समाज के तर्कशून्य बर्ताव का रहस्य

यह सच है कि कोरोना वायरस संक्रमण के कालखंड में सबको ही क्षति पहुंची है। लेकिन मेरे जैसे व्यिे को इसी कालखंड में फुरसत के क्षण मिले। अत… मेरी आदत के अनुसार मैंने कुछ पुस्तकों को पढ़ने का प्रयास किया। उसमें सिग्मंड फ्रायड का ‘मानसशास्त्र’(मनोविज्ञान), विश्वास पाटील का ‘झुंडीचे मानसशास्त्र’ (भीड़ का मनोविज्ञान) जैसी किताबें पढ़ने का अवसर मिला। विश्वास पाटील का ‘झुंडीचे मानसशास्त्र’ जब मैं पढ़ रहा था तभी पालघर में भगवा वस्त्रधारी साधुओं की समाज के एक घटक ने पाशविक हत्या कर दी। समाज इतना पाशविक कैसे हो सकता है? यह प्रश्न इस घटना के बाद मुझे सताता रहा। उस समय मन में प्रश्न कचोटता है कि लोग इस तरह से निर्दोष साधुओं की नृशंस हत्या कैसे कर सकते हैं? सौ-सवा सौ लोगों को इस अपराध के लिए गिरफ्तार किया गया है। जिसे झुंड कहते हैं, उस झुंड में किसी के मन में इन साधुओं से हो रही मारपीट को रोकने का विचार क्यों नहीं आया? इस तरह के अनेक प्रश्न मन में भिनभिना रहे थे। उसी समय विश्वास पाटील की ‘झुंडीचे मानसशास्त्र’ का वाचन चल रहा था। यह पुस्तक पढ़ते समय मेरे मन में अपने यहां के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और विभिन्न क्षेत्रों में हो रहे स्पंदनों को लेकर जो विचार आए उन विचारों के इस पुस्तक से कुछ मात्रा में उत्तर मिले। उन विचारों को मैं यहां व्ये करने का प्रयास कर रहा हूं।

झुंड किसे कहते हैं? यूनान में इस शब्द का अच्छा विश्लेषण किया गया है। झुंड का मतलब है स्त्री का सिर, शेर की काया और भीमकाय पंखों वाला फिंक्स प्राणी। यह फिंक्स प्राणी हर आने-जाने वालों को प्रश्न पूछा करता था। प्रश्न का गलत उत्तर देने वाले को वह निगल लेता था। झुंड, भीड़ या समवाय भी फिंक्स की तरह प्रश्न पूछते हैं। उनकी पहेली हल कर दी तो शायद जान बच सकती है। लेकिन आपने कहीं उनके सवालों का गलत उत्तर दे दिया तो आप उनका भक्ष्य बने बिना नहीं रहेंगे।

झुंड समाज व्यवस्था अथवा तत्कालीन समस्याओं की ओर किस दृष्टि से देखता है, यह जिसे समझ में आ गया वह झुंड से अपना बचाव कर पाया। जो झुंड का मनोविज्ञान जान नहीं पाया, उसे झुंड निगले बिना नहीं रहेगा। और, जिसे झुंड का यह मनोविज्ञान समझ में आ गया वह झुंड को प्रेरणा दे सकता है। लेकिन वह उस झुंड पर नियंत्रण नहीं कर सकता।

भारत में विभिन्न स्थानों पर हो रही भीड़ या जनसमूह की घटनाओं की ओर यदि बारीकी से देखें और उन घटनाओं का विश्लेषण करें तो हमें यह दिखाई देगा कि झुंड को सम्बोधित कर उपयोग किए गए शब्द और उन शब्दों के भीड़ द्वारा लिए गए अर्थ इन दोनों में करीबी सम्बंध होता ही है ऐसा नहीं है। स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व, लोकतंत्र, साम्यवाद, समाजवाद, मेहनतकशों का राज्य जैसे शब्द पिछले अनेक दशकों से चलते सिक्को  की तरह चालाक नेताओं द्वारा प्रयुक्त शब्द हैं। अपने देश के या दुनियाभर के छोटे-मोटे नेता आते-जाते इन शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। श्रोता इन शब्दों के अर्थ मानो समझ गए हो इस तरह सिर हिलाते हैं और जिन प्रसंगों के लिए अथवा आंदोलन के लिए इन शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है उसे पूरा करने के लिए समाज के झुंड उत्साहपूर्वक आगे बढ़ते हैं। लेकिन स्वतंत्रता का माने क्या है? इतने वर्षों में समाज में क्या समता निर्माण हुई है? हम अपने दैनिक व्यवहारों में क्या वाकई  बंधुता का बर्ताव करते हैं? क्या राजनीतिक नेता मेहनतकशों का राज आने देंगे? इस तरह के अनेक प्रश्नों का विचार क्या हम करते हैं? इसका उत्तर केवल नहीं ही है। लेकिन एक बात सच है कि भीड़ का, झुंड का या समूह का अपने स्वार्थ के लिए किस तरह उपयोग किया जाए इसका तंत्र झुंड को नियंत्रित करने वाले धूर्त लोगों को पता होता है।

