वो समय हीअलग था…प्यारेलाल

वह समय ही अलग था। हमारी अन्य संगीतकारों के साथ प्रतियोगिता नहीं थी ऐसा मैं नहीं कहूंगा और किसी को भी नहीं कहना चाहिए। परंतु तब मन में कटुता नहीं थी। दूसरों के गानों को दबाने का या हिट ना होने देना का प्रयत्न नहीं किया जाता था। प्रत्येक संगीतकार को इण्डस्ट्री मेंे सफल होना है।

हिंदी फिल्मों के संगीतकारों में राहुल देव बर्मन और लक्ष्मीकांत प्यारेलाल मुझे बहुत पसंद हैं और मेरे नजदीक भी हैं। हिंदी फिल्मों के संगीत पर इन दोनों का दबदबा रहा। लक्ष्मीकांत -प्यारेलाल ने हमेशा ही आम आदमी की पसंद का ध्यान रखा। ऐसी धुनों को बनाना उनकी विषेशता रही जिसे आम आदमी आराम से गुनगुना सके। पहले बांद्रा के मेहबूब रेकार्डिंग स्टूडियो में जब इस जोड़ी के गानों की रेकॉर्डिंग होती थी तब लक्ष्मीकांत जी से मिलना होता था। गप्पें लड़ाने के शौकीन होने के कारण हम दोनों में बहुत जमती थी। कई बार उनके पारसमणी बंगले पर भी साक्षात्कार का मौका मिला। उनमें से कई लोकप्रिय गीतों की जन्मकथाएं सुनने मिलती थीं। लक्ष्मीकांत शांताराम कुडालकर का साठ वर्ष की आयु में निधन हो गया। उसके बाद प्यारेलाल रामप्रसाद शर्मा ने अपने कार्य की गति अत्यंत कम कर दी। उसके बाद से तो किसी संगीत कार्यक्रम, पार्टी या इवेन्ट में ही उनसे मुलाकात होती है। इस बार भी ऐसी ही मुलाकात हुई और फिल्मी संगीत पर उनसे चर्चा हुई।

उन्होंने कहा, ‘लक्ष्मीकांत के जाने के बाद तो जैसे मेरे संगीत का सुर ही चला गया। ३५ साल तक एकसाथ काम करने के बाद अगर कोई सहयोगी साथ छोड़कर चला जाये तो संगीत जैसी सृजनात्मक बात में मन कैसे लगेगा ? वैसे भी फिल्मों में कई वर्षों तक काम करने के बाद और विशेषत : नई पीढ़ी के आने के बाद से मैंने भी अलग होने का मन बना लिया। यह स्वाभाविक भी होता है और आवश्यक भी। न मुझे इससे कोई शिकायत है और न ही मैं असंतुष्टे हूं। जब फिल्मी संगीत पर ध्यान देने की आवश्यकता थी तो मैंनै बहुत ध्यान दिया। हम दोनों ने अपने काम का बेहद लुत्फ उठाया। जब तक आप आनंदित नहीं होंगे तब तक दूसरों को नहीं दे सकते यह हमारी भावना थी। फिर भी यह कहना चाहूंगा कि संगीत हो या अन्य कोई कला प्रकार हो, हम तय करके अच्छा या बुरा नहीं कर सकते। हमें अपने काम करते रहना होता है। ’

प्यारेभाई से बात करते समय साठ -सत्तर के दशक से अभी के संगीत की तुलना होना स्वाभाविक था। मितभाषी प्यारे भाई इस विषय पर भी बहुत खुल कर नहीं बोले। वे बोले ‘सभी कला प्रकारों के साथ ही जीवनशैली में भी बहुत परिवर्तन हुआ है अत : फिल्मी संगीत में भी बदलाव आए हैं। आज का फिल्मी संगीत पसंद करनेवाला युवा वर्ग भी है। वे इस संगीत को पसंद करते हैं। हम उनकी पसंद नापसंद पर सवाल क्यों उठाएं ? हो सकता है उनमें से भी कोई अच्छा मुखड़ा या अच्छी धुन निकल आए। मुझे लगता है हमें हमेशा आशावादी होना चाहिये। मैंने और लक्ष्मीकांत ने जब इंडस्ट्री में कदम रखा तब हमारी क्षमता और दर्जेपर भी लोगों ने शंका व्यक्त की होगी। हर समय में ऐसा होता ही है। जब हमारे सामने ऐसा समय आया तो हमने भी उचित कार्य करने का प्रयत्न किया। कभी हमें सफलता मिली तो कभी असफलता। हम इस अहंकार में कभी नहीं रहे कि हमारा हर काम दर्जेदार था। बस हमें फिल्में मिलती गईं और हम काम करते गए।

