अच्छे समाज के दो पहलू गुरू और शिष्य

हिंदू संस्कृति और परंपरा में गुरू संकल्पना का अनन्यसाधारण महत्त्व है। आध्यात्मिक साधना करने वाले साधकों को गुरू की महिमा पूर्णत: ज्ञात होती है। इस विषय में यह भी कहा जाता है कि, गुरू की ओर मनुष्यबुद्धि से नहीं देखना चाहिए, गुरू ही साक्षात परब्रह्म होता है, इसी भावना से उनकी सेवा करनी चाहिए और आज्ञापालन करना चाहिए। हम पाते हैं कि अधिकांश गुरू मानवीय रूप में ही होते हैं। इसके कुछ अपवाद भी होते हैं। सिख बंधु अपनेे धर्मग्रंथ ‘गुरू ग्रंथ साहिब’ को ही अपना गुरू मानते हैं और इसी प्रकार विश्व का सबसे बड़ा संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भगवा ध्वज को अपना गुरू मानता है। इसे हम प्रतीक रूप गुरू कह सकते हैं।

परमार्थ मार्ग में ऐसा भी माना जाता है कि, हमने भगवान की भक्ति, साधना और तप कितना ही क्यों न किया हो, गुरू की दीक्षा लिए बिना परमार्थ का परमरहस्य ज्ञात नहीं हो सकता है ऐसी आस्था सभी में पाई जाती है। गुरु को मातापिता का दर्जा दिया गया है। गुरू से जब दीक्षा मिलती है तब अपना नया जन्म ही हो जाता है।

विद्यमान कालखंड में ऐसा गुरू मिलना असंभव हो सकता है ऐसा जानकर ही शायद प्रतीकों को गुरू के रूप में स्वीकृत करना आरंभ हुआ होगा। अगर हम ऐसे प्रतीकों को गुरू मान लेते हैं तो उनका अर्थ समझने हेतु योग्यता का भावनात्मक स्तर आवश्यक होता है। आज समाज में जो मूल्यात्मक और गुणात्मक अध:पतन दिखाई देता है उसका एकमात्र कारण प्रतीकों के अर्थ को हमारे द्वारा अनदेखा करना है। सभी हिंदू घरों में प्राय: स्वस्तिक अथवा ॐ का चिह्न हम देख पाते हैं। लेकिन दुर्भाग्यवश उसका मंगलमय और कल्याणकारी अर्थ हम जान नहीं पाते हैं और अपने जीवन में शुचिता और नैतिक मूल्यों का आग्रह नहीं रखते हैं।

समूहमानस पर संस्कार करने हेतु अपने पूर्वजों ने इन प्रतीकों को उपयोग में लाया था। लेकिन हमारा उस ओर ध्यान नहीं है। जिन बातों का अर्थ हम नहीं लगा सकते वे सारी बातें हमारे लिए निरर्थक बन जाती हैं।

मध्ययुगीन काल से गुरू परंपरा एक संस्था के रूप में प्रचलित हो गई है। उसे प्रचलित करने में संतों का योगदान विलक्षण है। आज समाज मानस में गुरु परंपरा को जो ऊंचा स्थान मिला है वह वस्तुत: इन संतों के कारण ही बना है। संस्कृत साहित्य तथा संतसाहित्य में गुरू का गौरव किया गया है। अगर गुरू नहीं होगा तो ज्ञान का अंजन शिष्य के नेत्रों में कौन लगाएगा? ज्ञान के तेजोमय प्रकाश की ओर कौन ले जाएगा?

आचार्य को गुरू ही कहा जाता है। केवल किसी विषय के ज्ञान के कारण उसे गुरू नहीं कहा जा सकता है। अपना ज्ञान शिष्य में संक्रमित करने में जो सफल होता है वही असली मायने में गुरू कहलाता है। किसी आचार्य को अपरंपार ज्ञान होता है तो किसी के पास उत्तम अध्यापन कौशल होता है। मगर ये दोनों चीजें जिस के पास है वही आचार्यश्रेष्ठ है, ऐसा कवि कुलगुरू कालिदास ने अपने ‘मालविकाग्निमित्रम्’ नाटक में कहा है। ऐसे श्रेष्ठ आचार्य ही अपने शिष्यों के जीवन को अच्छी दिशा प्रदान कर सकते हैं। ज्ञानदीप जलाकर उसके जीवन में उजाला ला सकते हैं। इस उजाले से ना केवल उस एक मनुष्य का जीवन संवर जाता है बल्कि समाज के लिए भी वह एक दीपस्तंभ बन सकता है। गुरू तो गुरू होता है! वह ‘यह बुद्धिमान है’ और ‘यह मंदबुद्धि है’ ऐसा भेदभाव शिष्यों में नहीं करता है। मगर सभी विद्यार्थियों को विद्याध्यन का समान फल नहीं मिलता है। इस में गुरू का नहीं मगर शिष्य का ही दोष होता है। शिष्य की ग्रहण शक्ति जितनी होती है उतना ही वह ले पाता है। कवि भवभूति अपने ‘उत्तररामचरितम्’ नाटक में कहते हैं कि, ‘जिन रत्नों को पत्थर पर रगड़ा नहीं जाता है उनको राजमुकुट में स्थान नहीं मिल पाता है। उसी तरह गुरू की कठोर कसौटियों में उत्तीर्ण होने पर प्रसंगवशात् आलोचना भी सहन करने पर ही शिष्य का विद्यातेज निखर उठता है!’

