अन्याय

गत चैत मास की पूर्णिमा को सुलोचना को साल पूरा हुए। साठ कोई बहुत ज्यादा नहीं कहे जा सकते; न बहुत कम। सुलोचना को लगा, ‘इतने वर्ष पर्याप्त तो अवश्य कहे जा सकते हैं।’ षष्ठि पूर्ति शब्द उसने सुना था। उसे लगा-उसकी षष्ठिभूर्ति चाहे कोई न मनाये, उसके लिए तो जीवन के साठ साल उत्सव है ही। दो खेतों के अंतर पर अपने स्वतंत्र बंगलों में रहनेवाले बेटे मयंक और उसकी पत्नी ने सुबह आकर मां को प्रणाम किया था और बड़ी कीमतीं दो साड़ियां भी भेंट की थीं। बेटे और बहू को मुंह मीठा कर बिदा किया और सुलोचना की नज़र साड़ी के बाक्स पर पड़ी। बेटे का तो ऐसी बातों में दिमाग चलता नहीं था, किंतु चौतरफा सोचनेवाली थी। इसलिए सुलोचना को यकीन था कि विधवा को फबे ऐसी ये साड़ियां होनी चाहिए। पोती केयूरी तब स्कूल गई हुई थी, इसीलिए मां-बाप के साथ न आ सकी थी। लेकिन जैसे ही स्कूल से लौटी, दादी मां को प्रणाम करने आ पहुंची। वैसे भी स्कूल में यह उसका अंतिम वर्ष था। एस.एस.सी की परीक्षा की तैयारी कर रही थी और पढ़ाई के बोझ से मानो दबी जा रही थी। दादा मां को प्रणाम किया पर, मुंह फुलाकर शिकायत भी की।

‘‘ दादी मां, मुझे इंजीनियर नहीं बनना, पापा को बता देना। मुझे तो आर्ट्स कॉलेज में पढ़कर प्राध्यापक बनना है।

‘‘मैं क्या समझाऊं बेटी। मुझे तो इसका कुछ समझता नहीं। पापा को जो अच्छा लगता हो, वैसा ही करना चाहिए।’’

‘‘नहीं। मेरा चॉईस पापा कैसे समझेंगे? और जिसमें मुझे दिलचस्पी न हो, उस कॉलेज में मैं जबरन क्यों जाऊं।’’ केयूरी ने मुंह फुलाकर कहा।

‘‘ मगर बेटा, मम्मी-पापा जो कहते हैं, तुम्हारे भले के लिए ही होता है, न? तू तो सयानी बेटी है। तुझे उनका कहा मानना चाहिए।’’

‘‘ नो, इट्स इंपासिबल दादी मां! मेरी लाइफ को, मैं ही ज्यादा समझ सकती हूं। अगर मम्मी-पापा इस प्रकार जिद करेंगे तो –’’

सुलोचना सुनती रही। जिद केयूरी की नहीं, मम्मी-पापा की थी- यही बात उसे बड़ी विचित्र लगी।

केयूरी तो बाद में चली गयी, किंतु सुलोचना केयूरी की इस बात से सोच में पड़ गयी। जिद बच्चों की हो सकती है और मां-बाप के आग्रह के कारण बच्चों को जिद छोड़नी चाहिए,ऐसा उसने सुना था। सिर्फ सुना ही न था

तब सुलोचना भी केयूरी जितनी ही थी। शायद एक-दो वर्ष छोटी भी हो सकती है। छोटी ही होगी, क्योंकि एस.एस.सी. का वर्ष तो अभी दूर था। आठवीं या शायद नौवीं कक्षा में थी। काफी होशियार थी। कक्षा में हमेशा पहला या दूसरा क्रमांक पाती और इसके बावजूद उसे पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी थी। क्योंकि पिता की जिद थी या फिर सुलोचना को ही वैसा लगा था कि वह मां-बाप की अवज्ञा नहीं कर सकती । यदि वह वैसा करती तो उसने अपने जन्मदाताओं पर अन्याय किया, ऐसा कहा जा सकता है। सुलोचना किसी से कैसे अन्याय कर सकती है?

मां करीब-करीब मृत्यु-शैया पर थी। दो छोटे भाई-बहन अभी ना-समझ थे। पिता की आर्थिक और सामाजिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। नौकरी करने के उपरांत रसोई की जिम्मेदारी भी पिता ही सँभालते थे। आखिर में थक कर पिता ने सुलोचना से कहा था-‘‘ सुलु बेटी, बहुत पढ़ाई की अब! मुझ अकेले से ये सब नहीं हो पायेगा। तेरी मां बिस्तर से उठ नहीं सकती। छोटे भाई-बहन अनाथ जैसे भटकते रहते हैं। अब तू घर में रह कर सब कुछ संभाल ले बेटा!

