रहा है। बौद्ध भिक्खू यहां से चीन गए और उन्होंने शांति, अहिंसा और प्रेम के विचार चीन में फैलाए। उन विचारों का चीन पर बड़े अर्से तक प्रभाव रहा है। चीनी छात्र भारत के नालंदा और तक्षशिला में पढ़ने के लिए आते थे। यहां से बौद्ध दर्शन और अर्थशास्त्र के विद्वान चीन जाते थे। इस तरह से दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध था। कुल मिलाकर भारत और चीन के सांस्कृतिक, दार्शनिक और वाणिज्यिक संबंध थे। समय के प्रवाह में चीन के इतिहास में भी बहुत उलटफेर होते रहे। 1949 में चीन मुक्त हुआ। चीन की मुक्ति के लिएजो स्वतंत्रता संग्राम हुआ वह कोई लोकतंत्र से प्रेरित नहीं था। वह एक कम्युनिस्ट क्रांति थी। इस कारण दुनिया के बहुत सारे देश चीन की तरफ शंकाभरी नजर से देखते थे। लेकिन भारत ने अपने पुराने रिश्तों को ध्यान में रखते हुए चीन को मान्यता दे दी। अंतरराष्ट्रीय मंच पर चीन आ जाए, वह राष्ट्रसंघ का सदस्य बने इस बात के लिए प्रयास किया। चीन के साथ अपने संबंध बने रहे इस बात पर भारत ने ध्यान दिया। भविष्य में चीन क्या प्रतिपादित करेगा इस पर भारत ने कोई विचार नहीं किया था।

भारत ने हमेशा चीन के साथ सद्भावना के साथ अपने संबंध बनाए रखने का प्रयास किया। उस समय हमारे प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने चीन के साथउसी पुराने सबंधों के साथ सद्भावना रखी। सरदार वल्लभभाई पटेल ने उस समयचीन की नीतियों के संदर्भ में पत्र लिखकर पंडित जवाहरलाल नेहरू को सावधान किया था। उन्होंने लिखा था कि चीन के संदर्भ में अपनी नीतियां गलत हैं और उसके परिणाम आगे भविष्य में अच्छे नहीं होंगे। भारत के सोचने के तरीका और चीन के सोचने के तरीके में बहुत बड़ा अंतर है। चीन सदियों से वैिेशक विजय की दृष्टि लगाकर बैठा है। भविष्य में 200 सालों में चीन क्या कर सकता है, चीन की इतने लंबे समय को लेकर सोच हैं, इसके बारे में दूरदृष्टि की जरूरत थी। कांग्रेस के राज में तो भारत में पंचवर्षीय योजना भी ठीक से नहीं चलती थी, तो इतनी दूरदृष्टि वे क्योंकर रखेंगे।

1959 में दलाई लामा के तिब्बत आने के बाद हालात और बिगड़ गए। हमने दलाई लामा को शरण दी, यह हमारा धर्म था। भारत ने अपना धर्म निभाया। चीन इस बात को किस तरह महसूस करेगा इस बात पर हमने चीन पर ध्यान नहीं दिया। उस
समय हमारे गणमान्य नेताओँ का ध्यान सिर्फ पाकिस्तान की तरफ रहता था। उसकी नजर में उस समय भारत के लिए चीन से कोई ज्यादा संकट की बात नहीं थी। वर्ष 1962 तक हमारी नजर में सिर्फ पाकिस्तान ही हमारा शत्रु था। 1962 में चीन ने भारत पर हमला किया। हम गफलत में थे। हम समझ नहीं पाए कि चीन ने हमारे साथ ऐसा क्यों किया? हमने तो चीन के प्रति कोई अपराध नहीं किया था। कोई आक्रमण उस पर नहीं किया था। चीन को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया था।लेकिन चीन
ने हम पर यह हमला क्यों किया?

