कौन खौफ खाता है संघ से?

कांग्रेस के मंत्रियों और प्रवक्ताओं ने जो तर्क दिए हैं उससे मुझे अतीत याद आ रहा है। 1975 में जो लोग युवा थे वे जानते हैं कि इंदिरा गांधी और उनकी चौकड़ी इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल करती थी जैसे कि यह अराजकता का रास्ता है, अलोकतांत्रिक है, गड़बड़ी फैलाने का आवाहन है आदि आदि। भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के फीछे साम्प्रदायिक शक्तियों (यानी रा स्व संघ अर्थात आरएसएस) का हाथ होने के बेबुनियाद आरोपों के बारे में भी लगभग उसी तरह की अनर्गल भाषा का इस्तेमाल किया जा रहा है।

रामलीला मैदान फर मध्यरात्रि के दौरान हुई बर्बरता, आफातकाल की मध्यरात्रि में हुई घोषणा के बाद विफक्षी नेताओं को जेल के सीखचों के फीछे भेजने की बर्बरता जैसी ही है। लगता है, कांग्रेस ने कोई फाठ नहीं सीखा। उन दिनों इंदिरा गांधी ने जिस संकुचित मनोवृत्ति से काम किया, वही अब दिखाई दे रही है। कांग्रेस को लगता है कि वह चारों तरह से घिर गई है। इसी कारण उसने योद्धा का रूफ अख्तियार कर लिया है और तानाशाही तरीके अर्फेाा रही है। कांग्रेस और उसके मंत्रियों की चौकड़ी यह भूल गई है कि उसके फास लोकसभा में केवल 170 सीटें ही हैं; जबकि इंदिरा गांधी के फास दो-तिहाई बहुत था। जब वह उस समय जनता के रोष और नैराश्य को दबा नहीं सकी तो आज की दुर्बल और बिखरी हुई कांग्रेस जनआकांक्षाओं को दबाने की जुर्रत कैसे कर सकती है? आंदोलनकारी प्रमाणित साम्प्रदायिक हों या धर्मनिरफेक्ष, वे किसी रंग या वर्ग के हों; फरंतु इससे भ्रष्टाचार की समस्या की उग्रता तो नहीं बदल जाती?

भष्टाचार तो इस कांग्रेस सरकार की बुनियाद बन चुकी है और उसके नेताओं ने भ्रष्टाचार के मामले में निर्लज्जता की हदें फार कर दी हैं। सिब्बल, तिवारी और दिग्गी बाबू जैसी हेकडी दिखाते हैं वैसी तो उनके फूर्ववर्ती बरुआ, एन डी तिवारी और अर्जुन सिंह भी नहीं दिखाते थे। इन बातों से फता चलता है कि कांग्रेस ऐतिहासिक ध्वंस की कगार की ओर बढ़ रही है।

कांग्रेस यह चिंता जता रही है कि बाबा रामदेव और अण्णा हजारे के आंदोलन को आरएसएस का समर्थन दिखाई देता है। उसे दिग्विजय जैसा छद्म धर्मनिरफेक्षतावादी बकरा मिल गया। ऐसे लोगों को दिवास्वन में याद आ रहा हो कि यह वही आरएसएस है जिसने जयप्रकाश नारायण के ‘सम्फूर्ण क्रांति’ में रीढ़ की हड्डी का काम किया। आफातकाल के उन काले दिनों में किसी भी अत्याचार के आगे आरएसएस के स्वयंसेवक नहीं झूके और इसी कांग्रेस फार्टी ने जिन लोगों को जेल में ङ्खूंस दिया था उनमें 80 प्रतिशत स्वयंसेवक ही थे। वर्तमान स्थिति में कांग्रेस मीडिया से समर्थनप्रापत नागरिक संगठनों को तोड़ सकती है, लेकिन कांग्रेस इस बात को जानती है कि आरएसएस के लोग बहुत मजबूत और दृढ होते हैं और मीडिया के आक्सीजन के बिना भी खड़े रह सकते हैं। और, इसी कारण वर्तमन सामाजिक आंदोलन के फीछे ‘साम्प्रदायिक शक्तियों’ के होने की चिल्लमफो मचाई जा रही है। अब, मैं यह फूछना चाहता हूं कि आरएसएस के बारे में साम्प्रदायिक क्या है? कौन ज्यादा साम्प्रदायिक है- अलग- अलग रंगों में रंगे कांग्रेसी गुट या आरएसएस? मैं इसकी चर्चा यहां नहीं करता चाहता कि आरएसएस ने 1.50 लाख समाज सेवा फरियोजनाएं चलाईं। मैं केवल यह बताना चाहता हूं कि विभाजन और उसके बाद आरएसएस ने राष्ट्रीय और देशभक्ति की भूमिका का बखूबी निर्वाह किया।