आधुनिक शैली को देखते हुए हम ऐसा कह सकते हैं कि, शिष्य का वित्त हरण करनेवाले गुरू अनेक मिलते हैं, मगर शिष्य का चित्त हरण करने वाले गुरू दुर्लभ हैं।

एक रचना में कवि कहता है – ‘ज्ञान का शूल मारा गुरू ने, छुरी नहीं मारी कटारी नहीं मारी!’ शिष्य के मन में जो अविद्या का अंधःकार था वह गुरू द्वारा ज्ञान का शूल मारने से नष्ट हो गया है, ऐसा इस रचना का अर्थ है। इस तरह से गुरू को शिष्य के चित्त में स्थान प्राप्त करना आवश्यक होता है। इसीलिए तैत्तिरीय उपनिषद में ‘आचार्यदेवो भव’ कहा गया है। गुरू की ओर देखने का हमारा दृष्टिकोण अत्यंत आदर्शवादी है। गुरू ज्ञानदान का पवित्रतम कार्य करता है। यह अत्यंत श्रेष्ठ कार्य है। नई पीढ़ी को सुसंस्कारित करने, उसका मार्गदर्शन करने का दायित्व गुरुजनों पर ही होता है। समाज की गुरुजनों से बड़ी अपेक्षाएं होती हैं। इसीलिए समाज में उनका सम्मान किया जाता है। उनके ज्ञान और मौलिक कार्य के कारण गुरुजनों को समाज में प्रतिष्ठा प्रापत होती है। इस तरह से समाज में उच्च स्थान विभूषित करने वाले गुरू को अपने विशुद्ध आचरण पर ही बल देना आवश्यक होता है। पुत्र अपने मातापिता का और शिष्य अपने गुरुजनों का ही अनुकरण करता है।

गुरू केवल आध्यात्मिक क्षेत्र तक ही सीमित नहीं है। हर क्षेत्र में गुरू होते हैं। फिर वह क्षेत्र संगीतकला का हो, नृत्यकला का हो अथवा गायनकला का हो, अभिनयकला का हो अथवा अन्य किसी भी कला का हो!
शिष्य को उत्तम आचरण से अपने गुरू के मन में अपना विशेष स्थान बना लेना आवश्यक होता है। यह स्थान सेवाभाव और गुरु की आज्ञापालन से बनता है। अगर गुरू शिष्य पर प्रसन्न होता है तो अपना पूरा विद्यादान वह उत्तम शिष्य को कर सकता है। इसलिए गुरू के घर पर रह कर विद्या संपादन करना चाहिए, ऐसी गुरुकुल परंपरा अपनी संस्कृति में स्थापित की गई थी।

आज गुरुकुल की जगह स्कूल बन गए हैं और गुरू-शिष्य नाता दुर्लभ हो गया है। लोग नौकरी की तरह गुरू का पेशा अपनाते हैं और जीवनयापन के एक साधनमात्र के रूप में उस पेशे को निभाते हैं। इसलिए उनकी कोई प्रतिबद्धता होती भी है तो जिस संस्था से उनको वेतन मिलता है उसके साथ ही! शिष्यों से प्रतिबद्धता रखनेवाले गुरू अब दुर्लभ हो गए हैं। अब मातापिता को ही अपनी संतानों की शिक्षा पर विशेष ध्यान देना होता है। वे भी उतना ध्यान कहां दे पाते हैं। आज कई घरों में माता और पिता दोनों नौकरी करते हैं। दादा-दादी अलग गांव में रहते हैं। हमें यह सोचना है कि क्या हम अपने बच्चों के साथ सचमुच होते हैं और क्या हमारे बच्चे सचमुच हमारे साथ होते हैं? यह साथ होने का मात्र भ्रम बन गया है। जब हम नौकरी हेतु बाहर रहते हैं तब भी और जब घर के अंदर रहते हैं तब भी हम साथ नहीं हो सकते हैं। हम घर में रहकर विभिन्न घरेलू कामकाज करते हैं। खाना खाते हैं, टेलिवीजन देखते हैं। बच्चे कॉमिक पढ़ते हैं अथवा मोबाइल पर गेम खेलते रहते हैं, पढ़ाई भी करते हैं। लेकिन जो गुरुकुल था, जिसमें सदैव गुरू अपने शिष्यों के साथ रहते थे, वह सब कुछ बदल चुका है। आज जब हम गुरु महिमा का गुणगान करते हैं तब वह एक ऐसा आदर्श है कि जहां तक हमें वापस पहुंचना है ऐसी भावना हमारे मन में निर्माण होना आवश्यक है। यह भावना न केवल शिष्यों के लिए आवश्यक है बल्कि गुरू के लिए भी यह भावना आवश्यक बन गई है।
सिक्के के दो पहलू होते हैं। समाज हम सिक्का मानें तो उसका एक पहलू गुरू तथा दूसरा पहलू शिष्य है।

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