सुलोचना तब अवाक हो गयी थी। पिता की बात सही थी। वैसे भी समझदार कब से हो गयी थी। उम्र की तुलना में शायद ज्यादा ही समझदार हो गयी थी। घर की परिस्थिति यदि कोई शीघ्र ही संभाल सके तो-

‘‘तेरी मां अब थोड़े दिनों की मेहमान है,बेटा!’’ पिता ने धोती की छोर से आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘‘अगर तुम बच्चों के भाग्य में मां का सुख लिखा होगा, तो ऊपर वाला सुब कुछ कर सकता है। हमें तो उसके जीवन के जितने भी दिन बचे हो उतने दिन हो सके, उतनी सेवा कर सकते हैं। इससे ज्यादा कर भी क्या सकते हैं? हमसे किसी के प्रति अन्याय न हो, यही सबसे बड़ी बात होगी!’’

पिता का इतना कहना काफी था। तेरह या चौदह वर्ष की सुलोचना को उससे ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता न हुई। तब सुलोचना को केयूरी की तरह चॉइस या लाइफ जैसे शब्द सूझते न थे। पिता ने कहा और उसने उसको स्वीकार कर लिया था। उसने स्कूल छोड़ दिया है, यह जानते ही स्कूल की प्रिंसिपल खुद आकर पिता से मिली और समझाने लगी थीं, ‘‘आपकी सुलु पढ़ाई में होशियार है। जरूरत होगी तो उसकी अनुपस्थिति मैं चला लूंगी, लेकिन आप उसकी पढ़ाई मत छुड़वाइए।’’

‘‘आपकी भावना मैं समझ सकता हूं,बहन जी,’’ पिता ने कहा था।, ‘‘आपको जब इतना दुख होता है, तो पिता के नाते, मुझे कितना दुख होता होगा? इस समय तो मैं आपसे इतना ही कह सकता हूं, अगर उसकी मां की तबीयत अच्छी हो जायेगी, तो वह जरूर स्कूल आयेगी।’’

लेकिन उसकी वह आशा कभी सफल न हुई। सुलोचना ने अपने मन को मना लिया। अगर किसी दिन भाग्य रूठ गया और ऐसा हो कि पिता नौकरी पर गये हो, छोटे नासमझ भाई-बहन भूखे-प्यासे कहीं पड़े हों, बिस्तर में पड़ी मां यह सब देखती रहे और बेबसी के साथ उसके प्राणपखेरू उड़ जाये तो यदि ऐसा हुआ तो वह सुलोचना का बड़ा अपराध होगा। अपनी पढ़ाई के लिए पिता-माता और छोटे भाई-बहनों के प्रति वह बड़ा अन्याय होगा। उससे ऐसा नहीं हो सकता ।

किंतु मां की बीमारी बहुत लंबी चली। जब वह चल बसी, सुलोचना के लिए, फिर से उसी कक्षा में स्कूल जाने की उम्र बीत चुकी थी। शिक्षा का होना या न होना, यह समाज द्वारा सर्जित व्यवस्था थी। इस व्यवस्था में सुलोचना के हिस्से में चाहे खास कुछ आया नहीं, परंतु प्रकृति सर्जित व्यवस्था ने सुलोचना को भरपूर नज़ाकत दी थी।

इस नज़ाकत को उसका मीठा स्वभाव चार-चांद लगा रहा था। इसके अलावा पारिवारिक परिस्थति ने उसे छोटी उम्र में ही पुख्ता और सयाना बना दिया था। मनमोनहन तब ऐसी ही किसी की तलाश में थे। 43 वर्ष की उम्र में जब विधुर बने, तब दो संतानों के पिता थे। किंतु इन दो बच्चों को मां की ममता मनमोहनदास नहीं दे सकते थे। घर ऐश्वर्य से भरा हुआ था। बिना मां के दो बच्चों की मां बनने के लिए तैयार होने वाली स्त्री को यहां राजमहल का सुख मिलनेवाला था।

‘‘सुलु’’, पिता ने एक दिन बेटी से कहा, ‘‘तुम्हारी मां तो हम सबको आधे रास्ते में छोड़कर चली गयी। मेरी अवस्था भी तू जानती है। छोटे दोनों भाई-बहन पूरी जिंदगी अकेले और बेसहारा कैसे बिताएंगे, उसकी चिंता मुझे सता रही है। तू बड़ी समझदार है। अगर मनमोहनदास सेठ जैसे का सहारा मिल जाये, तो तुम तीनों बच्चों का भविष्य सुधर जाये। सब कुछ तेरे हाथ में है। तुम छोटे भाई-बहनों पर कभी अन्याय नहीं करोगी, मुझे यकीन है।’’

