भक्ति पीठ पंढरपुर का अनोखा महाकुंभ

महाराष्ट्र की परम पावन भूमि पर मध्ययुग के कालखंड में अनेक धर्म-सम्प्रदायों का उदय हुआ, तथा सभी एक भाव के साथ पल्लवित हुए। उसमें नाथ सम्प्रदाय, महानुभव सम्प्रदाय, तथा वारकरी सम्प्रदाय, १२हवीं- १३हवीं शताब्दी के पुरातन सम्प्रदाय हैं। उसके बाद के कालखंड में दत्त सम्प्रदाय, गाणपत्य, नागेश सम्प्रदाय, तथा १६हवीं शताब्दी में उदित समर्थ सम्प्रदाय प्रमुख रूप से कहे जा सकते हैं। इन सभी सम्प्रदाय-पंथों में वारकरी सम्प्रदाय या वारकरी विचारधारा को बुद्धिजीवी, विचारक, तथा अध्येता महाराष्ट्र की मूल धारा के रूप में सम्माविष्ट करते आए हैं। हिन्दू धर्म के असंख्य सप्रदायों में वारकरी सम्प्रदाय अध्यात्म-मार्गी व भक्तिपंथी होने के बावजूूद इहवादी सम्प्रदाय है।

वारकरी सम्प्रदाय का जन्म तथा विकास

वारकरी सम्प्रदाय की नींव १३हवीं शताब्दी में संत ज्ञानदेव ने रखी, और संत नामदेव ने उसका विस्तार किया। १४हवीं शताब्दी में संत एकनाथ ने इस सम्प्रदाय को नईं संजीवनी प्रदान की। सोलहवीं शताब्दी में संत तुकाराम इस सम्प्रदाय के कार्यों को ऊंचाइयों तक लेकर गए।

यह सच हैं कि संत ज्ञानदेव ने भक्ति के महायोग पीठ श्री क्षेत्र पंढरपुर की भक्ति को संगठित सम्प्रदाय का स्वरूप प्रदान किया इसीलिए इस सम्प्रदाय की नींव संत ज्ञानदेव ने रखी यह कहा जाता है, पर यह भी सच है कि पंढरपुर क्षेत्र की महिमा और विट्ठल भगवान की भक्ति इसके पूर्व भी अनेक शताब्दियोें से प्रचलित थी। केरल से कश्मीर जाते समय आदि शंकराचार्य रास्ते में पंढरपुर श्री क्षेत्र को विशेष रूप से भेंट देते हैं, यह बात सिद्ध करती है कि इस काल में भी पंढरी के भगवान विट्ठल की महिमा केरल तक फैली हुई थी।

आदिशंकराचार्य ने भगवान विट्ठल को ‘पांडुरंग’ नाम से सम्बोधित किया। भगवान पंढरीनाथ, भगवान विट्ठल, भगवान पाडुरंग, ऐसे मुख्य २४ एवं विष्णु सहस्र नाम के एक हजार नामों से भी जाना जाता है। श्री विट्ठल भगवान कृष्ण के ही एक रूप हैं, उनके अवतार हैं। भक्त पुंडलिक के लिए भगवान श्रीकृष्ण द्वारका से श्री क्षेत्र पंढरपुर आए। पद्मपुराण में यह संदर्भ है। वारकरी सम्प्रदाय के अध्येता श्री मामासाहेब दांडेकर (वारकरी पंथाचा इतिहास) में कहते हैं कि जिस प्रकार भक्त प्रह्लाद के लिए विष्णु भगवान ने नरसिंह अवतार लिया, उसी प्रकार भक्त पुंडलिक के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने विट्ठल का अवतार लिया। माता पिता के भक्त को उनकी माता पिता के प्रति भक्ति से संतुष्ट होकर भगवान कृष्ण स्वयम पंढरपुर आए। भक्त पुंडलिक द्वारा उनके लिए दी गई ईंट पर वे खड़े रहे, इसीलिए उनका नाम ‘विट्ठल’ प्रचलित हुआ।