बहरहाल, एक बात सच है कि इन नेताओं द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों में प्रचंड जादू होती है। इन जादुई शब्दों का प्रभावी रूप से और उचित स्थान पर उपयोग करने पर वे उपयुे साबित होते हैं। ऐसे उपयुे शब्द जब झुंड के कान में पहुंचते हैं तब झुंड के बाजुओं में जोश भर जाता है। इस झुंड या जनसमूह को लगने लगता है कि उनके सारे दु…ख अब शीघ्र ही दूर होने वाले हैं। आज तक उस सामाजिक-राजनीतिक समस्या का यदि कोई प्रभावी इलाज है तो यही है। और फिर इस तरह के शब्दों का उच्चारण करने वालों के पीछे झुंड आंख मूंदकर जाने लगता है। आज तक का दुनिया का इतिहास इसी तरह के चमत्कारिक शब्दों के कारण घटता रहा है। आगे भी घटते रहेगा।

प्रभावी शब्दों की शिे के जरिए नेताओं के भव्य-दिव्य सपने झुंड के सामने उपस्थित किए जाते हैं। झुंड उनके सामने पूरी तरह नतमस्तक होता है। किसी दैवी और आसूरी चैतन्य की नशा उनकी नजर में चमकने लगती है। यह सच होने पर भी, कि ये सपने कभी प्रत्यक्ष में नहीं उतरेंगे, ये सब खोखले आश्वासन हैं, पूरी धोखाधड़ी है; झुंड उनके पीछे जाने लगता है। इन शब्दों का असली मμजा तो यही है। ये शब्द धोखाधड़ी होने के बावजूद सुनने वालों के मन पर बड़ी मात्रा में जादुई प्रभाव करते हैं। झुंड के मन पर सवार होने वालों को इन शब्दों का ऐतिहासिक अर्थ मालूम होगा ही, यह जरूरी नहीं है। प्रयुे किए गए शब्दों को झुंड किस अर्थ में लेगा इसे जान लेना ही काफी है। अंत में यह सच है कि झुंड को उत्तेजित करने वाली भाषा में बोलना आना चाहिए। ऐसा हो तो झुंड बोलने वालों के शब्दों पर फिदा होता है और बोलने वालों का अपेक्षित कार्य पूरा कर देता है।

भ्रामक और फर्जी कल्पनाओं पर भरोसा करना झुंड का महत्वपूर्ण लक्षण है। इतिहास से लेकर आज तक इसमें कोई अंतर नहीं आया है। झुंड हमेशा भ्रामक-फर्जी कल्पनाओं के पीछे भागता रहता है। हम यदि सोचें तो हमारे ध्यान में आएगा कि इस तरह की फर्जी कल्पनाओं को फैलाने वाले लोग झुंड में अधिक लोकप्रिय होते हैं। समय के साथ इन भ्रामक कल्पनाओं में परिवर्तन होता रहता है। कभी वह धार्मिक नारों का होता है, कभी वह राजनीतिक नारों का होता है, कभी वह सामाजिक अस्मिताओं के नारों का, तो कभी इतिहास और कभी इतिहास पुरुष के गौरव को पुनर्स्थापित करने का होता है।

पिछले अनेक वर्षों से इस तरह की भ्रामक कल्पनाओं के माध्यम से समाज का एक छोटा-सा तबका करोड़ों लोगों के समाज का नेतृत्व करते हुए दिखाई देता है। तब मन में यह विचार आता है कि अपने समाज में धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक स्वरूप के भ्रम क्या जरूरी होते हैं? जब समाज से इस तरह के भ्रम खत्म होंगे तब समाज का आम आदमी क्या परेशान हो जाएगा? इस समाज को क्या अपने भविष्य की चिंता सताने लगेगी? क्योंकि, मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब समाज से बौद्धिक भ्रम नष्ट होते हैं तब समाज का यथार्थ, सत्य के रूप में समाज के सामने उपस्थित होता है। मनोवैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि इस तरह उत्पन्न किए गए बौद्धिक भ्रम प्रत्यक्ष यथार्थ और समाज में एक तरह का परदा निर्माण करने का काम करते हैं। यथार्थ जैसा है वैसा देखना अत्यंत कठिन होता है। ऐसा यथार्थ किसी की कोई परवाह नहीं करता। अपना समाज जीने के लिए रोज ईश्वर की प्रार्थना करता है। इसी तरह अपने दैनंदिन जीवन के दु…ख भूलने या उन दु…खों को विस्मृत करने के लिए जनता को ही उसी तरह के भ्रम चाहिए होते हैं। जनता अपने समक्ष दु…खों को अनेदखी कर विभिन्न बौद्धिक भ्रमों के पीछे भागते होती है। इस तरह के बौद्धिक भ्रमों के लिए जनता ही आतुर होती है। जनता इस तरह के भ्रमों के बिना जिंदा नहीं रह सकती। जनता की इस आतुरता के कारण ही समाज के विभिन्न घटकों का नेतृत्व करने वाले नेताओं की हमेशा बन आती है। जनता में ऐसे नेता फरेबी भ्रम फैलाते हैं।