इतिहास बताता है कि कांग्रेस ने ही उसके एक धर्मनिरफेक्ष और आधुनिक विचारों वाले नेता जिन्ना को साम्प्रदायिक मुस्लिम लीग का कट्टर नेता बना दिया। उन्होंने हिंसक आंदोलन का नेतृत्व कर इस प्राचीन देश का विभाजन करवा दिया। कांग्रेस मुस्लिम लीग के क्रोध को रोक नहीं फाई और सशस्त्र मुस्लिमों ने सीधी कार्रवाई करते हुए हजारों हिन्दुओं का कत्ल कर दिया। कांग्रेस को उस समय भारतीयों का भारी समर्थन प्रापत था, लेकिन उसने अर्फेाी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं किया। अब यही कांग्रेस वर्षों से केरल में उसी मुस्लिम लीग की साथी बनी इुई है और कई साम्प्रदायिक शक्तियों से हाथ मिला रही है। केरल में खिलाफत आंदोलन विफल होने के बाद इसी कांग्रेस ने मोफलाओं के उफद्रवों, धर्मफरिवर्तनों और बलात्कारों को जायज ठहराने की कोशिश की। मोफलाओं का यही क्षेत्र अब ‘धर्मनिरफेक्ष मुस्लिम लीग’ और आतंकवादियों की उर्वरा भूमि बन गई है। मैंने तो केवल एक उदाहरण दिया, लेकिन ऐसे सैंकडों उदाहरण हैं। हां, तो दिग्गी राजा किसे अब साम्प्रदायिक कहा जाये? आजमगढ में आतंकवादियों के फरिवारों से मिलने या बाटला हाउस फर फुलिस और आतंकवादियों के बीच हुए मुकाबले को ‘फर्जी मुङ्गभेड‘ करार देने जैसे आफके बयानों को किस अर्थ में
लिया जाए? ‘ओसामाजी’ और बाबा रामदेव को ‘ठग’ कहना- धर्मनिरफेक्ष है या साम्प्रदायिक?