ईंट पर खड़ा (मराठी में ईंट को ‘विट‘ कहा जाता है) होने के कारण विट्ठल नाम पड़ा, यह बहुत से लोगों की मान्यता है। विट्ठल शब्द के अनेक विद्वानों ने अनेक अर्थ दिए हैं, एक मान्यता के अनुसार विष्णु शब्द का यह कन्नड अपभ्रंश है। श्री विट्ठल की मूर्ति की कुछ विशेषताएं हैं, यह भगवान विष्णु एवं भगवान श्री कृष्ण की अब तक की मूर्तियों से अलग है। विट्ठल की मूर्ति चार भुजाओं की न होकर केवल दो भुजाओं वाली है, यह उसका खासियत है, इसकी विशेष बात यह कि उनके हाथ में कोई शस्त्र नहीं है। श्री विट्ठल के दोनों हाथ कमर पर रखे हैं, तथा एक हाथ में ज्ञान का प्रतीक ‘शंख’ है तो दूसरे हाथ में पवित्रता का प्रतीक ‘कमल’ है। मूर्ति विशेषज्ञ डॉ. गो.ब.देगतरकर इस प्रतीमा को ‘योगस्थानक’ प्रकार की मानते हैं। इसी लिए उसके हाथ में कोई शस्त्र नहीं हैं। भक्त श्री विट्ठल को ‘पांडुरंग’ नाम से भी सम्बोधित करते हैं। पांडुरंग का अर्थ है गोधुली के कारण जिसका रंग सफेद पांडु जैसा दिखाई देता है। श्री विट्ठल भगवान कृष्ण के अवतार होने के कारण वे गोपाल भी हैं, गाय के खुरों से उड़ने वाली धूल उनके शरीर पर उड़ती है। इसीलिए उनका रंग सफेद दिखाई देता है। पंढरपुर श्री क्षेत्र के नाम पर उन्हें पंढरीनाथ भी कहा जाता है। इस प्रकार भक्तों के बीच पांडुरंग व पंढरीनाथ ये दो नाम सर्वाधिक प्रिय हैं।

वारकरी सम्प्रदाय के इष्ट देवता विट्ठल भगवान की और एक विशेषता है कि वह प्रेम रूप है, वह भक्तों के सखा हैं, भक्तों को हृदय से प्रेम देने वाले हैं, प्रिय मित्र हैं, इसीलिए पंढरपुर में श्री विट्ठल का दर्शन उनकी मूर्ति के चरणों पर सिर रखकर किया जाता है। सीधे देवता के चरणों पर सिर रखकर दर्शन करने की यह परम्परा केवल पंढरपुर में ही है। देश के किसी भी भाग में देवमूर्ति को स्पर्श करने की अनुमति नहीं दी जाती।

श्री विट्ठल भक्ति का दूर दूर तक प्रभाव एवं प्रसार

संत ज्ञानदेव ने पूर्व से चली विट्ठल भक्ति को एक संगठित रूप दिया। और संत नामदेव ने महाराष्ट्र से लेकर सीधे पंजाब तक भक्ति की ध्वजा लहराई। १३हवीं सदी में महाराष्ट्र से पंजाब तक पदयात्रा करते हुए भक्ति का प्रसार करने वाले संत नामदेव भारतीय एकात्मता के स्वयं में एक दर्शन है। उनके कार्य की महानता का आकलन इसी बात से किया जा सकता है कि उनके ६३ ‘अभंगों’ (महाराष्ट्र के लोक भक्तिगीत का एक प्रकार) को सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरुग्रंथ साहिब में स्थान दिया गया। आज भी धुमान (पंजाब) में संत नामदेव का मंदिर हैं जहां प्रतिवर्ष भव्य यात्रा का आयोजन किया जाता है। संत नामदेव ने पंजाब जाते समय गुजरात व राजस्थान की भी यात्रा की, जहां उन्होंने विट्ठल भक्ति का प्रचार किया। उत्तर भारत में संत नामदेव का कार्य इतना प्रभावशाली था कि, वहां के विद्वान अध्ययन कर्ताओं ने उन्हें भक्ति संत एवं भक्ति साहित्य का ‘आदिप्रवर्तक’ होने का सम्मान दिया।

