ब्रह्मपुत्र का सांस्कृतिक दूत

भूपेन दा की कई असमिया फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। इन फिल्मों को भारतीय फिल्मों की मुख्य धारा में लाने का काम उन्होंने किया है। हजार से भी अधिक काव्य रचनाएं उन्होंने की हैं, तथा उनकी लघु कथाएं भी मौलिक हैं। इस लोकप्रिय कलाकार को पद्मश्री पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुए और बाद में अकादमी का अध्यक्ष पद भी प्राप्त हुआ।

पूर्वात्तर भारत की सब से अधिक लोकप्रिय असामी कौन ? इस प्रश् न का उत्तर एक ही है ‘भूपेन हजारिका। ’ महाराष्ट्र में जिस तरह लोगों ने पु . ल . देशपांडे पर प्रेम किया है उसी तरह असम की जनता ने भूपेन हजारिका पर प्रेम किया है। बर्लिन में जब विश् व संगीतकार परिषद हुई थी तब भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले भूपेन दा ने बांगलादेश का स्वतंत्रता गीत गाया था। पूर्वोत्तर भारत के सातों राज्यों के गिरीकंदराओं में भूपेन दा के ही सूर गूंजते रहे हैं। वहां के आदिवासी संस्कृति से अपना नाता बताते रहे हैं। भारत को स्वाधीनता मिलने पर भी पूर्वोत्तर भाग अपने राज्यकर्ताओं की उपेक्षा के कारण अलग पड़ते गया है। उन्हें मुख्य धारा से जोड़ कर रखने में मुख्य भूमिका अदा करने में भूपेन दा अग्रणी थे। वे आधुनिक भारत के सांस्कृतिक दूत बन गए।

समय ओ धीरे चल … डूब गई राह की नाव … दूर है पी का गांव … अपने कंपायमान पहाड़ी आवाज में भूपेन दा ने यह गाना गाया है। उनकी आवाज में एक अनोखापन था। नाव में बैठी युवती इस गाने में अपने मन की भावनाएं व्यक्त करती है। अपने प्रेमी का गांव जाने की चाह मन में रखने वाली प्रेमिका के मन की व्याकुलता, आतुरता और चौतरफा गूंजने वाली वह आवाज ! भूपेन दा ने अत्यंत स्वाभाविकता से यह गायन किया है। असम के जंगलों में बसनेवाले आदिवासियों के लोक संगीत से उन्हें बचपन में ही प्रेम हो गया। उनकी मां गाती थी। बच्चे को सुलाते समय जो लोरी वह गाती थी वह मानो भूपेन दा के मन में सदा गूंजती रही है। ‘रुदाली ’ फिल्म में तो एक लोरी उन्होंने ज्यों कि त्यों इस्तेमाल की है।

गुवाहाटी जिले में सादिया गाव में एक शिक्षक के घर भूपेन दा का जन्म हुआ। माता के संस्कारों से गले में गाना आ गया और पिता के संस्कारों से साहित्य में रुचि बढ़ गई। उन्होंने १० वर्ष की आयु में ही पहली कविता की थी। १२ वर्ष की आयु में ज्योति प्रसाद अग्रवाल नामक लोकप्रिय असमिया निर्देशक की फिल्म में भूमिका करने का अवसर मिला। तब बोलती फिल्में बनने लगी थीं। इस फिल्म का नाम था ‘इंद्रमालती ’। इस फिल्म में ‘बिश् व बिजॉय नोजोवान ’ यह पहला गाना उन्होंने गाया था। उनकी प्रगति के दरवाजे खुल गए। कवि, गायक, संगीतकार, लेखक, अभिनेता, पत्रकार, फिल्म निर्माता यह उनका बहुआयामी परिचय है। बनारस हिंदू विश् वविद्यालय से एमए करने के फश् चात् मास कम्युनिकेशन में उन्होंने डॉक्टरेट की। इसमें उन्हें शिकागो विश् वविद्यालय की लेस्ले फेलोशिफ भी मिल गई थी। फिल्म माध्यम से शैक्षिक विकास प्रकल्पों का प्रसार उनका विषय था। अमेरिका में उनका परिचय लोकप्रिय कृष्ण वर्णीय गायक पॉल रॉबसन से हुआ। उसके ‘ओल्ड मैन रिवर ’ गाने से वे बहुत प्रभावित हुए। न्यूयॉर्क में शोे बोट नामक स्टेज शो में वह गाना होता था। जब इसी नाम की फिल्म बनी तब पॉल रॉबसन ने वह गाया था। इसी गाने से स्फूर्ति पाकर भूपेन दा ने ‘बिस्तिमो फेरॉरे ’ गाना ब्रह्मपुत्र को सामने रखकर बनाया और गाया। वह पूर्वोत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हो गया। इस गाने का गुलजार ने ‘ओ गंगा बहती हो ’ के रूप में हिंदी रूपांतरण किया। भूपेन दा वामपंथी विचारों के थे इसलिए यह गीत वामपंथी लोगों का स्फूर्तिगान बन गया। मुंबई में इप्टा संस्था के नाटकों में सलिल चौधरी और बलराज साहनी के साथ काम करने हेतु जब भूपेन दा पधारे थे तब कई कार्यक्रमों में यह गाना उन्होंने गाया था।

युवावस्था में ‘अमर प्रतिनिधि ’ और ‘प्रतिध्वनि ’ नामक असमिया मासिक पत्रिकाओं के संपादक के रूप में उन्होंने काम किया है। आगे भूपेन दा ने फिल्मों पर ध्यान केंद्रित किया। ‘इरा बतोर सूर ’, ‘माहुत बंधु हे ’, ‘प्रतिध्वनि ’, ‘शकुंतला का स्वस्ति ’, ‘लटी घाटी ’, ‘चिक मिक बिगुली ’, ‘स्वीकारोती ’, ‘सिराज ’ जैसी कई फिल्में उन्होंने निर्देशित कीं। उसे संगीत से भी संवारा। अरुणाचल प्रदेश सरकार के लिए आदिवासी लोक संगीत और नृत्य पर आधारित ‘फॉर हूम द सन शाईन्स ’ लघु फिल्म उन्होंने बनाई थी। हिंदी में ‘एक पल ’ नामक फिल्म बनाई थी तथा रुदाली, दरमियां, साज, गजगामिनी, दमन जैसी फिल्मों को संगीत दिया था। गजगामिनी का संगीत देने का आग्रह करते समय एमएफ हुसैन ने कहा था, ‘आप गाने से चित्र बना सकते हैं, लेकिन मैं चित्र से गाना नहीं निर्माण कर सकता हूं। इसलिए यह दायित्व आपको सौंप रहा हूं ! ’

भूपेन दा की कई असमिया फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार मिले हैं। इन फिल्मों को भारतीय फिल्मों की मुख्य धारा में लाने का काम उन्होंने किया है। हजार से भी अधिक काव्य रचनाएं उन्होंने की हैं, तथा उनकी लघु कथाएं भी मौलिक हैं। जब १९८८ में दूरदर्शन पर दिखाने के लिए कल्पना लाजमी द्वारा निर्देशित ‘लोहित किनारे ’ मालिका बनाई गई थी, तब उसका टायटल सांग भूपेन दा ने ही बनाया था जो उनकी ही आवाज में था।

इस लोकप्रिय कलाकार को पद्मश्री पुरस्कार, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुए और बाद में अकादमी का अध्यक्ष पद भी प्राप्त हुआ। उनके जाने से ब्रह्मपुत्र मौन हो गई है।

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