सुभाष अवचट: भगवा रंग के कुण्ड में कूद पड़ने की नियति

नाम: सुभाष अवचट  पेशा: चित्रकारी और लेखन।  रिहाइश: पुणे, मुम्बई, कहीं भी, कहीं नहीं।  उम्र: क्या करना जानकर?
जब सुभाष (अवचट) से पहली बार परिचय हुआ तो वह बड़ा बेफिक्रा, बिन्दास और खुले मन का इनसान लगा। कहीं से भी वह चित्रकार नहीं लगता था। पर पूरा फ्लैट उसके चित्रों से भरा हुआ था इसलिए उसके चित्रकार होने से इनकार भी नहीं किया जा सकता था। दीवारों पर, जमीन पर बिछे और दीवार की ओट लगाये कैनवस, बाल्कनी में भी और यहां तक कि किचन में भी। फलत: मुझे धारणा बदलनी पड़ी। चित्रों को देखा तो पाया कि वे बहुत सधे हुए, गम्भीर, अनुशासित और रहस्यों से लबरेज़, लगा कि वह भी ऐसा ही है, गम्भीर, अनुशासित और रहस्यपूर्ण। न जाने कैसी निरन्तर खोज में लगा हुआ। जैसे कि अपने को तलाशता हो, अपने चित्रों में उभर आये पात्रों के अस्तित्व को ढूंढता। व्यक्त और अव्यक्त के कभी न सुलझ पानेवाले रहस्यजाल से जूझता।

उससे और उसके चित्रों से साबका साल-दर-साल होता रहा। उसके चित्रों की प्रदर्शनियां भी विशाल-से-विशालतर होती गईं। कई बार जहांगीर कला दीर्घा की पूरी की पूरी वातानुकूलित गैलरी तो कभी ऑडिटोरियम में। उद्घाटन वाले दिन बेहद भीड़, जैसे कि तमाम मुम्बई का संभ्रांत वर्ग और कलाप्रेमियों का हुजूम उमड़ पड़ा हो उसकी पेंटिंग के देखने। जिनमें उद्योगपति भी होते, फिल्मी एक्टर-एक्ट्रेस भी, संगीतकार भी और स्टेज़ के चर्चित रंगकर्मी भी।

फिर एक दिन फोन आया, ‘‘मनमोहन जी, मराठी में मैंने किताब लिखी है। क्या आप उसे हिन्दी में कर सकेंगे?’’ मराठी से अनुवाद के लिए तो मैं अपने को सक्षम नहीं मानता इसलिए कहा कि अगर वह साथ बैठ सके तो जरूर कर सकता हूं। इस बीच वह अनेक बार विदेश गया, शो किये, आर्ट कैम्प में शिरकत का। मतलब यह कि वह व्यस्त इतना रहा कि एक साथ बैठ सकने का सुयोग सम्भव न हो सका। उसकी नई प्रदर्शनी का निमंत्रण आया और साथ में यह सूचना भी कि उसकी पहली हिन्दी पुस्तक ‘स्टुडियो’ का लोकार्पण भी इसी प्रदर्शनी में होगा। पर मुझे उसकी प्रति पहले ही भिजवा दी। यह वही किताब थी जिसके लिए सुभाष ने मुझे फोन किया था। मुझे पता है कि वह पुस्तकों से काफी पहले से जुड़ा हुआ रहा है।

पुणे में साने गुरूजी के ‘साधना’ परिवार के साथ। पत्रिका से ही नहीं, उनके पुस्तक प्रकाशन से भी जुड़ा रहा। ‘‘वहीं मेरे अंदर की चित्रकला का दरवाजा खुला,’’ लिखता है सुभाष, ‘‘मेरा वेतन भी तय हो गया तीस रुपये। उस समय मेरी उम्र थी अट्ठारह। काम? ‘साधना’ के लिए कुछ भी कीजिए। मेरा पहला स्टुडियो वहां शुरू हुआ। यह कमर्शियल आर्ट का स्टुडियो था जहां उसे किताबों के कवर, चित्र, विज्ञापनों की ड्राइंग और ‘साधना’ के लिए भी चित्र बनाने होते थे और तभी ‘मौज’ प्रकाशन तथा दूसरे पब्लिशिंग हाउसों के लिए भी कवर बनाये। पर वही रह कर मैं फाइन आर्ट की प्राणवंत पाठशाला में भरती हुआ हूं, इसकी मुझे कल्पना भी न थी ।’’ वहीं उसने काफी निकट से देखा मराठी के अनेक प्रसिद्ध लेखकों-कवियों को। यदुनाथ थत्ते के साथ तो काम ही किया। वे तो सम्पादक ही थे। अण्णा उर्फ एस एम जोशी, ना. ग. गोरे, मधु दंडवते, वसंत बापट, लीलाधर हेगड़े, सदानंद बर्वे, बाबा आमटे, वसंत पलशीकर और भी, यह सूची बहुत लम्बी है। पर रॉय किणीकर और उनकी कविताओं का ऋण वह आज भी मानता है।

