आत्मनिर्भरता का अध्यात्म -सेवा

‘स्व’ की इस चेतना का विस्तार ही अध्यात्म है और उसके फलस्वरूप निःस्वार्थ भाव से किया गया कार्य ही ‘सेवा’ है।इस प्रकार जब समाज का हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को गढ़ता है और सत्कर्म करते करते आगे बढ़ता है, तो ‘आत्मनिर्भर’ समाज के लक्ष्य की प्राप्ति में फिर कोई संशय नहीं रहता है।

वैश्विक  महामारी कोरोना संकट से इस समय समूचा विेश जूझ रहा है। इस प्रकार के संकट का कोई दूसरा उदाहरण अब तक के इतिहास में कहीं नहीं मिलता है। भारत भी विगत 60 दिनों से इस त्रासदी को अपनी पूरी जिजीविषा के साथ झेल रहा है। यह बात यहां समीचीन है कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश की 135 करोड़ जनता जिस प्रकार से इस भीषण संकट का मुकाबला कर रही है, वह भी अभूतपूर्व है। यहां यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं होता है कि इस संकट ने भारत की आत्मा को जागृत कर दिया है और जिसके सर्वत्र दर्शन भी हो रहे हैं।

जब अमेरिका के राष्ट्रपति के व्हाइट हाउस में शांति पाठ का आयोजन किया जाता है अथवा यूरोप के अनेक देशों में वैश्विक शांति की कामना और इस प्राकृतिक आपदा के निवारण के लिए वेद शास्त्रों का सहारा लिया जाता है, तब यह बात हमें ओशस्त करती है- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। वास्तव में यही चेतना और चिंतन भारत की जीवन शैली का अमृतत्व है, जिसका मर्मस्पर्शी उल्लेख श्री नरेंद्र मोदी ने 2 दिन पहले अपने राष्ट्र के नाम पांचवें संदेश में किया था, कि प्रतिकूल से प्रतिकूल परिस्थिति में भी अपने आत्म संयम को बनाए रखते हुए समग्र विश्व के कल्याण की कामना से सदैव कार्यरत रहना और सर्व मंगल के लिए आगे बढ़ते रहना।

श्री मोदी जब यह संदेश भारत की जनता को दे रहे थे, तो ऐसा लग रहा था कि भारत की आत्मा बोल रही है। इस विकट परिस्थिति में जब सभी देश अपने- अपनों को बचाने के लिए प्रयासरत है, तब भारत का प्रधान मंत्री कहता है- वसुधैव कुटुंबकम्। केवल हम ही नहीं समस्त वसुधा एक कुटुंब के समान है और हम उसके मंगल के लिए कृतसंकल्प है। प्रधानमंत्री का संपूर्ण विश्व की कल्याण की कामना का संकल्प ही तो अध्यात्म है । आत्मानुशासन और आत्म संयम से सबके लिए कार्य करने के भाव से स्वयं को समर्पित करना ही सेवा है और उसके सिद्धांत को शरीर, मन, बुद्धि से स्वीकार करना अध्यात्म है।

अब एक बात यह है कि अंग्रेजी और अंग्रेजीयत का आज भी भारतीय जनमानस पर इतना प्रभाव हो गया है कि हम अपने शब्दों के वास्तविक अर्थ को भूल गए हैं। जैसे धर्म का रिलीजन के पर्याय के रूप में प्रयोग किया जाता है और अर्थ का अनर्थ होता है, उसी प्रकार से अध्यात्म के अर्थ को भी स्पिरिचुअलीज्म के साथ जोड़ दिया गया है, जो उसके वास्तविक अर्थ को प्रकट नहीं करता है। अध्यात्म का अर्थ है- जो अपने भीतर है, अर्थात आत्मनि- अधि, जो शरीर के अंदर है। अब इस शरीर के अंदर क्या है, यह हमें गीता बताती है-