झुंड को सत्य का कभी आकर्षण नहीं होता। किसी छद्म उद्देश्य से निर्माण की गई फरेबी बात के लिए भी झुंड जान देने में आगेपीछे नहीं देखता। मनुष्य भी भविष्य की प्रगति की स्वतंत्रता और समता का राज्य, विभिन्न जातियों और अस्मिताओं के उत्कर्ष के सपने, विभिन्न धार्मिक समूहों के सम्मान की रक्षा का आश्वासन जैसे सपने मनुष्य की आत्मिक जरूरत होती है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए उस तरह के नेता खोजने का कार्य जनता अपने समाज से करती रहती है। इस तरह का समाज राष्ट्र के विकास, उसके सामाजिक विकास तथा धार्मिक विकास की वास्तविकता की अपेक्षा अवास्तविकता को अधिक महत्व देने लगता हे। समाज की इन विशिष्ट आदतों से यह निष्कर्ष निकलता है कि समाज को भ्रामक कल्पनाओं की जरूरत होती है। जो कोई इस तरह की भ्रामक कल्पनाओं की मांग पूरी करता है उसके पीछे सारा समाज अपना सबकुछ दांव पर लगा देता है। समाज के ऐसे वर्गों को झुंड कहते हैं। झुंड विचारों की भाषा नहीं समझता। झुंड शुद्र मनोविकारों की भाषा समझता है। झुंड क्यों बेचैन हो सकता है? किन कारणों से झुंड बेचैन हुआ है। फिर जिन कारणों के लिए झुंड बेचैन हुआ है उन कारणों पर बल देने का प्रयास झुंड का नेतृत्व करने वाले तथाकथित नेता करते हैं और, झुंड की भावनाओं से सहमत होने का आभास निर्माण करते हैं। बड़ा-चौड़ा किंतु सूचक बयान देकर आग में घी डालने का काम करते हैं। झुंड की भावनाएं और उत्तेजित होती हैं। इस  तरह झुंड का नेतृत्व करने वाला नेता अपने विचारों की दिशा पकड़ लेता है। क्योंकि, झुंड के श्रोताओं को विचारों की दिशा नहीं होती। समाज में व्यिेयों का समूह जब बड़ी संख्या में एकत्र होता है तब उसकी बौद्धिकता में बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाता है। अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए उन्हें ऐसे समय में बहुत कुशाग्र बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती। भीड़ या झुंड द्वारा किए गए संघर्ष हमेशा भावनात्मक होते हैं। भीड़ या झुंड की मानसिकता के बारे में मनोवैज्ञानिकों की यही राय है।

जिस तरह से पालघर जैसी निंदनीय घटनाएं समाज में होती हैं तब हमारे मन को कचोटने वाली अनेक घटनाएं समाज में राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक क्षेत्र में नित्य होती रहती हैं। उन घटनाओं से हम सुन्न हो जाते हैं।

अब प्रश्न यह है कि झुंड वैचारिक रूप से विचार नहीं करते, वे भावनाओं में आकर विचार करते हैं, यह बात अच्छी है या बुरी? इस बारे में मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस प्रश्न का निश्चित उत्तर नहीं दिया जा सकता। संस्कृति, राजनीति, सामाजिक तथा धार्मिक या अन्य विभिन्न विषयों को आगे बढ़ाने के लिए भ्रामक सपनों और कल्पनाओं की अब तक मदद मिली है। झुंड यदि तर्कपूर्ण विचार करने लगे तो उनमें कभी भी भावनात्मकता जागृत नहीं होगी। यह भी कहा जाता है कि जो भ्रामक कल्पनाएं समाज अपने हृदय में पालते रहता है वे भ्रामक कल्पनाएं उसकी आत्मा की आवश्यकता होती है। इस तरह की विभिन्न कल्पनाएं उसके आविष्कार का एक हिस्सा हो सकती हैं। यह भी कहा जाता है कि प्रत्येक  राष्ट्र की मानसिक व सामाजिक रचना में उसके विकास की भविष्य की गति व नियम छिपे होते हैं। कभी-कभी समाज जब बुद्धि से परे व्यवहार करता है तब समाज के बेतुके या तर्कशून्य बर्ताव के रहस्य में निरंतर प्रवाही होने वाले विभिन्न प्रकार के समाज घटकों को गति देने वाला नियम छिपा होगा। उसे खोजने का हमें प्रयास करना चाहिए। ऐसा कहा जाता है कि मानव जाति का नियंत्रण व नियमन करते समय केवल विचार शक्ति को ही महत्व दिया जाना चाहिए, इसे मानने का कोई कारण नहीं है। वैसी जिद भी नहीं होनी चाहिए। संस्कृति के उद्गम व विकास में इन भ्रामक भावनाओं का कुछ योगदान भी हो सकता है। भावनाओं का उद्गम केवल विचार शक्ति से ही होता है, ऐसा कोई नहीं कहेगा। हम यदि शांति से विचार करें तो हमें ध्यान में आएगा कि कई बार विचार शक्ति की सलाह न मानने से भावनाएं प्रकट हुई हैं।

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