ऑर्गेनिक खेती से होगा स्वस्थ व समृद्ध महाराष्ट्र

सिक्किम की तर्ज पर महाराष्ट्र में भी ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए देशी गोवंश का संरक्षण, संवर्धन, गोचरभूमि को विकसित करने जैसे अन्य महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने चाहिए। तभी महाराष्ट्र निरोगी स्वस्थ एवं समृद्ध हो सकेगा। इससे पर्यावरण की रक्षा व प्रदूषण कम करने में भी मदद मिलेगी।

पूरी दुनिया में सिक्किम ऐसा एकमात्र राज्य है जहां पर कोरोना संक्रमण का एक भी मामला सामने नहीं आया। देसी गाय के गोबर से ऑर्गेनिक खेती करने वाला दुनिया में सिक्किम एकमात्र राज्य है। वैज्ञानिक शोध में पाया गया है कि जिस घर को देसी गाय के गोबर से लीपापोता जाता है उस घर के आसपास एक सुरक्षा कवच बन जाता है। वहां पर कोरोना वायरस तो क्या परमाणु हमला होने पर भी कोई नुकसान नहीं पहुंच सकता। सिक्किम राज्य की तर्ज पर महाराष्ट्र में भी ऑर्गेनिक खेती को बढ़ावा देने के लिए देशी गोवंश का संरक्षण, संवर्धन, गोचरभूमि को विकसित करने जैसे अन्य महत्वपूर्ण कदम उठाए जाने चाहिए। तभी महाराष्ट्र निरोगी स्वस्थ एवं समृद्ध हो सकेगा। इससे पर्यावरण की रक्षा व प्रदूषण कम करने में भी मदद मिलेगी।
महाराष्ट्र पशुपालन नियमन बोर्ड (पुणे) के पास 525 पांजरापोल गौशाला पंजीकृत हैं। हमने एक सर्वे किया जिसमें महाराष्ट्र के लगभग 900 के करीब पांजरापोल गौशालाओं का डाटा हमें मिला। इसके अलावा हमने कई जिलों में सैंपल सर्वे भी किया। कुल मिलाकर 260 गौशालाओं का सर्वेक्षण हमने अलग से भी किया है। जिससे पता चला कि गौशालाओं एवं संस्थाओं की क्या – क्या आवश्यकताएं हैं। महाराष्ट्र में कुल दूध उत्पादन की अपेक्षा यहां पर पांजरापोल गौशालाएं बहुत ही कम हैं। जैसे राजस्थान में 227 पांजरापोल गोशालाएं हैं। महाराष्ट्र में तो इससे भी बहुत बड़ी संख्या में गौशालाएं होनी चाहिए। क्योंकि महाराष्ट्र में दूध का उत्पादन बहुत ही ज्यादा होता है।

महाराष्ट्र में दूध का व्यवसाय बहुत ही फलाफूला है और यह मुनाफे का धंधा है। दूध का उत्पादन सर्वाधिक तभी होता है जब गाय बछड़ा या बछड़ी को जन्म देती है। बछड़ी का जन्म होने पर गोपालक उसे पाल लेता है लेकिन बछड़े का जन्म होने पर उसे सड़कों पर छोड़ दिया जाता है। जिसे आवारा पशु कहते हैं। या उसे कत्लखानों में भेज देते हैं अथवा गौशाला को दे देते हैं। गुजरात, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान की तुलना में महाराष्ट्र के गौशालाओं की व्यवस्थाएं बेहद कम और अपर्याप्त हैं। उसे सही नियोजन के साथ व्यवस्थित करना पड़ेगा क्योंकि ऑर्गेनिक खेती की जो बुनियाद है वह पशुधन ही है। यदि कोई दूध दे या ना दे लेकिन वह गोबर तो देता ही देता है और वह भी कौन सा पशु तो देसी पशु। महाराष्ट्र में तीन देसी गाय ऐसी हैं जो बेहद अच्छी मानी जाती हैं। बैल तो इतने मजबूत होते हैं कि वह 500 – 500 किलोमीटर दूर तक माल पहुंचाते हैं।

गाय को हम केवल दूध के नजरिए से ही देखते हैं, जो हमारी गलत धारणा है। कोई गाय 3 लीटर दूध देती है तो कोई गाय 10 लीटर दूध देती है। हमें 10 लीटर दूध देने वाली गाय इसलिए पसंद है क्योंकि वह ज्यादा दूध देती है लेकिन इस तरफ किसी का भी ध्यान नहीं जाता है कि ज्यादा दूध देने वाली गाय खाती भी तो ज्यादा है। 10 लीटर दूध देने वाली गाय 30 किलो चारा खाती है और 3 लीटर दूध देने वाली गाय 10 किलो से कम चारा खाती है। इसलिए दूध का लाभ लगभग दोनों तरह की गायों से समान ही होता है।