इंद्रियाणि पराश्याहू: इंद्रियेभ्य: परं मन:।

मनस्तु पराबुद्धि:, यो बुद्धे परस्तु स:॥

एवं बुद्धे परं बुद्दधवा, संस्तभ्यात्मानत्मना।

जहि शओ महाबाहो, काम रूपं दुरासदम्शरीर

से सूक्ष्म इंद्रियां, इंद्रियों से सूक्ष्म मन, मनसे सूक्ष्म बुद्धि और बुद्धि से सूक्ष्म आत्मा, यह सब मानव शरीर के भीतर है, अतः यह आध्यात्मिक है। इनकी सभी वृत्तियां आध्यात्मिक हैं। ये वृत्तियां जब सकारात्मक होती हैं, तो मानव का कार्य मंगल करती हैं और यदि नकारात्मक होती हैं तो ताप हो जाता है, कष्ट देता है, क्लेश देता है। इसलिए तुलसी ने मानस में रामराज्य की विशेषता बताते हुए लिखा-

दैहिक दैविक भौतिक तापा। राम राज काहु नहीं व्यापा।

राम राज्य में किसी भी प्रकार दैहिक, दैविक, भौतिक ताप नहीं था, अतः सर्वत्र मंगल था। न मनुष्य के मन में काम, क्रोध, लोभ जगे, न मोह जगे, तब जो भाव जगेंगे, वे सर्व कल्याणकारी होंगे और तब जो कार्य संपन्न होगा, वह सेवा होगी। ‘स्व’ की इस चेतना का विस्तार ही अध्यात्म है और उसके फलस्वरूप निःस्वार्थ भाव से किया गया कार्य ही ‘सेवा’ है। इस प्रकार जब समाज का हर व्यक्ति अपने व्यक्तित्व को गढ़ता है और सत्कर्म करते करते आगे बढ़ता है, तो ‘आत्मनिर्भर’ समाज के लक्ष्य की प्राप्ति में फिर कोई संशय नहीं रहता है।

यही बात तो प्रधानमंत्री ने अपने राष्ट्र के संबोधन में कही थी। यही बात तो स्वामी विवेकानंद ने लगभग 127 वर्ष पहले कही थी जो अब सत्य प्रतीत हो रही है। स्वामी जी ने उस समय जो कहा था, नरेंद्र मोदी उसी को तो दोहराते प्रतीत हो रहे थे। भारत का पुनरुत्थान होगा, पर वह जड़ की शक्ति से नहीं, वरन आत्मा की शक्ति द्वारा। वह उत्थान विनाश की ध्वजा लेकर नहीं, वरन शांति और प्रेम की ध्वजा से, धन की शक्ति से नहीं बल्कि भिक्षा पात्र या सेवा की शक्ति से संपादित होगा।स्वामी जी ने आगे कहा था – हमारे कार्यों पर भारत का भविष्य निर्भर है। देखिए, वह भारत माता तत्परता से प्रतीक्षा कर रही है। यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल करना है, तो इसके लिए आवश्यकता है शक्ति संग्रह और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। केवल वही व्यक्ति सबकी अपेक्षा उत्तम रूप से कार्य करता है, जो पूर्णत: नि:स्वार्थी है, जिसे न तो धन की लालसा है, न कीर्ति की और न किसी अन्य वस्तु की ही। और मनुष्य जब ऐसा करने में समर्थ हो जाएगा, तो वह भी एक बुद्ध बन जाएगा और उसके भीतर से ऐसी शक्ति प्रकट होगी, जो संसार की अवस्था को पूरी तरह से परिवर्तित कर सकती है और यह जब संपूर्ण भाव कर्म में उतरते हैं, तो यही सेवा होती है।

कहना नहीं होगा कोरोना काल के इस संकट में भारत में अपनी इसी आत्मिक शक्ति और चरित्र का प्रगटन किया है। आज यदि पिछले 70 दिनों से भारत के सभी शहरों, गावों, अंचलों में विकट परिस्थिति से जूझ रहे विपन्न, वंचित और बेसहारा समाज के लोगों को भोजन, आश्रय तथा अन्य आवश्यक सामग्री प्रदान करने के लिए भारत का संपन्न वर्ग आगे आकर अपनी सेवाएं दे रहा है, तो उसके मूल में वही ‘स्व’ की चेतना का विस्तार है, जिस से प्रेरित होकर मानव मानव की सेवा कर रहा है। कोरोना संक्रमण की भयावहता और उसके परिणाम से विचलित हुए बगैर अगर स्वयंसेवी संस्थाओं के सदस्य, स्वयंसेवक दिनरात लोगों को राहत, राशन तथा अन्य जीवन आवश्यक सामग्री पहुंचा रहे हैं, तो यह अपनेस्व’ का विस्तार ही है। जिसके कारण व्यक्ति दूसरे में स्वयं को ही देख रहा है और उसकी पीड़ा को अपनी पीड़ा मानकर उसकी सेवा कर रहा है। विगत दिनों में ऐसे कई उदाहरण हमारे सामने आए हैं, जिनमें डॉक्टरों, नर्स तथा आरोग्य कर्मियों एवं पुलिस द्वारा अपनी स्वयं की जान जोखिम में डालकर सेवा के उच्च मापदंड स्थापित किए गए हैं, यहां तक कि हमारे अनेक चिकित्सकों, पुलिस कर्मियों तथा सेवा कर्मियों पर जाने अनजाने पत्थर आदि भी बरसाए गए। किंतु इसके बावजूद यदि लोगों ने अपना कर्तव्य निभाया है तो यही अध्यात्म है।