इस बात पर चीन के मंतव्य को समझना अत्यंत आवश्यक है। पहली बात तो यह है की पूरे विेश में इंडिया एंड चाइना इस बात से विचार रखा जाता था। यह बात चीन को खटकती थी। चीन को लगता था कि अगर भारत इसी तरह से चीन से आगे-आगे करता रहा तो हम भारत के पीछे ही रहेंगे। एशिया में भारत हम से आगे निकल जाएगा। भारत को थोड़ा सबक सिखाने की बात चीन ने मन में ठान ली। दूसरी बात यह है कि वर्ष 1947 में भारत आजाद हुआ और 1949 में चीन मुक्त हुआ। ऐसे समय में चीन हमेशा भारत से अपनी तुलना करता था। जो अपने आप को कम्युनिस्ट मॉडल के रूप में देखता था और भारत का डेमोक्रेटिक मॉडल उसे पसंद नहीं था। चीन के हमले को आप थोड़े गौर से देखिए कि उन्होंने भारत पर 1962 में हमला किया और वापस चले गए। सिर्फ यह दिखाने के लिए चीन ने भारत पर हमला किया था, कि युद्ध के बाद जो सीख सीखनी है वह भारत सीखेगा। एशिया महाद्वीप में भारत अपने आपको चीन से कम ही नापने लगेगा।

1962 से 1976 तक भारत चीन के सामने ठंडा रहा। 1979 में जनता पार्टी की सरकार आई। तब वाजपेयी जी ने चीन के साथ संबंध सुधारने का कुछ प्रयास किया। उसके बाद 2003 में वाजपेयी सरकार आने के बाद वाजपेयी जी की चीन यात्रा हुई थी। लेकिन इस बीच चीन में आर्थिक और सामरिक प्रगति बड़ी मात्रा में हुई थी। अंतरराष्ट्रीय क्षेत्र में चीन अपनी ताकत दिखाने लगा था। अमेरिका चीन के बीच संबंध बढ़िया थे। अमेरिका और चीन मिलकर पाकिस्तान को मदद करते थे। एक नया कनेक्शन अमेरिका, चीन और पाकिस्तान के बीच बन रहा था। अमेरिका और चीनअपनी- अपनी अर्थव्यवस्था से बंधे हुए थे। अपने-अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों के कारण वे पाकिस्तान को सहयोग प्रदान कर रहे थे। इसलिए एक नया समीकरणएशिया महाद्वीप में बनता जा रहा था। हर देश अपने हितों को देखकर विदेश नीति बनाता है। इस बीच भारत की विदेश नीति अत्यंत कमजोर साबित हो रही थी। नतीजा यह हुआ कि 1962 से 2014 तक भारत चीन के बारे में कोई कारगर, प्रभावी और दीर्घावधि नीति बनाने में असफल रहा था। चीन ने सबसे पहले तो यह बात की कि एनएससी ग्रुप में भारत का विरोध किया। चीन हमेशा इस कोशिश में रहता था कि भारत का कोई भी समझौता सफल ना हो। भारत अपनी परमाणु, ऊर्जा और परमाणु ईंधन की पूर्ति न कर सके।

