सेवा परमो धर्म :

आपदा की यह घडी भी हमारे लिए सुनहरा अवसर लेकर आई है। दुख:, विषाद और नकारात्मकता से बाहर निकलने का एकमात्र मार्ग होता है किसी भव्य लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जुट जाना। भारत को आत्मनिर्भर बनाने का लक्ष्य भी कुछ इसी प्रकार काही है। संकटकाल में अपने देश की जनता को बचाने के लिए हर संभव प्रयास करना और उसमें पुन: आत्मविश्वास का संचार कर उसे नए रूप में जीने के लिए प्रेरित करना ही राजधर्म है। यही राजा की अपने समाज के प्रति सेवा है।

भारत हमेशा से ही ‘सेवा परमो धर्म:’ के सिद्धांत पर चलने वाला देश रहा है और कोरोना कालखंड ने इस सिद्धांत पर यथार्थ की स्याही से स्वर्णाक्षर लिख दिए हैं। भारतीय संस्कृति में सेवा क्रिया से ज्यादा भावना का विषय है, जो कि इसे अंग्रेजी के
शब्द ‘सर्विस‘ से अलग करता है। ‘सर्विस’ कुछ पाने के लिए दी जाती है और सेवा पूर्णत: निःस्वार्थ भाव से समाज के प्रति अपने कर्तव्य को जानकर की जाती है।

इसी निःस्वार्थ भाव से विगत दो महीनों से अधिक की कालावधि से सैकड़ों-हजारों कार्यकर्ता, संस्थाएं दिन-रात समाज सेवा में लगे हुए हैं। लोगों को आवश्यकता के अनुरूप भोजन सामग्री बांटने, चिकित्सा सुविधाओं की आपूर्ति करने, अपने स्वास्थ्य का सम्पूर्ण ध्यान रखकर अन्य लोगों की सहायता करने में कई लोग जुटे हुए हैं। इस अंक में हमने समाज की ऐसी विभिन्न संस्थाओं के सेवा कार्यों का उल्लेख किया है। परंतुयह सागर से कुछ बूंदें निकालकर आपके सामने प्रस्तुत करने जैसा ही है।

हालांकि अब सेवा का अर्थ केवल आवश्यकता की वस्तुएं देना या कोई कार्य करके मदद करना ही नहीं रहा अपितु फिजिकल डिस्टेंसिंग का पालन करना भी एक प्रकार की सेवा ही बन चुकी है। कोरोना ने भारत में सेवा की परिभाषा ही बदल दी है और भविष्य में इसके मायने और बदलने वाले हैं।

यह सम्पूर्ण आपदाकाल भारत की समाज व्यवस्था को मथने वाला रहा है। लोगों ने यह जान लिया है कि अन्य बीमारियों की तरह ही हमें कोरोना के साथ रहने की आदत डालनी होगी। अत: केवल उत्सव, विवाह, अंतिम क्रिया ही नहीं वरन शाम के समय चौपाल या चौराहे पर गपशप के लिए एकत्रित होने वाला भारतीय समाज भी आज अपने- अपने घरों में बैठा है। यह भी सामूहिक रूप से की जा रही सेवा ही है।

अब सेवा के इन सारे आयामों और प्रकारों के बीच यह सोचने की आवाश्यकता है कि सेवाकार्यों का भविष्य में स्वरूप कैसा होगा? क्या कुछ दिनों बाद जब कोरोना का प्रभाव कम होगा तब सेवाकार्य रुक जाएंगे? क्या जिन लोगों की अभी तक सेवा की जा रही थी उन्हें अब सेवा की आवश्यकता नहीं रहेगी? यह तो नहीं कहा जा सकता कि सेवा की आवश्यकता नहीं रहेगी परंतु उसके स्वरूप में परिवर्तन जरूर आ जाएगा और समय की मांग के अनुसार परिवर्तन आना अपेक्षित भी है।

अभी समाज में सबसे ज्यादा उस तबके की सेवा की जा रही है जिसका पेट हाथ पर है। दिहाडी मजदूर, सिग्नल-चौराहों पर भीख मांगने या गुब्बारे-खिलौने बेचने वाले लोग, गरीबी रेखा के नीचे का वर्ग, इत्यादि लोगों की समाज ने बहुत सेवा की; परंतु मजदूरों ने भी यह जान लिए था कि यह सेवा लंबे समय तक नहीं चल सकती। वैसे भी अपने गांव और गांव वालों को छोड़कर ये मजदूर शहर में मेहनत करने आते हैं। इसका अर्थ यह है कि वे आत्मसम्मान से जीना चाहते हैं, कई दिनों तक लोगों के सामने हाथ फैलाना इनके जमीर में नहीं। अत: अब बदलती परिस्थिति में इन मजदूरों के पुनर्वास के लिए लोगों और संस्थाओं को आगे आना होना। जो मजदूर अपने गावों की ओर लौट गए हैं, उनकी उनके गांवों में ही भरण-पोषण होने की व्यवस्था करनी होगी। जिससे आगे कभी ऐसी कोई विकट समस्या उत्पन्न हो तो उनको मीलों चलकर अपने गांव लौटने की त्रासदी न झेलनी पडे।

सामाजिक संस्थाओं को अब राशन बांटने से ऊपर उठकर यह सोचना होगा कि क्या वे कुछ ऐसे उपक्रम चला सकते हैं जो निरंतर युवा पीढ़ी के कौशल विकास को प्राथमिकता दें। अब ऐसी सेवा करने की आवश्यकता है जो समाज के हर तबके को आत्मनिर्भर बना सके। जब समाज का हर तबका आत्मनिर्भर बनेगा तभी देश आत्मनिर्भर बनेगा। सरकार के प्रयासों से अगर भारत में नए उद्योग आते हैं तो उन उद्योगों में काम करने वाले लोगों में जिन गुणों की आवश्यकता होगी उनका आंकलन कर ऐसे मानव संसाधनों का विकास करने का कार्य भी सेवाभावी संस्थाएं कर सकती हैं। यह सही मायने में समाज सेवा होगी; क्योंकि यह सेवा किसी को हाथ पसारने को मजबूर नहीं करेगी अपितु उन हाथों को परिश्रम और आत्म सम्मान से अपना भरण-पोषण करने और जीवन सम्पन्न बनाने के लिए प्रेरित करेगी।

सेवा के इन बदलते मायनों के बीच यह सोचना भी आवश्यक है कि सेवा कितनी और किसकी की जाए। जिस प्रकार दान के बारे में कहा जाता है कि दान सुपात्र को ही दिया जाना चाहिए वैसे ही सेवा भी उसी व्यक्ति की, की जानी चाहिए जो सचमुच जरूरतमंद हो। सेवा की आड़ में हो रहे भ्रष्ट आचरण को समय रहते ही रोकना होगा। जिसे सेवा दी जा रही है उसका भंलीभांति निरीक्षण- परीक्षण करके ही सहायता की जाए नहीं तो मुफ्तखोरी की आदत पड़ने में भी देर नहीं लगेगी और अंजाम सुदर्शन की कहानी हार की जीत जैसा होगा जिसमें बाबा भारती के घोड़े को डाकू खडगसिंह अपाहिज का वेश धारण कर भगा ले जाता है, और बाबा भारती उससे कहते हैं कि भले ही घोड़ा ले जाओ पर इस घटना जिक्र और किसी से न करना वरना लोग दीन-दुखियों पर भरोसा करना छोड़ देंगे।

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