‘‘रॉय किणीकर एक फक्कड़-फकीर आदमी था,’’ बताता है सुभाष,‘‘मैं ऋण के बारे में सोचता हूं तब मेरे सामने केवल ‘साधना’ प्रेस के पराभूत होकर भी जीवन की ओर स्पष्ट देखने वाले उन व्यक्तियों का ऋण याद आता है। उन्होंने मुझे रास्ते पर के इनसानों का जीवन दिखाया। घर-घर में लाचार-बंदी स्त्री‡पुरुषों, मज़दूर, कुली, किसान, आदिवासी, अनाथों में छिपे बैठे मानव-मन का दर्शन करवाया ।.. .. किसी भी आर्ट स्कूल में जो कभी सिखाया नहीं जाता, सीखा भी नहीं जाता, उस जीवन की ओर देखने की नज़र मुझे वहां मिली।’’

ये तमाम विषय उसके चित्रों में मैंने समय-समय पर देखे। शायद 20-25 साल पहले उसके चित्रों से परिचय हुआ था। याद नहीं कि वह मुम्बई में उसकी पहली एकल प्रदर्शनी थी या नहीं, पर वे तमाम पेंटिंग आज भी रह-रह कर याद आ जाती है। विदूषक, वारकरी, तीर्थ पंढरपुर जाने वाले भक्त-यात्री और भिक्षु जैसे कुछ पात्र थे उनमें जोकर तो शायद अब उसकी पेंटिंगों में नहीं है पर अज्ञात अनजाने बौद्ध भिक्षु— मौंक आज भी उसके चित्रों में मौजूद हैं। साथ में यह सवाल,‘‘कौन हैं, कौन हैं यह?’’ यही सवाल फिर से उभरा इस बार के चित्रों में, जिसका शीर्षक था ‘गोल्ड—द एटर्नल सर्च’ जिनके प्रदर्शन के साथ ‘स्टुडियो’ (पॉप्युलर प्रकाशन, 22भूलाभाई देसाई रोड, मुंबई-26 से प्रकाशित) रिलीज़ हुई थी जिसमें कुछ हद तक कोशिश है इस सवाल का जवाब तलाशने की, सुभाष की खुद अपनी यादों के जरिये। उसकी निजी डायरी के विभिन्न परिच्छेदों में।

इस डायरी को उसने अपने कॉलेज के दिनों की मित्र स्व. स्मिता पाटिल की याद को समर्पित किया है: ‘कॉलेज में पढ़ते समय पुणे के एस. पी. कॉलेज के नुक्कड़ के मोची के पास मैं और मेरी मित्र स्मिता पाटिल दोपहर को खड़े थे। मेरी चप्पल मोची दुरुस्त कर रहा था। स्मी मुझसे बोली, ‘सुम्या! जिंदगी में कुछ तो करें और बड़े बनें।’ ‘क्या करें’, मैंने पूछा। ‘चल, बाज़ी लगा। पहले कौन बड़ा बनेगा!’ वह बोली। ‘वह एक्ट्रेस बनेगी और मैं आर्टिस्ट यह दोनों को मालूम न था। वह मुझसे ज्यादा होशियार और फास्ट निकली। बढ़िया एक्ट्रेस बनकर उसने बाज़ी जीत ली और वह बेहद फास्ट थी इसलिए मुझे अकेला छोड़ कर वह दूसरी दुनिया में भाग गई। मैं अब तस्वीरें बनाता हूं। उन्हें देखने के लिए वह मेरे पास नहीं है। उसकी-मेरी दोस्ती की सिर्फ यादें हैं। उन यादों के लिए मेरी यह छोटी-सी डायरी।’