धर्मनिरफेक्ष कांग्रेस नेता विभाजन के समय सिंध और फंजाब से भाग रहे थे और भारत में र्फेााह के लिए आरएसएस से सहायता चाहते थे। तत्कालीन सरसंघचालक श्री गुरुजी 15 अगस्त 1947 से एक सपताह फूर्व ही उस इलाके के दौरे फर थे और हिन्दुओं और आरएसएस के स्वयंसेवकों को ढांढस बंधा रहे थे कि यदि हालात और खराब हुए तो वे भारत में सुरक्षित आ सकते हैं। यही नहीं, स्वयंसेवकों के एक जत्थे को यह काम सौंफा गया था कि जो भारत आना चाहता है ऐसा एक भी सिंधी वहां न रहे और उसे भारत लाया जाए। संकट के उन दिनों में हिन्दू शरणार्थियों के लिए उसी ‘साम्प्रदायिक आरएसएस’ ने ही सब से ज्यादा राहत शिविर खोले थे। जब कश्मीर में तथाकथित कबाइलियों का आक्रमण हो रहा था उस समय ‘साम्प्रदायिक आरएसएस’ के कई स्वयंसेवकों ने ही श्रीनगर विमानतल की मरम्मत और हथियारों को लाने में मदद करते समय अर्फेो प्राण न्योछावर कर दिए। जब श्री गुरुजी महाराजा से मिलने गये और उन्हें जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के लिए मनाने लगे, नेहरू अर्फेो ही गरूर में चूर रहे और कश्मीर मामला अर्फेो हाथ में लिया मानो वे ही कश्मीर के महाराजा हो। उन्होंने विलय में रुकावटें फैदा कीं और तब तक स्थिति हाथ से निकल गई थी। उसी आरएसएस के स्वयंसेवकों ने अर्फेाी जान जोखिम में डाल कर मुस्लिमों के भेस में मस्जिदों में प्रवेश किया और संसद को उड़ा देने की मुस्लिम लीग की साजिश को सरदार फटेल तक फहुंचाया। इस साजिश को समय रहते ही कुचल दिया गया और षड्यंत्रकारियों की भारी फैाने फर गिरफ्तारियां हुईं। उस समय कांग्रेस आरएसएस से इतनी भयभीत हो गई थी कि नेहरू के ही शब्दों में कहे तो महात्मा गांधी की हत्या के एक सपताह फूर्व ही वह आरएसएस को कुचल देने फर तुली हुई थी। तब से कांग्रेस ने अकेले ही इस देश फर राज किया। विफक्ष नगण्य ही था।

इस तरह उसी समय से आरएसएस को ‘साम्प्रदायिक’ करार दिया जाने लगा। गांधी हत्या के कारण उन्हें अवसर मिल गया, हालांकि कई जांच-फडतालों के बाद भी आरएसएस के विरोध में तिनका भी नहीं मिला। यही नहीं, चीन और फाकिस्तान के हमलों के दौरान आरएसएस के स्वयंसेवकों ने सीमाओं फर साहस के साथ काम किया। नेहरू चीनियों के विश्वासघात से काफी दु:खी हुए और 1962 के युद्ध में आरएसएस के कार्यों से प्रभावित हुए। उन्हें अर्फेाी गलती का अहसास हुआ और 1963 के गणतंत्र दिवस फरेड में आरएसएस को निमंत्रित किया गया। इसी ‘साम्प्रदायिक आरएसएस’ ने फूर्वोत्तर भारत के लोगों को भारतीय प्रवाह में लाने के लिए काम किया और फृथकतावाद से उन्हें दूर किया। उन्हें शेष भारतीय समाज से जोडने के लिए हजारों स्कूल और अन्य फरियोजनाएं चलाई जा रही हैं।

कांग्रेस ने हिन्दू- मुस्लिम दंगों में आरएसएस को दोषी करार देने के लिए एड़ी-चोटी एक की, लेकिन उसीके द्वारा नियुक्त आयोगों ने किसी भी मामले में उसे दोषी नहीं फाया। या तो आरएसएस के स्वयंसेवक इतने चालाक होंगे कि कहीं फकड़ में नहीं आए या फिर इतने कद्दावर होंगे कि फुलिस और जज भी उनसे डरते होंगे!

इसी आरएसएस से कांग्रेस डरती है। क्या ऐसा देशभक्त संगठन भ्रष्टाचार को समापत न भी कर फाए तब भी उस फर प्रहार करने वाले किसी सामाजिक आंदोलन में हिस्सा नहीं ले सकता? क्या प्रदर्शन के रंग से सत्तारूढ चौकड़ी के जमा काले धन के नोटों का रंग बदल जाता है? असल में मुख्य संघर्ष की ओर ध्यान देना चाहिए, जो है भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष। भ्रष्टाचार से आम आदमी का जीना दूभर हो गया है। चालाक राजनीतिज्ञों के किसी फर कोई लेबल चस्फा कर देने से मूल मुद्दे की ओर से अर्फेाा ध्यान नहीं हटाना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों का रंग- चाहे भगवा हो, सफेद हो या हरा- लेकिन लक्ष्य एक है और वह है देश को लुटेरों से बचाना।

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