शांतिदूतों को अब शांत रहना होगा

शाहीनबाग, दिल्ली दंगे, मरकज, कश्मीर में हिंदू सरपंच की हत्या, जौनपुर में उन्मादी भीड़ द्वारा दलितों के घर जलाना, असम में हिंदू युवक ॠतुपर्ण पेगु की हत्या इत्यादि सभी कथित शांतिदूत मुस्लिमों के वे कारनामे हैं, जो लोगों के सामने इसलिए आए हैं क्योंकि ये मुख्य धारा की मीडिया या सोशल मीडिया पर दिखाई दे गए हैं। परंतु वे धीरे-धीरे समाज में विष घोलने का जो काम कर रहे हैं, उसे समझना बहुत जरूरी है। सारे मुस्लिम समाज पर हम यह आरोप नहीं थोप रहे हैं, लेकिन उनमें एक ऐसा तबका है जो अमनपसंदगी की खाल ओढ़कर सदा राष्ट्रविरोधी करतूतों में लगा रहता है।

अल्पसंख्यक, डर और अधिकार इन शब्दों को अपनी ढाल बनाकर भारतीय समाज को धीरे-धीरे मुस्लिम समाज में परिवर्तित करने की दिशा में कदम बढ़ाने का यह सिलसिला तो आजादी के सिर्फ 13 दिन बाद ही शुरू हो चुका था जब संविधान सभा की बैठक में मुस्लिम लीग के कुछ सदस्यों ने आजाद भारत में भी अलग मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों की मांग की थी। ये वे सदस्य थे जो 1946 में हुए चुनावों में मुस्लिम लीग के निशान पर चुनाव लड़े और जीते, परंतु उन्होंने बंटवारे के बाद भारत में रहना पसंद किया। हैरानी की बात तो यह है कि मुस्लिम लीग के उम्मीदवारों को 86 प्रतिशत से अधिक मतों से जिताने वाले मुसलमान भी भारत में ही रह गए। जिस मुस्लिम लीग का नारा ही ‘हंस के लिया पाकिस्तान, लड़ के लेंगे हिंदुस्तान’ था, उसके कर्ताधर्ता पाकिस्तान बनने के बाद अपने सारे अनुयायियों को लेकर पाकिस्तान क्यों नहीं चले गए? क्यों उन्होंने भारत में ही रहकर अलग निर्वाचन क्षेत्र का प्रस्ताव रखा था? ऐसा इसलिए कि अगर वे सभी पाकिस्तान चले जाते तो भारत में उनकी मानसिकता, उनके विचारों को खाद-पानी देने वाला कौन बचता? जिन मुसलमानों ने मुस्लिम लीग को समर्थन नहीं दिया था या जो मुसलमान खुद को भारतीय कहलाना पसंद करते थे, उन मुसलमानों से तो मुस्लिम लीग के आकाओं को कोई उम्मीद नहीं थी। इसलिए भारत में अपनी खुराफाती मानसिकता के लोगों को बनाए रखना उनके लिए जरूरी था।

आज भी भारत में उनकी यही मानसिक संतानें समय-समय पर अपना सिर उठाती रहती हैं। मुस्लिम लीग अब कोई राजनैतिक पार्टी भले ही न रही हो परंतु उसके देशद्रोही और विभाजन करने  वाले विचार आज भी जीवित हैं। सम्पूर्ण विश्व की तरह ही जम्मू- कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक भारत के जिन-जिन स्थानों पर मुसलमानों की संख्या अधिक है, वहां-वहां अन्य लोगों के अस्तित्व पर खतरा हमेशा बना ही रहता है। इसका ताजा उदाहरण है कश्मीर के हिंदू सरपंच अजय पंडिता की हत्या। कश्मीर को अपनी बपौती समझने वाले कश्मीरी अलगाववादी अब यह बात पचा नहीं पा रहे हैं कि वहां फिर एक बार हिंदू बसने जा रहे हैं। विभाजन के बाद से ही जिस जख्म को उन्होंने रिसता हुआ रखा था, उसे भरता हुआ वे कैसे देख सकते हैं? अब धीरे-धीरे सभी को यह समझ में आने लगा है कि भारत में अमन और विकास का माहौल न रहे इसमें किसकी दिलचस्पी हो सकती है? वे कौनसे तत्व हैं जो पंजाब से लेकर पूवारचल तक नशीले पदार्थों के फैलाव से लेकर आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न हैं? कश्मीर और कर्नाटक, असम और उत्तर प्रदेश मजहबी आग में झुलसे इसलिए वे विभिन्न जमातों और स्लीपर सेल्स का उपयोग करते हैं।

हमारे यहां के तथाकथित कुछ बुद्धिजीवी नेता, राष्ट्रविरोधी मीडिया जिहादी आतंकवाद को समाप्त करने का रोना तो हर समय रोते हैं; परंतु स्वयं इस राष्ट्रविरोधी आतंकवाद के विरोध में कुछ ठोस कदम उठाने का साहस नहीं करते। यही क्यों, सदा पैंतरे बदलने वाले कुछ राजनीतिक नेता भी अपने स्वार्थ के कारण इस्लामीकरण को सहयोग देते नजर आते हैं। कोरोना काल में भी मरकज से निकले लोगों के कारण इसका प्रसार अधिक हुआ यह मानने में भी इन लोगों की जान जल रही थी; क्योंकि वे सदैव मुसलमानों को बेचारा और अल्पसंख्यक ही बनाए रखना चाहते हैं जिससे हर बार मुस्लिम कार्ड खेलकर वे अपना राजनैतिक स्वार्थ साध सकें।

परंतु अब केवल देश ही नहीं दुनिया भर से इनके विरोध में स्वर उठने लगे हैं। कश्मीर के हिंदू सरपंच अजय पंडिता की बेटी के उद्गार साबित करते हैं कि अब वहां भी हिंदू डरकर नहीं जीना चाहते। पिछले कुछ महीनों में कश्मीर में जिस तरह आतंकवादियों का सफाया हो रहा है, जिस प्रकार वहां की जनता हमारी सेना का साथ दे रही है, उससे यह साफ हो रहा है कि अब अलगाववादी कोशिशें नाकामयाब होंगी। आतंकवादी संगठनों को कश्मीर से जो लोग मिलते थे वे भी मिलने अब कम हो गए हैं।

इसे एक नए अध्याय की शुरुआत ही कहा जाना चाहिए। कश्मीर से उठने वाले ये स्वर मुखर होकर अगर पूरे देश में फैल गए और शांतिदूतों को उनकी करतूतों का जवाब मिलने लगा तो उनके पास शांत रहने के अलावा कोई मार्ग नहीं बचेगा।

This Post Has One Comment

  1. अविनाश फाटक, बीकानेर. (राजस्थान)

    भगवान करे कि ऐसा ही हो, लेकिन सरकार और सेना के ऊपर यह जिम्मेदारी डालकर हम चैन की नींद सोएं, ऐसा कतई नहीं हो सकता. हमें भी उनके प्रयासों को सफल करने के लिये पूरे मनोयोग से उनका साथ देना होगा.साथ ही समाज जागरण के महत्व एवं उसकी आवश्यकता को समझकर यथासंभव इस दिशा में सार्थक प्रयास करने होंगे.

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