जम्मू-कश्मीर में हिंदू सरपंच की हत्या से उभरे सवाल

8 जून 2020 को कश्मीर के अनंतनाग जिले के एक ग्राम पंचायत सरपंच श्रीमान अजय पंडिता भारती को आतंकियों ने मृत्यु के घाट उतार दिया। कश्मीर के नवगठित आतंकी संगठन ‘द रेजिस्टेंस मूवमेंट’ ने इसका जिम्मा लिया है। ‘द रेजिस्टें2स मूवमेंट’ लश्कर-ए-तैयबा का नया रूप है, जिसे एफ. ए. टी. एफ. के दबाव के कारण पाकिस्तान ने कश्मीर में जिहाद को स्थानीय सेक्युलर संघर्ष जैसा प्रस्तुत करने हेतु बनाया है।

यह पूरा घटनाक्रम और इसके विभिन्न आयाम, जम्मू कश्मीर के कश्मीर क्षेत्र में चल रहे आजादी (‘जेहादी’ पढ़ें) के संघर्ष के बारे में कई प्रश्न खड़े करते हैं। कश्मीर क्षेत्र में कितने ही सरपंच रहे होंगे फिर इस एकलौते हिंदू सरपंच को ही क्यों मारा गया? क्या इस हमले को मात्र लोकतंत्र पर हमला कहना ठीक होगा (जैसा कि केंद्रीय मंत्री डॉ. जितेन्द्र सिंह का मानना है)? अजय पंडिता के बार-बार निवेदन करने के बावजूद उन्हें सुरक्षा क्यों नहीं प्रदान की गई? वहाबी आतंक से ग्रसित कश्मीर की वास्तविकता हम कब पूर्णत… स्वीकारेंगे?

5 अगस्त 2019 को जब अनुच्छेद 370 में केंद्र सरकार ने संशोधन कर उसे निष्क्रिय बना दिया तथा अनुच्छेद 35(र) भी हटा दिया, तब पूरे देश में एक आशा की लहर उठी थी कि जम्मू-कश्मीर में बदलाव अवश्य आएगा। बीते कुछ समय में बढ़ते आतंकी हमलों को देखते हुए यह लगता है कि कश्मीर में जिहाद की समस्या का समाधान इतना सरल भी नहीं हो सकता। जब विरोधी पक्ष का संवाद हिंसा व आतंक परक हो तब लोकतंत्र और शांति की दुहाई देना गूढ़ मूर्खता का परिचायक ही हो सकता है। वर्तमान केंद्र सरकार इस बात पर स्पष्ट तो दिखती है परंतु यदि हम इस समस्या का मूलच्छेदन करना चाहते हैं तो वैचारिक स्पष्टता की भूमि पर प्रकटीकरण के साथ-साथ जनता में प्रचार-प्रसार भी अत्यावश्यक है।

पिछले 1 महीने के घटनाक्रम से इसे समझने का प्रयास करते हैं। इस समस्या के समाधान का बाहरी पहलू पाकिस्तान द्वारा संचालित इस्लामी आतंकवाद से निपटने का है। जिससे कश्मीर की जनता में एक साफ संदेश जाए कि कुछ भी हो जाए परंतु हथियार उठाना कोई विकल्प नहीं हो सकता और सुरक्षा बलों ने अपने दायित्व का बड़ी ही कुशलता से निर्वहन किया है। जम्मू कश्मीर के डी. जी. पी. दलबीर सिंह के कुछ दिन पहले दिए गए बयान के अनुसार इस वर्ष केंद्रीय शासित प्रदेश  हिंदू सरपंच अजय पंडिता के बलिदान से स्पष्ट होता है कि हमें ‘पॉलिटिकल करेक्टनैस’ के आडंबर को त्यागना होगा। जम्मू कश्मीर में इस्लामी आतंकवाद की समस्या पर एक ईमानदार चर्चा खड़ी करनी होगी और युवाओं में पनपे झूठ का पर्दाफाश करना होगा।