सवाल यह उठता है कि जिस चीन की हम हमेशा मदद करते आए हैं हमने किसी बात पर चीन को विरोध नहीं किया, चीन का भारत के प्रति यह रवैया क्यों है? क्या चीन फिर से यह दिखाना चाहता है कि चीन भारत से आगे है। भारत को चीन से आगे बढ़ने की इजाजत नहीं दी जा सकती। एशिया के क्षेत्र में चीन की एकमात्र सत्ता होगी। भारत चीन से अपनी तुलना करने की कोशिश ना करें। इस प्रकार का संकेत चीन निरंतर भारत को देना चाहता है। पाकिस्तान अपनी परमाणु शक्ति बढ़ा रहा था। तब अमेरिका क्या कर रहा था? वह भारत के साथ सामरिक दोस्ती की बात करता था। लेकिन उसकी रणनीतिक दोस्ती तो अपने हितों के लिए थी। आज परिस्थिति बदल गई है। आज चीन और अमेरिका एक दूसरे के सामने प्रतिस्पर्धी के रूप में खड़ हैं। भारत और चीन के संबंधों में भारत की दृष्टि में गुणात्मक परिवर्तन होना कांग्रेस के राज में गत 60 सालों में अत्यंत आवश्यक था। वह परिवर्तन नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद 6 सालों में प्रभावी रूप से हो रहा है। चीन के बारे में हमारी क्या नीति है? चीन के साथ हम क्या करना चाहते हैं? क्या हम सिर्फ पंचवर्षीय योजना में रहना चाहते हैं? या चीन के लिए हमारा कोई नया कड़ा पैतरा है? भारत ने आज फिर से पूरे विेश में अपना मित्र परिवार बढ़ाया है। अमेरिका आज भारत के तरफ झुका हुआ है। चीन और अमेरिका अपने औद्योगिक और व्यापारिक स्वार्थ के लिए एक दूसरे के सामने कट्टर शत्रु की तरह खड़े हैं।

तवांग और उसके आसपास 1962 के युध्द के बाद चीनी जनसंख्या को बसाया गया है। अब चीन कह रहा है कि तवांग चीनी भाषी प्रदेश है और इसी बहाने चीन भारतीय प्रदेश में घुसपैठ की कोशिश कर रहा है। चीन ने भारत के बाजार पर अपना कब्जा जमाने का प्रयास किया हुआ है। जो भारत के आर्थिक विकास के लिए हानिकारक है। असम और पूर्वोत्तर में उल्फा, बोड़ो आंदोलन के माध्यम से जो उपद्रव स्थापित करने का प्रयास चीन लगातार कर रहा है और भारत में होने वाली ज्यादातर भारत विरोधी गतिविधियों के समर्थन में चीन खड़ा हो रहा है। इससे हमें याद रखना चाहिए कि चीन हमारा स्वाभाविक पड़ोसी नहीं रहा है। घुसपैठिया चीन हिमालय की हमारी सीमा तक आ गया है। कभी चीन अरुणाचल मांगता है, कभी पाकिस्तान से भारत पर जोर आजमाना चाहता है। 1962 से 2014 तक भारत अपनी सीमाओं को सिकुड़ता जा रहा था।

आज दुनिया में एक नया समीकरण बनता जा रहा है। इस बात की संभावनाओं को हम इनकार नहीं कर सकते कि कल चीन और अमेरिका में सारी दुनिया को आपस में बांट लेने की संधि ना हो जाए, जैसा कि पहले भी होता रहा है। फिर से किसी न किसी प्रांत में हो सकता है या अपने अपने स्वार्थ के लिए तीसरे महायुद्ध पर उतर आए। महाशक्तियों को जब धन और सामरिक शक्ति का अहंकार आता है तो वे दुनिया को तोड़ने और अपने हित स्थापित करने की कोशिश करती हैं। इतिहास इस बात का गवाह है। हमें अमेरिका और चीन के बीच में अपने भी वैकल्पिक संबंध बनाने अत्यंत जरूरी है। अमेरिका और चीन इन दो महाशक्तियों के बीच में हम पीसे न जाए, या उनके दास न बने इस प्रकार की योजना भारत की होनी चाहिए। अमेरिका और चीन के बीच संबंध अभी गहरी दरार की तरफ बढ़ रहे हैं। उन संबंधों को देखकर हम भारत का विकास किस प्रकार से कर सकते हैं उस पर अपनी नीति तैयार होनी चाहिए। इन सभी बातों पर वैकल्पिक नीति तैयार करने की अत्यंत जरूरी है। देश की सीमाएं वहां तक होती हैं जहां तक आप उसकी रक्षा कर सकते हैं। लेकिन चीन की विस्तारवादी नीति और अमानवीय, घातकी नीयत पर भारत को बहुत गहराई से विचार करने की जरूरत है।

This Post Has One Comment

  1. Vidya Sharaff

    Nice article 👌

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