लक्ष्मीकांत -प्यारेलाल ने पारसमणी फिल्म से संगीकार के रूप में अपनी यात्रा प्रारंभ की और कुछ ही सालों में इस जोड़ी ने अपना नाम और स्थान निर्माण किया। उनकी इस यात्रा के बारे में जानने के लिए मैं भी उत्सुक था।

उन्होंने कहा, ‘बड़ी लंबी यात्रा है, इतने कम समय में कैसे बताऊं ? पारसमणी, दोस्ती, मिलन, उपहार, बॉबी, दाग, अमर अकबर एन्थोनी, खिलौना, जीने की राह, अपनापन, रोटी, आशा, दुश्मन, रोटी, कपड़ा और मकान, अनुरोध, सत्यम्, शिवम् सुंदरम्, एक दूजे के लिये, तेजाब, राम लखन और कितने नाम लूं ? उन दिनों में लगभग रोज ही हमारी रिकॉर्डिंग होती थी। जैसे -जैसे उस समय के श्रोताओं को हमारे गीत पसंद आते गए वैसे -वैसे हम आगे बढ़ते गए। केवल गीतों की गुणवत्ता के आधार पर हम सफल हो रहे थे। हमें किसी भी प्रकार की न मार्केटिंग करनी पड़ी, न ही कोई फंडे चलाने पड़े। तब उसकी जरूरत भी नहीं होती थी। फिेल्मों के प्रदर्शन के कुछ दिन पहले ही गाने बाजार में आते थे। आकाशवाणी, विविध भारती, रेडियो सिलोन आदि के माध्यम से लोगों ने वह सुना। रेडियो सिलोन का बिनाका गीतमाला कार्यक्रम बहुत ही लोकप्रिय था। पहले रेडियो और लाउडस्पीकर ही फिल्मी गीतों को लोकप्रिय करने केे साधन थे। इसके कई दिनों के बाद दूरदर्शन आया और उसका भी ‘छायागीत ’ नामक कार्यर्कम बहुत लोकप्रिय रहा। इनके माध्यम से जब किसी गाने के कारण उत्सुकता बढ़ती थी तो फिल्मों के लिए भी कौतुहल निर्माण हो जाता था। वह समय ही अलग था। हमारी अन्य संगीतकारों के साथ प्रतियोगिता नहीं थी ऐसा मैं नहीं कहूंगा और किसी को भी नहीं कहना चाहिए। परंतु तब मन में कटुता नहीं थी। दूसरों के गानों को दबाने का या हिट ना होने देना का प्रयत्न नहीं किया जाता था। प्रत्येक संगीतकार को यहां सफल होना है। हमारा सभी संगीतकारों से अच्छा संबंध था। ’

इस जोड़ी के विपुल संगीत खजाने में से उनका पसंदीदा गाना कौन सा है यह सवाल अनायास ही आ जाता है। इस पर प्यारेभाई कहते हैं ‘कोई एक गीत कैसे चुन सकता हूं ? अगर एक बताना भी है तो उसका कोई जबरदस्त कारण भी होना चाहिए। राजपूत से लेकर कर्मा तक और राम लखन से लेकर भैरवी तक अनेक फिल्मों में हमने संगीत दिया है। उसमें से कोई एक गाना चुनना कठिन है। उस जमाने में वी . शांताराम, राज कपूर, बी . आर . चोपडा, राज खोसला, विजय आनंद, मनमोहन देसाई, मनोज कुमार, यश चोपडा, जे . ओम प्रकाश, एल .वी . प्रसाद, मोहनकुमार, शक्ति सामंत, प्रमोद चक्रवर्ती, सुभाष घई, एन . चन्द्रा जैसे कई लोगों के साथ काम करने का हमें मौका मिला। तब पहले गाने का जन्म होता था। रचना तयार होती थी और फिर उसे संगीत दिया जाता था। एक -एक गाने के लिए हम लोग कई बार बैठते थे। चर्चाएं होती थीं। नए -नए मुखड़े तैयार होते थे। कई धुनें बनती थीं और फिर एक गाना बनता था। उसके बाद ऑर्केस्ट्रा तय होता था। अब किसी एक गाने को पसंद करना बहुत कठिन है। हमारे द्वारा तैयार किए गऐ गाने को जब निर्देशक परदे पर उतारता है तब उसमें दृष्टि सौंदर्य उत्पन्न होता है। अत : गानों का श्रेय उन्हें भी देना आवश्यक है। मैं हिंदी फिल्म इंडस्ट्री का इस प्रकार से सर्वांगीण विचार करता हूं। अत : कोई एक गाना चुनना मेरे लिए मुश्किल होगा। मुझे हमारे सभी गीत पसंद हैं।

प्यारेभाई के पास बातों का, यादों का खजाना था परंतु यह हमारी यह मुलाकात बहुत छोटी सी थी। परंतु उसमें भी उन्होंने बहुत कुछ बताया। बड़े लोगों की यही खासियत होती है। वे कम शब्दों में बहुत कुछ बता देते हैं।

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