में 36 ऑपरेशनों में 88 आतंकी मारे जा चुके हैं। अभी हाल में ही पांच पाकिस्तानी आतंकवादियों को शोपियां में सेना ने मार गिराया है। परंतु यह सफलता बिना हानि के नहीं मिली और दर्जनों सैनिक इस वर्ष वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं। पिछले ही महीने उत्तर कश्मीर के हंदवाड़ा जिले में दो आतंकियों (जिन्होंने स्थानीय लोग बंदी बनाए थे) से मुठभेड़ में 21 राष्ट्रिय राइफल्स के 5 सिपाही वीरगति को प्राप्त हुए, जिनमें एक कर्नल व मेजर भी शामिल थे। सोचने योग्य है कि बंदी बनाए गए स्थानीय लोगों की रक्षा के लिए सुरक्षा बलों के न जाने कितने सिपाही अपनी जान पर खेल गए; परंतु इन्हीं आतंकवादियों की शवयात्रा में भाग लेने वाली स्थानीय जनता नहीं घटती। हालांकि इस वर्ष अप्रैल माह से आतंकवादियों के शव उनके परिवारों को सौंपने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है, परंतु समस्या गहरी है। हमें यह समझना होगा कि एक वैचारिक (मजहबी) संकट का समाधान केवल सैन्य, आर्थिक या संस्थागत नहीं हो सकता है।

कश्मीर में आतंकवाद का मूल व सूक्ष्म पहलू ही समस्या का केंद्र-बिंदु है। वहाबी मदरसों व मस्जिदों के इंद्रजाल को फैलाने में जितना हाथ पाकिस्तानी सेना-आई.एस.आई के श्रम का है, उतना ही तत्कालीन भारत सरकार की नपुसंकता का भी। भारत सरकार ने 2000 से 2016 तक देश की 1 प्रतिशत जनसंख्या वाले इस तत्कालीन राज्य को कुल राजकीय अनुदान का 10 प्रतिशत दिया। अनुच्छेद 370 जैसे स्थायी प्रावधान की आड़ में अनुच्छेद 35(र) के द्वारा राज्य की जनता व राजनीतिक धड़े को कुछ विशेष अधिकार प्रदान किए। परंतु परिणाम क्या रहे? पिछले 15 दिनों में सुरक्षा बलों ने 25 से अधिक आतंकियों को मार गिराया है। फिर भी डीजीपी दलबीर सिंह के अनुसार कश्मीर में 150-250 व जम्मू में 125-150 आतंकी पाकिस्तान से घुसने का प्रयास कर रहे हैं। एलओसी के पार 300 और भारतीय सीमा में 240 आतंकी अभी भी सक्रीय हैं। जब तक युवा वर्ग के मानस में जन्नत लक्ष्य और जेहाद माध्यम रहेगा, तब तक आतंक का यह कुचक्र समाप्त होता नहीं दिखता। और जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद का वैचारिक ढांचा तैयार करने वाले संगठन ‘जमात-ए-इस्लामी’ को अभी पिछले ही वर्ष प्रतिबंधित किया गया है। उससे पहले सरकारें क्या कर रहीं थीं?

बाहरी आवरण बदलने या विकास के प्रयास जितने मर्जी कर लिए जाएं, परंतु जब तक वैचारिक रूप से सरकार व सिविल सोसायटी द्वारा कश्मीर के वहाबी विमर्श को ट3कर नहीं दी जाएगी तब तक समाधान की अपेक्षा नहीं की जा सकती। अजय पंडिता का बलिदान यह स्पष्टता प्रदान करता है कि जब तक ‘पॉलिटिकल करेक्टनैस’ के आडंबर को त्याग कर हम जम्मू कश्मीर में इस्लामी आतंकवाद की समस्या पर एक ईमानदार चर्चा खड़ी नहीं करेंगे, तब तक न कश्मीरी हिंदू कभी वापस भेजे जा सकते हैं, न फौजियों के बलिदानों में कोई अंकुश लगेगा, न कश्मीर का युवा जेहाद की राह पर चलना बंद करेगा और ना ही राजनीतिक व आर्थिक विकास की राह पर जम्मू कश्मीर कभी आगे बढ़ेगा। यदि अब भी कश्मीर की वास्तविक स्थिति को हम न समझें, तो 15वीं शताब्दी में आरंभ हुए इस रेरंजित जेहाद में एक और ‘काफिर’ का बलिदान व्यर्थ ही जाएगा।

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