उत्तर भारत की तरह वारकरी संतों ने विट्ठल भक्ति का प्रचार दक्षिण भारत में भी व्यापक रूप से किया। दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रांत के संत पुरंददास, संत एनकदास ने विट्ठल भक्ति पर जो साहित्य रचना की वह कन्नड भाषा में भक्ति रूपी अमृत का भंडार है। संत पुरंददास को दक्षिण भारत का कबीर कहा जाता है। इन संतों के जीवन में भक्ति साहित्य की रचना की प्रेरणा देनेवाले श्री विट्ठल भगवान ही हैं। श्री कृष्णदेवराय की राजधानी हम्पी में भगवान विट्ठल के मंदिर के भग्नावशेष आज भी प्राचीन भक्ति काल के वैभवपूर्ण युग के प्रमाण हैं। पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध संत चैतन्य महाप्रभु ने पंढरपुर श्री क्षेत्र के श्री विट्ठल भगवान की महिमा सुनकर दक्षिण भारत के साथ साथ श्री पंढरपुर क्षेत्र की भी यात्रा की।

वारकरी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध संत श्री एकनाथ महाराज ने १४हवीं शताब्दी में बनारस की यात्रा की। वे बनारस में १४६० से १४६३ तक तीन वषर्र् तक रहे। संत एकनाथ ने श्री मद्भागवत को आधार मानकर मराठी में भाष्य ग्रंथ लिखा (मराठी नाथ भागवतांची)। इस भाष्य ग्रंथ को काशी के विद्वानों ने हाथी पर विराजमान कर पदयात्रा निकाल कर, सम्मानित किया।

सामाजिक समरसता का प्रतिपादन

वारकरी सम्प्रदाय का दर्शन व्यापक एवं उदार है। छुआछूत, वर्णभेद, जातिभेद, लिंगभेद के लिए इस सम्प्रदाय के आचार-विचार में कोई स्थान नहीं है। जाति-भेद का अंतिम क्रिया कर्म कर केवल भक्ति को ही प्रभावी मान कर अलौकिक समता एवं समरसता की ध्वजा वारकरी संतों ने लहराई। वेदों से वंचित एवं उपेक्षित समाज को वारकरी संतों ने ‘नामस्मरण’ भक्ति का वैकल्पिक मंत्र देकर उनके अंदर के आत्मविश्वास को जागृत किया। वारकरी सम्प्रदाय की नींव रखने वाले संत ज्ञानदेव के उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण एवं विचारों से प्रभावित होकर अल्पकाल में ही महाराष्ट्र की १८ पिछड़ी जातियों के संतों का समागम विट्ठल भक्ति की अलौकिक समता के झंडे तले पवित्र चंद्रभागा नदी के किनारे सम्पन्न हुआ। माली समाज के ‘सावता’, कुम्हार समाज के ‘गोरोबा’, दर्जी समाज के ‘नामदेव’, महार समाज के ‘चोखोबा’, सुनार समाज के ‘नरहरी’, दासी वर्ग की ‘जनाबाई’, जैसे भक्तों को संत का सम्मान प्राप्त हुआ। जिन्होंने समय समय पर वारकरी सम्प्रदाय को नेतृत्व प्रदान किया।

वारी: वारकरी समाज का मुख्य आचार धर्म

‘वारी’ यह वारकरी सम्प्रदाय की अपनी स्वतंत्र विशेषता है। ‘वारी’ का अर्थ है, इस सम्प्रदाय के इष्ट देवता श्री विट्ठल भगवान के दर्शन के लिए निश्चित तथा निर्धारित अवधि में बार बार जाना। ‘वारी’ यह एक व्रत है। एक उपासना है, वारकरी विट्ठल भक्तों के लिए आचार संहिता है। ‘वारी’ की कुछ विशेषताएं हैं। १. प्रतिमाह या प्रतिवर्ष किए जाने की अनिवार्यता, २. ‘वारी’ यह सामूहिक भक्ति है, महत्वपूर्ण बात यह है कि अनेक लोग समूह में भजन करते हुए पंढरपुर की यात्रा करते हैं।