उसने लिखा है अपनी प्रेरणाओं के बारे में, ‘‘कई सवाल कौतूहल से पूछे जाते हैं कि तस्वीरें कैसे सूझती हैं, इम्प्रेशन कहां से मिलता है? कोई औरत? सुन्दर प्रकृति? या ईश्वर? ऐसे किसी की कृपा-दृष्टि होती मुझ पर तो ये सवाल मुझ में ही न उठेे होते? मुझे कभी स्वप्न में या जागते हुए चित्रों का इल्हाम नहीं होता। आते-जाते सबकांसस स्तर पर कुछ कंपोजीशंस, कलर्स, सब्जेक्ट्स लहरा-से जाते हैं लेकिन चित्रों में उनका लवलेश भी उतरता नहीं।’’ वैसे प्रेरणा के बारे में उसने तो नहीं, उसके दादा ने बताया, ‘‘तुमने कुली देखे, विदूषक (जोकर), वारकरी, अभिनेता या प्रिंटिंग प्रेस के लोगों को देखा। इनसे ही तुम्हें प्रेरणा मिली और उन्हें ही तुमने अलग मायने देकर चित्र में लाकर लोगों के सामने रखा।’’ विदूषकों के चित्रों के सिलसिले में सुभाष ने बताया, ‘‘ओतूर नदी के किनारे कोई फटीचर-सा सर्कस आया करता था। दो-चार कुत्तों की कवायद और बौने विदूषकों के खेल, बस इतना ही। पैट्रोमेक्स की रौशनी में। सर्कस का तमाम दारोमदार जोकर पर ही हुआ करता। एक सबेरे कोई हमारी कोठी पर एक बौने विदूषक को लेकर आया। ऐसी खुशी से मेरा सीना फूल गया कि जैसे अमिताभ बच्चन मेरे घर आया हो। असल में उस विदूषक का हाथ टूट गया था। मेरे पिता डॉक्टर थे इसलिए उसे वे लोग दवा-इलाज के लिए लाये थे। वह रात के पहरावे में ही थ। गेरू और खड़िया से चेहरे पर खींची गई सफेद-लाल रंग की धारियां। रंग-बिरंगे पुराने चिथड़ों से सिला हुआ उसका ढीला-ढाला ड्रेस। हम सब बच्चे खुशी से उछल कर हंसने लगे लेकिन वह दर्द से रो रहा था पर मेकअप की वजह से हमें वह रोता हुआ नहीं दीख रहा था।’’

‘‘बाद में तीस बरस बाद एक बार मैं कैनवस के पास आया। तभी-तभी अमेरिका से लौटा था और दिमाग में एब्स्ट्रेक्ट पेंटिंग के ख्याल उमड़ रहे थे लेकिन मेरी पेंटिंग में अवतरित हुआ वह विदूषक मेकअप के बीच दबा हुआ दर्द लेकर।’’ सुभाष को कई बार लगता है कि पेंटिंग एक तरह का भ्रम है, इल्यूजन। वह कहता है कि यह केवल भास-आभास का खेल है। ‘‘आज क्या तस्वीर बनाई जाये? कोरे कैनवस तैयार है। पर मन बेचैन। सबेरे-सबेरे लगता है, गाड़ी निकाल कर खंडाला घूम आया जाये। दोस्त विनायक रत्नाकर गवांदे के ‘वेलेरिना’ में मैं खुलकर सांस ले पाता हूं। पर अन्दर का अनुशासित मन मुझे भटकने नहीं देता‡ चित्र निर्माण के मामले में। उसे टिकाये रखने के लिए मुझे कई बातें करनी पड़ती हैं। सिनेमा, किताबें, यात्राएंं, स्कॉच वगैर। लेकिन जब मैं चित्र के पास आता हूं तब मुझमें सहजता होती है। ये सब मुझसे तंग आकर दूर पीछे जा चुके होते हैं। कोरे कैनवस के सामने मैं। चित्र क्या बनाना है, यह नियत नहीं होता। विषय का सूत्र भी मेरे पास नहीं होता।.. .. कैनवस और चित्रकार के बीच का बित्ते भर का फासला अभिमंत्रित करता है। रंगने बैठें तो भूतकाल से ग्रस्त (जिसकी आदत पड़ चुकी है) शरीर और मन को तोड़ कर नई अनुभूति का कैनवस पर सामना करने के लिए खटपट चलती रहती है‡ एकदम अचानक। फिर दैवी आनंद होता है। उस आनंद को वह कलाकृति सहेजती है।