भारतीय मनीषा में सेवा के सर्वोच्च प्रतीक के रूप में श्री हनुमान जी का उदाहरण दिया जाता है और यही कारण है कि आज विेशभर में जितने मंदिर श्री हनुमान जी के हैं, उतने तो संभवतः उनके आराध्य स्वयं प्रभु श्री राम जी के भी नहीं हैं। विेश में कोई भी मंदिर किसी भी देवता का क्यों ना हो वहां श्री हनुमान जी अवश्य होंगे लेकिन श्री हनुमान मंदिर में आपको केवल श्री हनुमान ही मिलेंगे। सेवा, समर्पण की प्रतिष्ठा और उसकी प्रामाणिकता का उदाहरण है। रामायण में कथा आती है कि किष्किंधा में राम जी का हनुमान से परिचय होता है, श्री हनुमान जी राम को अपना स्वामी स्वीकार करते हैं तब सेवा की जो वैश्विक व्याख्या की है वह दृष्टव्य है।

सो अनन्य जाके अस मति न टरई हनुमंत,

मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत।

हे हनुमान! अनन्य वही है, जिसकी बुद्धि इस सिद्धांत से कभी विचलित नहीं होती कि मैं सेवक हूं और यह संपूर्ण जगत- सृष्टि मेरे स्वामी, भगवान का रूप है। यह स्वयं राम जी का वाक्य है कि जब मन में यह भाव आ जाए कि संपूर्ण सृष्टि की सेवा करना ही मेरे जीवन का लक्ष्य है, तो समझना चाहिए कि अंतर में अध्यात्म का जागरण हो रहा है और व्यक्तित्व का रूपांतरण हो रहा है। संपूर्ण जगत में अपने ही स्वरूप का दर्शन हमारी वैदिक चिंतन की ही तो परिणीति है। वेद का ऋषि कहता है, ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ सभी भूतों, प्राणियों में खुद को और अपने में सभी का दर्शन करना ही मानव जीवन का अभीष्ट है और जब ऐसा होता है तो व्यक्ति अपने अंतर में जो संतोष, सुख और संपूर्णता का अनुभव करता है, वही आत्मनिर्भरता है और यही प्रक्रिया जब सामाजिक और सामुदायिक भावना से संप्रेरित हो उठती है, तो समूचा समाज समृद्धि, संपन्नता और मानवीय संवेदना से भरकर संपूर्ण राष्ट्र को आत्मनिर्भर बना देती है।

आत्मनिर्भर भारत का यही तो संकल्प है, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने राष्ट्र संबोधन में व्यक्त किया है।जीवन के प्रति यही दृष्टि आज भारत को अन्य तथाकथित विकसित देशों से अलग करती है। जीवन- जीव- जगत को देखने की यह नई दृष्टि संस्कृति, संस्कार, विचार, व्यवहार एवं दर्शन से प्राप्त होती है, जिसका सर्वोत्तम इस संकट के समय भारतीय जन- मन ने प्रदर्शित किया है। आज इसी भाव को और अधिक पुष्ट करने की आवश्यकता है। आइए, कोरोना का यह संकट और आपदा हमारे लिए अवसर का उपहार लेकर आया है। भारत की चेतना और चिंतन मानव का अध्यात्म है, चेतना का विस्तार है और सेवा के संस्कार का आधार है।

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