जर्सी और अन्य विदेशी गायों की बात करें तो वह दूध है जो पीने लायक बिल्कुल ही नहीं है। उसे तो हाथ भी नहीं लगाना चाहिए। हमारे दूध व्यवसायी ज्यादा उत्पादन और पैसों के लालच में क्वालिटी के बारे में सोचते ही नहीं हैं। हमारे गलत खानपान के कारण ही अनेक प्रकार की बीमारियां हमें होती हैं। महाराष्ट्र सरकार, सांसद, विधायक एवं यहां की जनता से मेरी यह मांग है कि केवल उस दूध का ही उत्पादन किया जाए, जो स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभदायक है। विदेशी गाय के दूध पर पूर्णत: प्रतिबंध लगाया जाए क्योंकि यह एक धीमा जहर है जो हमारे शरीर में जाकर अनेक प्रकार की बीमारियों का कारण बनता है। हमें विदेशों से विशेष गाय लेने की कोई जरूरत नहीं है जो ज्यादा दूध देती है। ना हमें आर्टिफिशियल इंफॉर्मेशन कराने की आवश्यकता है। हमारे देशी बैल – सांड बेहद अच्छे व मजबूत हैं। गोवंश, गौशाला और दूध उत्पादन के क्षेत्र में उचित कदम उठाने से क्वालिटी दूध की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता हो जाएगी और हमारे स्वास्थ्य में परिणामदायक सुधार हो जाएंगे। उसके गोबर से सहजतापूर्वक ऑर्गेनिक खेती की जा सकेगी।

किसानों को ऑर्गेनिक खाद चाहिए। इसके लिए महाराष्ट्र में हर गांव में गोचर भूमि है। महाराष्ट्र में 900 गौशालाओं से 44 हजार तक पहुंचाना तो मुश्किल कार्य है लेकिन 44 हजार गावों के गायरानों को सही तरीके से विकसित करना सुलभ है। यह कार्य आप मनरेगा और ग्राम विकास योजनाओं के तहत भी करा सकते हैं। हर गांव की गोचर भूमि विकसित हो जाए तो उस गांव में पशुपालन करना आसान हो जाएगा। पशुपालकों, किसानों व ग्रामीणों को पशुओं के चारा पानी की व्यवस्था स्वत: ही हो जाएगी। इससे लोगों का चारा – पानी का खर्चा तथा श्रम व समय भी बचेगा। दूध के उत्पादन से गांव आत्मनिर्भर बन जाए और गोबर से उस गांव में पूर्ण ऑर्गेनिक खेती शुरू हो जाए। इससे बढ़िया काम तो हो ही नहीं सकता। कम खर्च में गांवों व ग्रामीणों को स्वावलंबी व सशक्त बनाने का यह आसान उपाय है।

गौशालाओं को सब्सिडी की बात करते हैं तो एक बात हमेशा अधिकारियों के मन में आती है कि जो गाय दूध नहीं देती है तो उसे क्यों सब्सिडी दे। यह बिल्कुल ही गलत बात है। जब कभी पशुओं एवं गौशालाओं को सब्सिडी देते हैं तो हम सीधे किसानों को ही लाभ दे रहे हैं। जिन पशुओं के चारे के लिए हम पैसा दे रहे हैं वह चारा खाकर ही पशु गोबर देगा और यह गोबर किसान के लिए ही काम आनेवाला है। इसलिए गौशालाओं को सब्सिडी देने का मतलब सीधे – सीधे किसानों को देने जैसा है। गौशालाओं को कह दें कि आप पूरी ताकत से पशुधन को संभालें और जो भी आवश्यक सब्सिडी होगी हम जरूर देंगे। इस संबंध में सरकार को 50-100 रु. प्रति पशु सब्सिडी देनी चाहिए और जो गोबर मिले उसे किसानों तक पहुंचाया जाए तो आगामी 5 वर्ष में ही पूरा महाराष्ट्र ऑर्गेनिक हो जाएगा।

कोरोना जैसी महामारी से बचने के लिए ऑर्गेनिक खेती ही एकमात्र उपाय है। ऑर्गेनिक खेती करनी है तो हमें देसी गाय और देशी पशुओं को बढ़ावा देना होगा। देशी पशुओं को बढ़ाना है तो गोचर भूमि को विकसित करना पड़ेगा और गोचर भूमि को बढ़ावा देना है तो गांव – गांव के गोचर भूमि की सुरक्षा व स्वच्छता करनी पड़ेगी। गोचर भूमि को विकसित करने के लिए सर्वप्रथम उस भूमि की रक्षा हेतु सीमा बनाई जाए। पशुओं के चारापानी के लिए देशी वृक्षारोपण किया जाए और तालाब एवं नाले बनाकर पानी की उचित व्यवस्था की जाए।

कुछ समय पूर्व झारखंड के एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपना फैसला दिया था कि किसी भी हाल में गोचर भूमि का दुरुपयोग ना किया जाए। इस संबंध में दिशा निर्देश दिए थे।

यदि हर गांव की गोचर भूमि शुद्ध हो जाए तो आसानी से ग्रामीण पशुपालन कर पाएंगे। खेती कर पाएंगे और अपने परिवार के भरण-पोषण के साथ ही बेहतर तरीके से जीवनयापन कर पाएंगे। इससे गांवों से पलायन का संकट भी खत्म हो जाएगा।
जिन – जिन पांजरपोल गौशालाओं के पास एटीजी नहीं है, रजिस्ट्रेशन नहीं है उनका वह किया जाए। इस कार्य को करने के लिए जिला अधिकारियों की सकारात्मक भूमिका की बहुत आवश्यकता है, जबकि जिला अधिकारियों को यह जिम्मेदारी दी गई है। यहां तक की इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी दिशानिर्देश जारी किए गए हैं लेकिन कई जगहों पर मैं देखता हूं कि बीएसपीसीए और स्टेट एनिमल वेलफेयर बोर्ड सक्रिय नहीं है। महाराष्ट्र सरकार को इस दिशा में भी ठोस कदम उठाना होगा ताकि महाराष्ट्र के अमूल्य पशुधन को बचाया जा सके।
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