संन्यासी, बौद्ध भिक्षु और संन्यास का प्रतीक भगवा-नारंगी रंग तो अब सुभाष के ज़रूरी अवयव बन गये हैं। जैसा कि उसने पहले इशारा किया था कि अमेरिका से लौटने पर अमूर्त्त चित्र बनाने की प्रेरणा सुभाष में जागी थी, वह न तो विदूषक-शृंखला में उतर पाई और न पूरी तरह उसके बाद के चित्रों में। पर इस ‘एटर्नल सर्च’ चित्र-शृंखला में वह इच्छा कुछ सीमा तक पूरी हुई है। कई बड़े कैनवस अमूर्त्त जैसे हैं पर उनमें भी वह अज्ञात-अनजाना बौद्ध-भिक्षु किसी अज्ञात दिशा की ओर जाता दिखाई पड़ जाता है, भले ही उसका आकार अब छोटा हो गया है। यहां तक कि कुछ चित्रों में तो उस आकृति को चित्र-पहेली की तर्ज पर तलाशना पड़ता। ‘‘बचपन से ही मुझे संन्यास के प्रति आकर्षण रहा है। मेरी पेंटिंग में तो वह प्रमुखता से आता ही रहा है। छोटा था, तब यह संन्यासी चाहे जहां भटक सकता था, इसलिए मुझे मजेदार लगता था .. .. गाय लेकर गोरक्षक ओतूर में आया करते थे। उन गोरक्षकों के साथ घूम कर दुनिया देखी जाये, ऐसा लगा करता था। शंकराचार्य का मठ, सह्याद्री के पहाड़ के मंदिर, नदी तट पर उतरती जाती सीढ़ियां .. उनके प्रति मुझमें आकर्षण रहा।.. अलिप्त होकर मैं जब देखता हूं तब ध्यान आता है कि मुझे मुक्त होकर किसी की तलाश करनी है। यह तलाश मेरे चित्रों में पूरी हुई है, शायद!’’

ओशो रजनीश के आश्रम में विनोद खन्ना के साथ सुभाष अवचट इसी संन्यास लेने की भावना से गये थे। ओशो ने कहा, ‘‘संन्यास कभी मत लेना। बस पेंटिंग करते जाना। ‘सम टाइम यू हैव टु जम्प इन ऑरेंज’।’’ सुभाष की आंखों के सामने एक विजुअल आया कि एक बड़ा स्विमिंग पूल है। उसमें ऑरेंज रंग का पानी भरा है और मैं ऊंचाई से उसमें छलांग लगा रहा हूं। अपनी पहली एकल प्रदर्शनी का इसीलिए उसने शीर्षक रखा था ‘जंपिंग इन ऑरेंज’ जिसके लिए एक्टर और मित्र स्मिता पाटिल और विनोद खन्ना ने पूरा सहयोग दिया था।

‘’आज भी उसी ऑरेंज कलर का चैतन्य मेरे पास है। मेरी ‘परम्परा’ नामक चित्र-मालिका में यह चैतन्य अवतरित होता ह। वह केवल रंग नहीं है। ओशो रजनीश का दर्शन उसके भीतर निहित है, दिलखोल उन्मुत्त विश्व की खोज करने की प्रवृत्ति का मूल और उसकी वजह से हमारी हिन्दू परम्परा में अनन्त वर्षों से जुड़ा चैतन्य का धागा मेरी समझ में आया, उसी का प्रतीक वह रंग है। .. इसीलिए मेरा मानना है कि चित्रकार कहीं-न-कहीं संन्यासी होता ह।’’ बहुत विविध, बहुत घटना-प्रमुख, बहुत व्यापक जीवन जीता रहा है सुभाष अवचट। देश-विदेश की अनेक यात्राएंं, अनेक महान व्यक्तियों का साहचर्य, ओशो रजनीश ही नहीं, तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री जोशी, एस. एम. जोशी, कुमार गंधर्व, और भी न जाने कितने नाम हैं जिनसे उसने प्रेरणा ली, अनुभव पाया और इन सब ने ही उसके चित्रों को समद्ध किया है, और भविष्य में भी करते रहेंगे।

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