कहां खो गया चीता ?

रॉबर्ट स्टर्नडेल का ‘मैमोलिया ऑफ इिंउया’ (सन 1884), आर. आई. पोकॉक का ‘द फौना ऑफ ब्रिटिश इंडिया (सन 1939) इन पुस्तकों में चीता के अस्त के बारे में जानकारी मैं पढ़ रहा था। उन दिनों चीता मध्य भारत, दक्षिण भारत, उत्तर-पश्चिम भारत में खानदेश, सिंध, राजपुताना से पंजाब तक चीता दिखाई देता था। इसी तरह वह अफ्रीका और दक्षिण एशिया उपमहाव्दीप के शुष्क जंगल वाले प्रदेशों में होता था।

Cheetah- Acinyx jubatus venaticus
(Griffith) चीता तेंदुए के मुकाबले शरीर से छोटा और दुबला‡पतला होता है। उसके चमड़े का रंग पीलिया भूरा‡सा से लालिमायुक्त उदी होता है। पेट का रंग पीलिया होता है। पूरे शरीर पर ठोय काले व गोल धब्बे होते हैं। ऊपर के होंठ से आंखों के किनारों तक काली रेखा होती है। पंजे के नाखून वह कुछ अंदर खींच सकता है।

अब भारत के जंगलों में चीता दिखाई नहीं देता। बस्तर जिले में 1948 में वहां के अंतिम चीते की शिकार वहां के महाराजा ने की थी। इस बारे में मैंने पवनी (जिला गोंदिया, महाराष्ट्र) के माधवराव पाटील के साथ चर्चा की। वे गोंदिया जिले में प्रसिध्द शिकारी रहे हैं। उन्होंने बताया, ‘1950 से 1953 नवेगांव बांध, पवनी और गांधारी के जंगल में मैंने चीतों की शिकार की है।’)

मैंने उनसे कहा, ‘हमारे इलाके में तेंदुआ को ही लोग चीता समझते हैं।’‘नहीं जी!’, उन्होंने कहा, ‘तेंदुआ और चीता में अंतर है। चीते के पीलिया बदन पर जो काले धब्बे होते हैं वे ठोस होते हैं। चीता, बाघ और तेंदुए की तुलना में ऊंचा होता है। तेंदुए के बदन के काले धब्बे अंदर से खोखले होते हैं। चीते की कमर पतली होती है। वह तेज भागता है।’

पाटील ने आगे बताया, ‘समतल घास के चरागाह, उसमें हल्की झाड़ियां और उसके चारों ओर सीमा पर फैली पहाड़ियां चीतों की पसंदीदा जगह है।’ इन इलाकों में झाड़ियों और बड़ी शिलाओं के आश्रय में वह रहता है। इन वनों में व हिरणों के झुण्ड तथा चिंकारा व खरगोश होते हैं। ये हिरण चीता का प्रिय भोजन है।’ ‘चीता हिरण की शिकार कैसे करता है?,’ मैंने उनसे प्रश्न किया।

‘शिकार के लिए चीता झाड़ियों की ओट में दबिश कर धीरे‡धीरे हिरण के पास पहुंचता है,’ पाटील कहते गए, ‘ पेड़ों के पत्तों से नीचे गिरे पीलिया पत्तों के ढेरों पर पड़ने वाले घूप के छल्लों और चीते के बदन का रंग एकजैसा होता है। इससे हिरण धोखा खाता है। हिरण एक दोड़ के अंतर पर आते ही चीता तेजी से दौड़ता है और हिरण को पकड़ लेता है। उस समय उसके दौड़ने की गति प्रति घंटा 115 से 120 किमी होती है। सब से पहले वह हिरण के पैर पर पंजा मारता है, उसे नीचे गिरा देता है और बाद में उसकी गर्दन मुंह में जकड़ लेता है।’  ‘फिर चीता कब से विलुप्त हो गया?’, मेरा प्रश्न।

‘1953 के बाद इस जंगल से चीते नष्ट हो गए। मैंने ही इस जंगल में करीब 20 चीतों की शिकार की है। इस जंगल में धीरे‡धीरे नए गांव बसते गए। इस जंगल पर लोगों ने अतिक्रमण कर खेती करना शुरू किया। हिरण के झुण्ड दिखना खत्म हो गया। उनके साथ चीते भी दिखना दूभर हो गया।’
चीता नष्ट होने के और भी कारण हैं। राजा और शिकारी चीते पालते थे। उसे वे शिकार को पकड़ने का प्रशिक्षण भी देते थे। इस बारे में मराठी में ‘यूजनामा (चीता कहागास चिकित्सा)’ नामक स्वतंत्र ग्रंथ भी मौजूद है। तंजावूर के महाराजा ने यह ग्रंथ लिखा है। चीते का बंदीवास में प्रजनन नहीं होता। जंगल में पैदा हुए बच्चों के बचने की संभावना अल्प होती है।

मैंने दु:खी मन से उनसे कहा, ‘पाटील, आप जैसे शिकारियों ने इस सुंदर प्राणी को नष्ट कर दिया। इस बारे में अब आपको कैसा लगता है?’
व्यथित होकर उन्होंने कहा, ‘उन दिनों शिकार मेरे लिए व्यसन बन गया था। शराब और शिकार दोनों एक जैसे ही व्यसन हैं। उसे मद्य और शिकार के बिना चैन नहीं आता। लेकिन अब बहुत पश्चाताप होता है। प्रायश्चित्त के रूप में अब वनचरों और पक्षियों के संरक्षण के लिए दौड़भाग करता हूं।’ यह सुन कर मुझे अंग्रेजी कहावत याद आ गई -Poacher is real preacher.

परसों दिल्ली के वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया में अनुसंधान कर रहे मेंरे मित्र मिलिंद पंचाक्षरी ने चीते के भविष्य के बारे में चर्चा करते समय नई जानकारी दी। मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात राज्य में चीते के लिए अनुकूल वनों में अफ्रीका से चीते लाकर उनका पुनर्वसन किया जाएगा।

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