सुलोचना को लगा कि पिता की बात में तथ्य है। उसके मन में पंखोंवाले घोड़े पर बैठे एक पुरुष की तस्वीर कब से उभरनी शुरू हो गयी थी। उस कल्पना-देश का यह राजकुमार कब आकर सुलोचना का हाथ पकड़ कर अपने घोड़े पर बैठा देगा, इसके सपने वह कब से देख रही थी। मनमोहन दास ऐसे पंखोंवाले घोड़े के सवार हो ही नहीं सकते, परंतु यदि वह अपने आपके साथ समझौता न कर सकी तो

पिता सच ही कहते थे। छोटे भाई-बहन का भविष्य अंधकारमय था। उस पंखोंवाले घोड़े के सवार की आशा में कहीं वह अपने भाई-बहन के प्रति अन्याय कर बैठे तो-

‘‘आपको जो ठीक लगे, उसमें मेरी सम्मति है ही बाबूजी!’’ सुलोचना ने हां कर दी।

और सुलोचना का व्याह धूमधाम के साथ सेठ मनमोहन दास के साथ संपन्न हो गया। मनमोहनदास समझदार व्यक्ति थे, स्नेहमयी भी थे। सुलोचना को बहुत खुश रखते थे। सुलोचना के पिता और भाई-बहन के लिए भी उन्होंने अपने बड़े कारोबार में पूरी व्यवस्था कर रखी थी।
बाद में पिता की कुछ सालों बाद मृत्यु हो गयी।

मनमोहदास के व्यवसाय में जुड़े हुए छोटे-भाई बहन काफी सुखी हो गये। बहनों को अच्छा ससुराल मिल गया! भाई की भी अच्छे खानदान में शादी हो गयी।

परंतु मनमोहनदास की गृहस्थी सुलोचना के अनुमान के पूर्व ही उजड़ गयी। 20 साल के वैवाहिक जीवन के बाद मनमोहनदास चल बसे। शादी की ही प्रथम-रात्रि को मनमोहनदास ने सुलोचना से एक वादा लिया था। इस वादे को सुलोचना ने कभी नहीं तोड़ा था।

‘‘सुलु’’ मनमोहन दास ने कुछ अपराधबोध के साथ दबी हुई आवाज में पत्नी से कहा था, ‘‘आज से तुम इन बच्चों की मां हो। यह सही है कि तुम इन्हें जन्म देने वाली मां नहीं हो, लेकिन ये बच्चे बड़े होंगे, तब उन्हें अपने जन्म देनेवाली मां की स्मृति नहीं रहेगी और उनकी स्मृति में तुम ही उनकी मां होगी। तुमसे मैं एक वादा मांगता हूं कि तुम इन दो बच्चों की मां बनी रहोगी।’’

‘‘मतलब?’’ सुलोचना ने मासूमियत के साथ पूछा। मनमोहनदास के पहली पत्नी से दो बच्चे थे। यह कोई नयी बात नहीं थी। सुलोचना यह जानती ही थी। यह जानने के बाद ही, उसने शादी की थी। मनमोहनदास के कहने का तात्पर्य वह समझ नहीं सकी थी। वह केवल इतना ही बोली, ‘‘मैं तो आपकी पत्नी हूं। आप जो भी कहेंगे, वैसा करना मेरा धर्म है।’’

‘‘ठीक है, तो अब सारी जिंदगी, तुम्हें इन दो बच्चों की ही मां बनकर रहना होगा। तीसरी संतान को हम अपने जीवन में कहीं भी स्थान नहीं देंगे।’’
सुलोचना अचंभे में पड़ गयी।

‘‘उसका कारण है सुलु।’’ पति ने स्पष्ट किया।

‘‘यदि तीसरा बच्चा आया और बच्चों में कोई कलह पैदा हुई तो? इससे हमारे बीच मनमुटाव पैदा हो, ऐसा कुछ न करें। मुझे ऐसे अप्रिय भविष्य की बहुत चिंता हो रही है। अगर ऐसा कुछ हुआ, तो हमारे ही हाथों से हमारी ही संतानों पर अन्याय हो..’’

सुलोचना समझ गयी। बच्चों का तो अभी पता नहीं, मगर यदि पति की इस बात से वह सहमत नहीं होती है, तो पति को बहुत दुख हो सकता है। वह यहां सब कुछ सोच-समझ कर ही आयी थी। अब वह अगर पति को सुख देने की बजाय उन्हें दुख हो, ऐसा कुछ भी करे तो वह नाइंसाफी होगी। अपने स्वार्थ की खातिर सुलोचना के हाथों किसी पर भी अन्याय हो जाये ऐसा विचार ही उसके लिए असह्य था। उसने अपने मन को समझा लिया था।
‘‘आप चिंता न करें। आप कहते हैं, उसी तरह हम दो ही संतानों के मां-बाप होंगे।’’ उसने पति को वचन दिया।