श्री क्षेत्र पंढरपुर में आषाढ़ मास की देवशयनी एकादशी के दिन महाकुंम के सम्मान महायात्रा का आयोजन होता है। उसमें सम्मिलित होने के लिए महाराष्ट्र के स्थान स्थान से लोग समूह में भजन करते हुए, अभंग गाते हुए पंढरपुर की पैदल यात्रा करते हैं। साथ मेंे किसी संत की पादुका या तस्वीर पालकी में रखकर, पालकी कंधे पर रखकर भजन गाते हुए पंढरपुर आते हैं। इसी प्रकार की एक यात्रा श्री क्षेत्र आलंदी से श्री संत ज्ञानदेव की पादुका लेकर निकलती है, जो २०-२२ दिन की पदयात्रा के बाद आषाढ़ी एकादशी के दिन पंढरपुर पहुंचती है। पालकी की इस यात्रा में अनेक समूह भजन मंंडलियांें के रूप में मिलते रहते हैं। सुबह छह बजे वारकरी यात्रा पर निकलने की तैयारी शुरू कर देते हैं। धूप, हवा, पानी, बादल की चिंता किए बिना सूर्यास्त तक यह पदयात्रा चालू रहती है। सूर्यास्त के समय पालकी में रखी श्री ज्ञानदेव की पादुकाओं की सामूहिक आरती का कार्यक्रम होता हैं, और रातभर खुले जंगल में निवास किया जाता है। दूसरे दिन पुन: सुबह छह बजे पदयात्रा की तैयारी शुरू हो जाती है। लाख-दो लाख भक्तों की सामूहिक भजन गाते हुए यह यात्रा केवल पदयात्रा नहीं है, सामाजिक एवं सामूहिक भक्ति जागरण के पवित्र भाव से भरी यह यात्रा है

श्री क्षेत्र पंढरपुर पहुंचने के बाद विट्ठल भगवान का दर्शन करना यह मुख्य काम होता है, फिर भी चंद्रभागा नदी में स्नान, पंढरी नगरी की प्रदक्षिणा और हरिकीर्तन, भजन, प्रवचन भी साथ में होने वाला उपक्रम होता है। वारकरी भक्ति का यह पथ ज्ञानोत्तर होने के कारण इसमें पूजाविधि की अपेक्षा भजन-कथा-कीर्तन-प्रवचन को अधिक महत्व दिया जाता है। वारी महायात्रा के लिए एकादशी यह सबसे महत्त्वपूर्ण दिन होता है। उस दिन वारकरी उपवास रखते हैं, दूसरे दिन संकीर्तन सुनने के बाद, प्रसाद लेकर उपवास छोड़ते हैं। पूर्णिमा के दिन ‘गोपालकाला’ कीर्तन का कार्यक्रम होता है, उसी के प्रसाद से वारी की समाप्ति होती है।

नियमित रूप से बार-बार वारी अर्थात यात्रा करने वाले भावुक भक्तों का यह समूह होने के कारण इसे वारकरी सम्प्रदाय कहते हैं। छत्रपति शिवाजी ने वारी की इस पूजा के लिए विशेष दान दिया था। उसके बाद पेशवाओं ने भी आषाढ़ी वारी के लिए दान दिया, जिस का पालन ब्रिटिश सरकार ने भी किया। पूजा पाठ का सारा व्यय शासन की ओर से होता था। स्वतंत्रता के बाद भी यह परिपाटी चलती रही। इधर आषाढ़ी एकादशी की महापूजा करने के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री सपरिवार उपस्थित रहते हैं। इस प्रकार पंढरपुर की वारी की ज्ञानदेव काल के पूर्व से चली आ रही हजार ग्यारह सौ वर्ष की सुदीर्घ और वैभवशाली परम्परा है। यह केवल एक धार्मिक घटनाक्रम नहीं है, वरन् महाराष्ट्र के सांस्कृतिक वैभव एवं ऐश्वर्य का प्रतीक है। महाराष्ट्र की सामाजिक समरसता की भक्ति का अनोखा दर्शन है।

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