मनमोहन दास को बहुत अच्छा लगा।

मनमोहन दास का देहांत हुआ, तब मयंक की शादी हो चुकी थी। मयंक की पत्नी की परवरिश और पढ़ाई विदेश में हुई थी। आते ही वह सबसे घुल-मिल गयी। मगर जिस प्रकार की जीवन-शैली की वह आदी थी, उस जीवन-शैली को इस घर में अत्यंत उदार होने पर भी लाना बहुत दूर की बात थी। पहले तो सुलोचना को इस समस्या का ख्याल ही न था, मगर मनमोहन दास की मृत्यु के पश्चात यह अंतर बढ़ रहा था। सुलोचना तुरंत समझ गयी कि इस समस्या के कारण मयंक बड़े असमंजस में पड़ गया था। मयंक के सुख के लिए तो उसने जीवन भर संतान-विहीन रहना स्वीकार किया था। अब यदि मयंक ही किसी बोझ के नीचे दबा हुआ रहता हो तो

सुलोचना की सोच सही थी। मयंक की पत्नी के लिए सास सुलोचना का घर में होना उसके असीम स्वातंत्र्य के लिए अवरोध बन गया था। विदेशी संस्कारों में पली इस कन्या के लिए पति और ज्यादा-से-ज्यादा एक संतान से बढ़कर बड़ा परिवार अस्वीकार्य था। मनमोहन दास जिंदा थे, तब तक उसने अनिच्छा के साथ, सब कुछ चला लिया था, मगर अब

‘‘मम्मी’’, एक दिन मयंक ने ही सुलोचना से कहा, ‘‘यह घर अब हम लोगों के लिए बहुत छोटा पड़ रहा है। केयूरी भी बड़ी हो गयी है और मेरे व्यावसायकि संंबंध भी बहुत बढ़ गये हैं। इन सभी लोगों का आना-जाना, उनकी सुख-सुविधाओं का ख्याल रखना.. मेरा मतलब कि इसी कारण हमारे पास बड़ी जगह होनी चाहिए।’’

‘‘तुम्हारी बात तो सही है बेटा!’’सुलोचना ने कहा, ‘‘तुम्हें, जो योग्य लगे, वैसा करने में मुझे क्या हर्ज हो सकता है?’’
हमारी ही गली के नाके पर एक सुंदर बंगला बिकाऊ है। मैंने वह देख रखा है और दाम तय करके बयाना भी दे रखा है। अब अगर आप हां कर दें तो हम यह बंगला खरीदकर अगले महीने में वहां रहने चलें जायें।’’

सुलोचना फिर एक बार हैरान रह गयी। मयंक के प्रस्ताव में छिपा हुआ हेतु पहचानते ही उसे बहुत दु:ख हुआ। नये विशाल बंगले में रहने के लिए जाना सुलोचना के नसीब में न था। उसे तो अब यहीं पुराने घर में ही तनहा अवस्था में शेष विधवा जिंदगी बितानी होगी।

जिस संतान की खातिर वह नि:संतान रही, उस संतान ने यह निर्णय लिया था। परंतु उसने अपने चेहरे पर जरा भी नाखुशी के भाव व्यक्त होने न दिए। पुत्र और बहू यदि इस प्रकार खुश होते हों, तो उसे उनकी खुशी में बाधा क्यों डालनी चाहिए? वह बीच में आती है, तो उसका अर्थ यही होगा कि बिना वजह ही वह सभी के दिल में मनमुटाव पैदा कर रही है। यदि इस दुख को दबाकर चेहरे पर मुखौटे लगाकर सभी झूठ-मूठ साथ रहे, यह तो उसके हाथों इस ढलती उम्र में बेटे और बहू के साथ नाइंसाफी होगी न!

नहीं सुलोचना किसी पर अन्याय नहीं कर सकती। उसने खुशी के साथ सम्मति दे दी।

कितने साल बीत गये। इस घटना को! चार-पांच या छह भी हो गये हों! सुलोचना अब ऐसी गिनती नहीं करती। जो घर मयंक और उसकी पत्नी को संकरा लगता था, वह सुलोचना को अब बहुत बड़ा लगता था। आज केयूरी ने उसके चित्त में खलबली मचाई थी। यह सब तो वह कब की भूल गयी थी। ये सारी बातें आज यकायक किसी दबी हुई स्प्रिंग की तरह उसके मन में उछल आयीं। उसके अस्तित्व के हरेक अंश में एक अज्ञात बेकरारी पैदा हो उठी, परंतु उसने इस बेकरारी को सहलाकर शांत कर दिया। उसने आराम से गहरी सांस ली- चाहे दूसरा कुछ भी हुआ हो, मगर उसने अपने साठ साल के जीवन में किसी पर भी अन्याय नहीं किया, सिवा कि..

गुजराती से अनुवाद-ललित कुमार शाह

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